What are the Characteristics of Tribal Communities ? आदिवासी समुदाय प्राचीन काल से एक पृथक समाज रहा है, उसकी एक विशिष्ट सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था भी है। आदिवासी समाज की सामाजिक व्यवस्था में परम्परा का अधिक महत्व होता है। फलतः इस व्यवस्था में व्यक्ति को परम्परागत रूप से मानवाधिकार प्राप्त हैं। यही मानवाधिकार इनके जीवन मूल्य और इनकी विशेषताएँ भी हैं। आदिवासी समुदायों के जीवन मूल्य व्यक्ति के सम्मान के साथ-साथ सामूहिकता एवं सहभागिता पर अधिक बल देते हैं। प्रस्तुत शोध-आलेख के अन्तर्गत आदिवासी समुदायों की अनेक विशेषताओं में से प्रकृति के प्रति प्रेम और संवेदना, सामाजिक समानता, आर्थिक सहभागिता, संसाधनों पर सामूहिक अधिकार, बंधुत्व की भावना, स्वच्छंद जीवन की प्रवृत्ति, सामाजिक न्याय और पंचायत व्यवस्था इन सात विशेषताओं पर विचार किया गया है।
What are the Characteristics of Tribal Communities ? आदिवासी समुदायों की विशेषताओं का परिचय:
व्यक्ति विकास के साथ जब सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा विकसित हुयी तभी से व्यक्ति अपने जीवन मूल्यों एवं समाज को प्रगतिशील बनाने हेतु से प्रयत्नशील हुआ।
आदिवासी समाज में अनेक प्रगतिशील जीवन मूल्य और परंपरागत विशेषताएँ विद्यमान हैं। इसिलिए आदिवासी संस्कृति एवं सभ्यता आज तक अनवरत रूप से चली आ रही है। यही नहीं आदिवासी परम्परा में मानव के साथ-साथ पेड़ पौधे, वन्य-जीवों के केवल संसाधन नहीं माना जाता है बल्कि अपने जीवन के अभिन्न अंग मानकर सम्मान किया जाता है। वन, प्रकृति तथा वन्य प्राणियों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करना आदिवासी परम्परा की एक अहम विशेषता है।
आदिवासी समाज में परम्परागत रूप से अनेक जीवन मूल्य प्रचलित हैं। ये जीवन मूल्य व्यक्ति और प्राणियों को उनके प्राकृतिक अधिकार प्रदान करते हैं। जिन्हें आधुनिक मानव विभिन्न कानून एवं नियम बनाकर प्राप्त करता है। आदिवासी समाज प्रकृति के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करता है। फलतः प्रकृति एवं वन्य प्राणियों के अधिकार और जीवन सुरक्षित होता है। ऐसे अनेक जीवन मूल्य और विशेषताएँ अनायास रूप से आदिवासी परम्परा में विद्यमान हैं।
आप यहाँ आदिवासी समुदायों के संदर्भ में मानवाधिकार क्या है? पढ़ सकते हैं
1. प्रकृति के प्रति प्रेम एवं संवेदना:
प्रकृति से आदिवासियों का अविच्छिन्न संबंध हैं। आदिवासियों का जीवन ही प्रकृति पर निर्भर होता है। जंगल में प्राप्त अनायास संसाधान इनकी जीविका के साधन हैं। आदिवासी प्रकृति से इतने गहरे रूप से संबंधित होते हैं कि वे प्रकृति की हलचल एवं क्रियाकलापों के आधार पर सटिक अनुमान लगा लेते हैं कि इस वर्ष वर्षां कैसे होगी, फसल कैसे होगी, रात एवं दिन में समय क्या हो रहा होगा, जंगल की इस पगडंडी से कौन-सा प्राणी गुजरा है? आदि आदि।
आदिवासी प्रकृति से प्रेम करते हैं क्योंकि प्रकृति को वे केवल संसाधन नहीं बल्कि अपनी सहचरी मानते हैं। इसिलिए उनके पार्वों, त्यौहारों, उत्सवों में प्रकृति की पूजा अनिवार्य रूप से सम्मिलित होती है। प्रकृति प्रेम पर अनुज लुगुन की एक कविता देखें।
‘‘पृथ्वी को हम पृथ्वी की तरह ही देखें
