“प्रीती न जाने जात कुजात,
भूख न जाने बांसी भात,
नींद न जाने टूटी खाट,
प्यास न जाने धोबी घाट।।” आदिवासी लोकगीतों से सादर
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में Manav Adhikar kya hai इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत लोकगीत से प्राप्त हो जाता है। इस लोकगीत में आदिवासी समाज के जीवन का चित्रण हुआ है। आदिवासी समाज अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर पा रहा है। जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं तक भी उनकी पहुँच नहीं है। जब कोई समुदाय अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाता हो ऐसी स्थिति में उनके गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार का क्या हाल होगा आप समझ सकते हैं।
सन् 1978 में भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘मेनका गांधी बनाम भारत संघ’ के मामले में निर्णय देते हुए अनुच्छेद-21 में अंतर्निहित जीवन के अधिकार का विस्तार करते हुए इस अधिकार को व्यापक बना दिया है। इस अधिकार के अंतर्गत जीवन के वे सारे पहलू सम्मिलित हैं, जो जीवन को सम्मानित एवं आदर्श बनाते हैं। किंतु आदिवासी समुदायों के संदर्भ में यह अधिकार आज भी एक सपने के समान है।
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में यह हमारा चौथा शोध-आलेख है। इसके पूर्व हमने विभिन्न मानवाधिकारों के संदर्भ में तीन शोध-आलेख प्रकाशित कर चुके हैं। प्रस्तुत शोध-आलेख में ‘गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार’ और मानव तस्करी के संबंध में विचार करने का प्रयास किया गया है।
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में भोजन और स्वास्थ्य का अधिकार आप यहाँ पढ़ सकते हैं
1. गरिमापूर्ण (ससम्मान) जीवन जीने का अधिकार और आदिवासी समुदाय:
सम्मानित जीवन या गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार एक मनोवैज्ञानिक अधिकार है। गरिमापूर्ण जीवन का अभिप्राय है, समाज में मानव जीवन का सम्मान। यह सम्मान मानव के किसी पद, लिंग, नस्ल या आर्थिक आधार पर नहीं बल्कि उसके मानव होने के अन्तर्गत निहित गुणों के कारण है।
एक मानव यदि आर्थिक दृष्टि से गरीब ही क्यो न हो किन्तु उसका चरित्र एवं जीवन नैतिक है, तो वह आदर का पात्र है। अतः समाज में प्रत्येक व्यक्ति का समान महत्व हो अर्थात यह एक ऐसा अधिकार है, जो समस्त मानवाधिकारों को अपने में समाहित करता है।
गरिमापूर्ण जीवन का प्रभाव तुरन्त नहीं बल्कि समय के साथ धीरे-धीरे स्पष्ट होता है। जो मानव मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डालता है। इसके विपरित यदि हमारे इस मर्यादित उदात्त जीवन के मानवाधिकार का उल्लंघन होता है तब सारे मानवाधिकार प्राप्त होने पर भी वह आनंद प्राप्त नहीं होता जो एक व्यक्ति मानव होने के नाते अनुभव करता है। गरिमा एक ऐसा मानवीय गुण है, जो प्रत्येक मानव चाहे वह अमीर हो या गरीब, प्राप्त करना चाहता है। यदि व्यक्ति अमीर है किन्तु समाज में उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, तो उसका आनंद ही कुछ और होता है। वह अपने मानव जीवन को सार्थक मानने लगता है। फलतः गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार इतना महत्वपूर्ण है कि इसे प्रदान करने पर सार्वभौम घोषणा द्वारा प्रदान किए गये सारे मानवाधिकार इसमें शामिल हो जाते हैं। मनुष्य के जीवन को उन्नत एवं गरिमापूर्ण बनाने हेतु घोषणा पत्र के 30 अनुच्छेदों का प्रावधान एवं उनमें चित्रित मानवाधिकार इसी लिए प्रदान किए गए है। फिर भी सार्वभौम घोषणा पत्र का अनुच्छेद-25 (1) में स्पष्ट किया गया है कि ‘‘प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे जीवन स्तर को प्राप्त करने का अधिकार है जो उसे और उसके परिवार के स्वास्थ्य एवं कल्याण के लिए पर्याप्त हो। इसके अन्तर्गत, भोजन, कपड़ा, मकान, चिकित्सा संबंन्धी सुविधाएँ और आवश्यक सामाजिक सेवाएँ सम्मिलित हैं। सभी को बेकारी, बीमारी, असमर्थता वैधव्य, बुढ़ापे या अन्य किसी ऐसे परिस्थिति में आजीविका का साधन न होने पर जो उसके काबू के बाहर हो, सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है।’’1