पेड़ की जगह पेड़ ही देखें
नदी की जगह नदी
समुद्र की जगह समुद्र और
पहाड़ की जगह पहाड़।’’1
यहाँ सवाल है कि प्रकृति को यदि हम केवल संसाधन के रूप में देखते हैं तब हमें प्रकृति के उस सौंदर्य का अनुभव नहीं हो पाता है जो वास्तव में है। प्रकृति से प्रेम करना आदिवासी समुदायों का परम्परागत मानव मूल्य है। कहना न होगा कि आदिवासी जीवन प्रकृति पर निर्भर होता है। यदि प्रकृति से प्रेम किया जाय तो कोई व्यक्ति प्रकृति को हानि नहीं पहुँचाएगा। वह महुआ के वृक्ष को नहीं काटेगा। जंगल में प्राप्त अनायास फल, फूल, कंदमूल आदि की रक्षा करेगा। फलतः सारे समाज का जीवन निर्वाह संभव हो पाएगा। अतः प्रकृति प्रेम के माध्यम से व्यक्ति के जीवन की रक्षा तथा जीवन जीने के वास्तविक अर्थ की रक्षा होती है।
आदिवासी समाज प्रकृति से अपने जीवन को जोड़कर देखता है। वह मानता है कि यदि जंगल न रहे तो जीवन भी नहीं रहेगा। अतः जीवन के आधिकार हेतु जंगलों, वनों का बना रहना आवश्यक है। इसी भाव को रामदयाल मुंडा अपनी कविता में व्यक्त करते हैं।
‘‘जंगल का आदमी जानता है
कि मैं उसी का विस्तार हूँ।
उसकी व्यष्टि का समष्टि रूप।
वह जानता है कि जंगल को नष्ट करना
खुद को नष्ट करना है।’’2
कहने का तात्पर्य यह है कि आदिवासी परम्परा में प्रकृति के प्रति प्रेम की जो विशेषता है, वह अप्रत्यक्ष रूप से अन्य व्यक्ति के जीवन के अधिकार, उसीक जीविका एवं जीवन को गुणवत्तापूर्ण बनाने के मूल्यों की रक्षा करता है। डॉ. ललित प्रसाद विद्यार्थी आदिवासी परम्परा में विद्यमान प्रकृति के प्रति आदर सम्मान पर लिखते हैं कि ‘‘पृथ्वी के विषय में कछारिया का विश्वास लगभग गारो जैसा है। अरूणाचल प्रदेश की विभिन्न जनजातियाँ सूर्य एवं चॉद की पूजा सबसे बड़े ईश्वर के रूप में करती है।’’3
प्रकृति के प्रति आदर-विश्वास तथा सम्मान का परिणाम होता है, प्रकृति की रक्षा तथा प्रकृति रक्षा का परिणाम होता है, अन्य मनुष्य, पशु-पक्षियों के अधिकारों की रक्षा जो उन्हें प्राकृतिक रूप से जन्म से ही प्राप्त हुए है। अतः आदिवासी परम्परा में व्यापक प्रगतिशील विशेषताएँ विद्यमान हैं।
2. सामाजिक समानता:
आदिवासी सामाजिक व्यवस्था तथा आदिवासी समाज में व्याप्त लोकतांत्रिक गुणों के संदर्भ में जवाहरलाल नेहरू ने कहा है कि ‘‘आदिवासियों में मुझे कई ऐसे गुण दिखाई दिये जो भारत के मैदानी इलाकों, शहरों और अन्य भागों में रहनेवालों में नहीं हैं। इन्हीं गुणों के कारण मैं आकृष्ट हुआ। आदिवासियों के प्रति हमारा रवैया आदानशील होना चाहिए। इन लोगों में बहुत अनुशासन है और वे भारत में अधिकांश लोगों की तुलना में कहीं अधिक लोकतांत्रिक हैं।’’4 आदिवासी समाज में लोकतांत्रिक गुण परम्परागत रूप से विद्यमान हैं। वहाँ सभी को समान अधिकार प्राप्त हैं। सभी के अधिकारों की रक्षा की जाती है।
समानता के अधिकार का मूल्य आदिवासी समाज में परम्परागत रूप में विद्यमान है। महिला के प्रति समान व्यवहार तथा पिता की संपत्ति में उन्हें अधिकार प्राप्त होता है। आदिवासी समुदायों में पितृसत्ता जैसी कठोर प्रकृति कम दिखाई देती है।
‘‘पितृसत्ता का स्वीकार
हमारे खून में जहर भरेगा
और आन्तरिक संरचना कमजोर होकर
मुक्ति की परिकल्पना संभव नहीं होगी।’’5
आदिवासी समाज तथा आदिवासी कवि पितृसत्ता जैसी नकारात्मक प्रवृत्ति को स्वीकार भी नहीं करना चाहते हैं।
आदिवासी समाज में लिंग भेद नहीं है, वहाँ पुत्र एवं पुत्री को समान दृष्टि से देखा जाता है। आदिवासी समाज में घोटुल परम्परा युवा-युवतियों की समानता एवं स्वतंत्रता का उदाहरण है। लिंग भेद पर अनुज लुगुन का नायक अपनी बिरसी (संगीनी) से कहता है कि-
‘‘तुम सही हो बिरसी
लैंगिक भेद पर
तुम्हारा यह आवेश
हमारी मातृसत्ता का ही अवशेष है।’’6
आदिवासी समाज में ये समानात को गुण कैसे विकसित हुये? इसपर फ्रेडरिक एंगेल्स ने बहुत पहले यह कहा था कि ‘‘आदिवासी समाज का वैभव और बंधन इसी बात में था कि उसमें कोई शासक और शासित नहीं था।’’7 वहाँ सभी शासक हैं। सभी आपसी सहमति से निर्णय लेते हैं। और उस निर्णय का पालन भी सभी करते हैं। अतः आदिवासी समाज में अधिकारों में असमानता तथा उच्च-नीच का भेदभाव नहीं है। वे प्रकृति के समान स्वतंत्र एवं स्वच्छंद जीवन व्यतीत करते हैं।
3. आर्थिक सहभागिता की प्रवृत्ति
आदिवासी समाज में आर्थिक व्यवस्था एवं आर्थिक गतिविधियों पर अनेक विद्वानों द्वारा अनुसंधान कार्य किए गए हैं। जिनमें एडम स्मिथ, एहरेनफेल्स, डेरिल फोर्ड, गार्डन चाइल्ड तथा थार्नवाल्ड आदि प्रमुख हैं। इन विद्वानों द्वारा आदिवासी आर्थिक क्रियाकलापों का वर्गीकरण किया गया है। इन सभी विद्वानों के विचारों का सार यह है कि भारत में आदिवासी समाज विभिन्न आर्थिक क्रियाकलाप में सक्रिय हैं। जैसे खाद्य संग्रह कर्ता, झूम कृषक, कृषक, पशुपालक, शिल्पकार तथा औद्योगिक श्रमिक आदि।
यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि इन सभी प्रकार के समुदायों में एक प्रवृति समान है और वह है, सामुदायिक सहभागिता। आदिवासी समाज की प्रत्येक आर्थिक गतिविधियों में संपूर्ण समुदाय सहभागी होता है चाहे वनोत्पादन करना हो, खाद्य संग्रह करना हो, पशु-पालन या फिर झूम कृषि करना हो सारा समुदाय एक साथ कार्य करता है। इन क्रियाओं के फलस्वरूप प्राप्त लाभ को आपस में समान रूप से विभाजित कर लिया जाता है। और जो व्यक्ति या परिवार किसी कारणवश इन गतिविधियों में सहभागी होने में असमर्थ है, उस परिवार के न्याय का भी ध्यान रखा जाता है। उसे भी लाभ में कुछ अंश दिया जाता है ताकि उसका भी जीवन निर्वाह हो सके। अतः आदिवासी समाज में कोई भूखा नहीं रह सकता। यदि भोजन उपलब्ध है, तो सभी मिल-बाटकर खाएगे अन्यथा सभी भूखे रहेंगे, यह प्रगतिशील प्रवृति आदिवासी समाज में परम्परागत रूप से विद्यमान है।
आर्थिक सहभागिता के संदर्भ में भारत के विभिन्न आदिवासी समुदायों के उदाहरण दिए जा सकते हैं। इस तथ्य पर नदीम हसनैन अपने विचार व्यक्त करते हुए विभिन्न समुदायों का परिचय देते हैं जिनमें आर्थिक सहभागिता की प्रवृति प्रमुख रूप से विद्यमान हैं। वे लिखते हैं कि ‘‘जो कंद-मूल और अन्य फलों तथा मधु इत्यादि का संग्रह करती हैं तथा भोजन हेतु छोटे पशुओं का आखेट करती हैं। …….. खाद्य संकलन तथा शिकारी लोगों की प्रकृति पर इतनी अधिक निर्भरता होती है कि वे सांस्कृतिक अनुकूल की उत्कृष्ट नीति प्रदर्शित करनेवाले, प्रकृति का अंग ही प्रतीत होते हैं।’’8 आदिवासी समुदायों का जीवन सहजीवी होता है। वे सारे कार्य मिलकर करते हैं। चाहे फिर वह जीवन निर्वाह हो या फिर सामूहिक नृत्य, या गायन। इस सहजीवी प्रवृत्ति का उदाहरण अनुज लुगुन की एक कविता में देख सकते हैं।