कहना न होगा कि गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार बहुत व्यापक है। इसमें जीवन के सारे आयाम सम्मिलित हो जाते हैं। कभी-कभी यह अधिकार मानवाधिकारों की सीमा को इतना व्यापक बना देता है कि व्यक्ति का जीवन अत्यंत उन्नत, उदात्त एवं विकसित दृष्टिगोचर होता है। सयुक्त राष्ट्र का चार्टर, घोषणा पत्र तथा विभिन्न राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास तथा विभिन्न सभा सम्मेलन यहाँ तक कि आज जो विकास की होड मची है, ये सारे प्रयास मानव जीवन को उन्नत एवं गरिमापूर्ण बनाने हेतु ही है।
भारतीय संविधान में भी मानव जीवन को गरिमापूर्ण बनाने हेतु अनुच्छेद-21 का सृजन किया गया है। अनुच्छेद-21 द्वारा प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण का अधिकार प्रदान किया गया है। यह अनुच्छेद कहता है कि ‘‘किसी व्यक्ति को उनके प्राण एवं दैहिक्ता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के माध्यम से ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।’’2 और वह विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया भी प्राकृतिक सिद्धान्त के अनुरूप हो।
उच्चतम न्यायालय के विभिन्न निर्णयों द्वारा जीवन के अधिकार की व्याख्या समय समय पर हुयी है। न्यायालय द्वारा इस अनुच्छेद के अन्तर्गत वे सारे अधिकार सम्मिलित किए गए जो संविधान के मूल अधिकारों में या तो विद्यमान नहीं थे या अस्पष्ट रूप से विद्यमान थे।
भारतीय संविधान निर्माता मानवीय गरिमा एवं योग्यता के महत्व से परिचित थे। इसलिए उन्होंने संविधान की प्रस्तावना में भी मानवीय गरिमा शब्द को शामिल किया। यह अनुच्छेद मानवीय गरिमा को सुरक्षित करता है।
सरकार द्वारा इस अनुच्छेद को धरातल पर उतारने हेतु अनेक प्रयास किए गए हैं किन्तु आज भी भारत में ऐसे बहुत से समुदाय हैं, जिनका जीवन किसी भी तरह से गरिमामय नहीं है। स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों पश्चात भी वास्तविक स्वतंत्रता के स्थान पर कागजी स्वतंत्रता ही हाथ लगी है।
गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार जीवन को उन्नत तथा विकसित बनाने हेतु समकालीन जीवनयापन के संसाधनों की रक्षा करते हुए नए संसाधनों की आपूर्ति करता है ताकि मनुष्य अपने जीवन को नए ढंग से उन्नत बना सके। आदिवासी समाज के संदर्भ में इसके विपरित स्थिति बनी हुयी है। आदिवासी कवि अनुज लुगुन अपने स्वजनों की स्थिति पर लिखते हैं कि
‘‘कोई नहीं बोलता इनके हालात पर
कोई नहीं बोलता जंगलों के कटने पर
पहाड़ों के टूटने पर
ट्रेन की पटरी पर पड़ी
तुरिया की लावारिश लाश पर
कोई कुछ नहीं बोलता।’’3
कविता की इन पंक्तियों में पर्यावरण अधिकार, अभिव्यक्ति का अधिकार तथा लावारिश मृत शरीर को गरिमापूर्ण अंन्तिम संस्कार के अधिकारों का हनन का चित्रण हुआ है। जब मानवीयता के सबसे मूलभूत अधिकारों का हनन होता है, तब समाज को एकता के साथ स्वर बुलंद करना आवश्यक होता है किन्तु ऐसा नहीं हो पा रहा है।
गरिमा के अधिकार पर उच्चतम न्यायालय ने अपने कई निर्णयों द्वारा मानवीय गरिमा को महत्व दिया है। नाज फाउंडेशन तथा एन.सी.टी. की सरकार और अन्य लोगों के मामलें में न्यायालय ने कहाँ है कि मानवीय गरिमा के संरक्षण के लिए हमें अपने समाज के सदस्यों के रूप में सभी व्यक्तियों के मूल्यों को स्वीकार करना होगा। न्यायालय ने इस निर्णय में व्यक्ति तथा समाज के मूल्यों को महत्व देने का निर्णय दिया। अब सवाल खडा होता है कि समाज या समूदाय के मूल्य क्या होते हैं तथा उनकी परिभाषा क्या है? तो स्पष्ट होता है कि जिन मौलिक तत्वों पर कोई विशिष्ट संस्कृति टिकी हो उन्हें मूल्य कहते हैं। किंतु आज आदिवासी समुदायों के सांस्कृतिक मूल्य भी खतरे में हैं।
अनुच्छे 21 एव गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार पर अपने विचार व्यक्त करते हुए न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्र ने परमानंद कटारा बनाम भारत संघ मामले में कहा कि ‘‘जीवन का संरक्षण सबसे महत्वपूर्ण है क्योंकि यदि किसी का जीवन खो जाता है, तो पुनरूत्थान की स्थिति बहाल नहीं की जा सकती क्योंकि पुनरूत्थान मनुष्य की क्षमता से परे है।’’ (अगस्त-21 Legend news Article)
न्यायमूर्ति रंगनाथ अनुच्छेद 21 में जीवन रक्षा को जोड़ा हैं। जीवन की रक्षा अर्थात किसी को मृत्यु से बचाना किन्तु केवल जीवित रहना भी तो जीवन नहीं होता, जीवन में अन्य आधारभूत सूविधाओं का उपलब्ध होना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यदि हम आदिवासी समाज पर विचार करें तो उन्हें सुविधाएँ उपलब्ध तो हैं ही नहीं किन्तु वे स्वयं अपने जीवन की रक्षा भी नहीं कर पा रहे हैं। उनके पास रोटी, कपडा, मकान जैसी अतिआवश्यक सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। वे तो जूठे पत्तलों को चाटने हेतु मजबूर हैं। राजीव रंजन की कविता।
‘‘कट् कट् कट् चूहे काट रहे
गोदामों में सड़ते राशन
चट् चट् चट् बच्चे चाट रहे
फेके पत्तल जूठे बर्तन
भूखे किर्तन करती विधवा।’’4
इस कविता में दो विपरीत स्थितियों का वर्णन हुआ है। एक ओर गोदामों में अनाज सड़ रहा है, तो दूसरी और बच्चे जूठन खाने को विवश हैं। यह स्थिति क्यो है? इसके पिछे क्या कारण है? व्यवस्था, प्रशासन तथा अर्थव्यवस्था के बीच योग्य सामंजस्य न होने के कारण यह स्थिति उत्पन्न होती है। यही नहीं आदिवासी समाज स्वच्छ पेयजल जैसी सुविधाओं से भी वंचित है। अर्थात आदिवासियों का जीवन स्वतंत्रता से पूर्व जैसा था उससे भी बदतर हुआ है। यदि कुछ एक अपवादों को छोड़ दिया जाय तो।
मानवीय गरिमा की कोई सटीक परिभाषा नहीं है लेकिन इसके अन्तर्गत व्यक्ति के नागरिक, राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक अधिकारों की रक्षा को शामिल किया जाता है। गरिमा का अर्थ सम्मान और समान स्थिति एवं अवसर प्रदान करना है। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने जीवन के अधिकार को जीवन और स्वतंत्रता के संरक्षण के रूप में स्वीकार किया है किन्तु वास्तविक परिस्थिति कुछ अलग ही होती है न ही जीवन में स्वतंत्रता है और नहीं गरिमा की रक्षा हो पाती है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि यदि गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार वास्तविक रूप से सभी लोगों को प्राप्त हो जाय तो यह मानवीय सभ्यता को सदृढ़ बनाता है और जीवन की व्यापक अवधारणा अर्थात परम्परा संस्कृति और विरासत को दिशा प्रदान करता है।
मानवाधिकार के उल्लंघन में मानव तस्करी एक प्रमुख विषय है। ‘‘मानव तस्करी भारत में मिलियनों अमेरिकी डॉलर का एक अवैध व्यापार है। प्रतिवर्ष लगभग दस हजार नेपाली महिलाएँ वाणिज्यिक यौन शोषण हेतु भारत लायी जाती हैं। प्रति वर्ष बीस पच्चीस हजार महिलाओं और बच्चों की बांग्लादेश से अवैध तस्करी हो रही है।’’5 आदिवासी महिलाओं की तस्करी एवं शोषण में हॉलाकि सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्वार्थ को कारणीभूत ठहराया जाता है किन्तु इस वास्तविकता से इनकार नहीं किया जा सकता कि आदिवासी महिलाओं के शोषण का प्रमुख कारण गैर-आदिवासी पुरूषों का आदिवासी महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण है। आर्थिक स्थिति की मारी वे गांव, शहर, सडक, रेल सभी स्थानों पर शोषित हो रही हैं। ‘ट्रेफिकिंग इन पर्सन रिपोर्ट 2020 (अमेरिका के विदेश मंत्रालय द्वारा जारी) में भारत को गत वर्ष की भॉति टियर-2 श्रेणी में रखा गया है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार ने 2019 में मानव तस्करी जैसी बुराई को मिटाने के लिए प्रयास तो किए हैं। लेकिन इसे रोकने से जुड़े न्यूनतम मानक भी हासिल नहीं किया जा सका है। रिपोर्ट में कहा गया है कि छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा क्षेत्र में यह गतिविधि अधिक होती है। निर्मला पुतुल की कविता इस दावे को प्रमाणित करती है।
‘‘कैसा बिकाऊ है तुम्हारी बस्ती का प्रधान
जो सिर्फ एक बातल विदेशी दारू में रख देता है
पूरे गांव को गिरवी
और ले जाता है कोई लडकियों के गट्ठर की तरह
लादकर अपनी गाडियों में तुम्हारी बेटियों को
हजार पाँच-सौ हथेलियों पर रखकर।’’6
शोषण की यह प्रवृत्ति उस समय अपने चरम पर होती है, जब बाहरी समाज आदिवासी महिलाओं को धन या संपति अथवा मनोरंजन का झून-झूना या भोग विलास और उत्पादन के साधन के रूप में देखता है। विडंबना यह है कि महिलाएँ भी चाहे अनचाहे इस शोषण तथा इस मानवाधिकार हनन को जीवन का एक अपरिहार्य तथ्य के रूप में स्वीकार कर लेती हैं।
कहना न होगा कि आज का आदिवासी समाज समस्याओं से घिरा है। उनके मानवाधिकारों का खुले आम हनन हो रहा है। उनके प्रति सरकार की संवदेनहीनता तथा व्यवस्था की असफलता कुछ हद तक समस्याओं के लिए उत्तरदायी हैं।
निष्कर्ष:
यह निष्कर्ष इस आलेख और इससे पहले आदिवासी समुदायों के संदर्भ में Manav Adhikar kya hai विषय पर प्रकाशित किए गए सभी आलेखों पर आधारित है।
कहना न होगा कि आज भारत में आदिवासी समुदायों की स्थिति गंभीर एवं सोचनीय है। संपूर्ण भारत में 500 से अधिक आदिवासी समुदाय अनादि काल से रहते आ रहे हैं। उनके प्राकृतिक अधिकारों एवं मानव अधिकारों का उल्लंघन आज जिस प्रकार से हो रहा है, इस प्रकार का उल्लंघन कभी नहीं हुआ था। हालांकि आदिवासी समुदाय बाहरी गैर-आदिवासी समुदायों से प्राचीन काल से लड़ता आया है। किंतु उनके अपने प्राकृतिक एवं मानव अधिकार सुरक्षित रहे थे। वर्तमान समय में उनके सारे अधिकार छीन लिए गए हैं। वे अपने प्राकृतिक एवं मानव अधिकारों को प्राप्त करने में असफल हो रहे हैं।
भोजन का अधिकार, स्वस्थ जीवन का अधिकार, सर्व समावेशी शिक्षा का अधिकार, उनके जीवन में मनमाना हस्तक्षेप, समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार जिसमें विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सम्मेलन की स्वतंत्रता, देश में भ्रमण का अधिकार, निवास की स्वतंत्रता, व्यवसाय अथवा वृत्ति अपने की स्वतंत्रता, मानव तस्करी, गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार आदि विभिन्न अधिकारों की स्थिति आदिवासी समुदायों के संदर्भ में गंभीर रूप से सोचनीय है। आदिवासी समुदाय इन मूलभूत अधिकारों को स्वतंत्रता के 75 वर्षों के पश्चात भी उसे रूप में प्राप्त नहीं कर सका है, जिस रूप में प्राप्त किया जा सकता था। इस स्थिति के अनेक कारण हैं जिनका उल्लेख प्रस्तुत शोध आलेख में हुआ है। अतः हमें और सरकारों को तथा सरकारी संगठनों एवं गैर सरकारी संगठनों को एक साथ मिलकर इस दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है।
संदर्भ ग्रंथ सूची:
- मानवाधिकार सार्वभौम घोषणा 1948, www.un.org
- उर्मिला शर्मा, भारतीय संविधान, अटलांटिक पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रिब्यूटर्स, दिल्ली, प्र.सं.1999, पृ. 29
- उर्मिला शर्मा, भारतीय संविधान, अटलांटिक पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रिब्यूटर्स, दिल्ली, प्र.सं.1999, पृ.65
- राजीव रंजन प्रसाद, तू मछली को नहीं जानती, यश पब्लिकेशन दिल्ली, 2014, प्र-32 पृ.32
- सत्यनारायण साबत, भारत में मानवाधिकार, राधाकृष्ण प्रकाशन नयी दिल्ली प्र. सं. 2014, पृ.23
- निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली, 2012, पृ. 20