‘‘कोल, भील, मुण्डा, संथाल, गोंड, खेरवार
बैंगा, मुड़िया, कोंड, कोया, पहाडिया,
ऐसे ही और भी सभी,
जिनका एक ही सहजीवी दर्शन रहा है।’’9
आदिवासी समाज की यह सहभागता अपने एवं अपने समुदाय के सदस्यों के अनेक अधिकारों एवं उनके अपने जीवन मूल्यों को बनाए रखता है। इस प्रवृत्ति के कारण आदिवासी समुदाय में कोई परिवार भूखा नहीं सोता। एक-दूसरों की सहायता एवं सहयोग से सभी के चूल्हें जलते हैं, यही मानवीय प्रवृत्ति है। केवल अपना ही स्वार्थ नहीं बल्कि दूसरों का विचार करना, दूसरों के मानवाधिकारों को स्वीकार करना एवं मान्यता प्रदान करना आदिवासी समुदायों का महत्वपूर्ण जीवन मूल्य है। इस प्रवृत्ति पर कवि लिखता है कि-
‘‘शहर का अंगार
जलता है, जलाता है
फिर राख हो जाता है।
गांव के अंगार
एक चूल्हें से
जाते हैं दूसरे चूल्हें तक
और सभी चूल्हें सुलग उठते हैं।’’10
सभ्य समाज की संस्कृति एवं परम्परा तथा आदिवासी संस्कृति एवं परम्परा में यही अन्तर है कि सभ्य संस्कृति आग लगाती है और राख बनाती है। और आदिवासी संस्कृति भी आग लगाती है किन्तु सभी परिवारों के चूल्हें जलते हैं।
4. संसाधनों पर सामूहिक अधिकार
आदिवासी समाज की सबसे बड़ी प्रवृति है, सामूहिकता। समूहवादी दर्शन यह मानता है कि प्रकृति में विद्यमान जितने भी संसाधन व्याप्त हैं, उनपर सबका समान अधिकार है। अतः प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग उतना ही किया जाय जितनी आवश्यकता हो, व्यर्य संग्रह न किया जाय। इसी दर्शन के फलस्वरूप आदिवासी समाज की अर्थव्यवस्था संग्रह प्रधान नहीं बल्कि निर्वाह प्रधान है।
प्राकृतिक संसाधनों का आवश्यकतानुसार उपयोग तथा उनकी रक्षा के फलस्वरूपअ अन्य व्यक्तियों की आवश्यकताएँ पूर्ण होती हैं। वन्य-प्राणियों के अधिकार बने रहते हैं। अधिकारों की अनायास रक्षा होती है।
सामूहिकता की यह प्रवृत्ति आदिवासी समाज में प्राचीनकाल से परम्परागत रूप में विद्यमान है। आदिवासियों से ही सामूहिकता की अवधारणा विकसित हुयी है। इस पर डॉ. डी.पी. चट्टोपाध्याय अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘लोकायत’ में स्पष्ट करते हैं कि ‘‘……. गण, प्रान्त, संघ, पुग, श्रेणी ये सभी शब्द एक दूसरे के पर्याय थे। मानव समाज व्यवस्था के संदर्भ में इनसे जिस सामूहिकता का संकेत मिलता है उसका सीधा-सा अर्थ है आदिवासी सामूहिकता।’’11
संसाधनों पर सामूहिक अधिकार होने से संसाधनों की रक्षा होती है। आदिवासी समाज नदी के जल को कभी दूषित नहीं करता क्योंकि वह मानता है कि यह जल केवल मेरा नहीं बल्कि इसपर सभी मानव एवं पशु-पक्षियों का अधिकार है। वह वृक्ष को हानि नहीं पहुचाता, वह आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करता। किन्तु समकालीन सभ्य समाज संसाधनों को ही नहीं बल्कि इस समय जीव-जन्तुओं को भी बॉट कर रख दिया है। इसी बॉट खोर प्रवृत्ति का विरोध आदिवासी कविताओं में अभिव्यक्त होता है।
‘‘नहीं रहे अब एक-से
एक सा नहीं रहा उनका सहजीवी दर्शन
धर्म में, नस्ल में, रंग में बाँट दिये गये हैं ये
ये ही नहीं, पूरी मनुष्यता ही बँटी है धरती पर।’’12
आदिवासी समाज पर आज बाहरी समाज या सभ्य समाज की बंदरबॉट प्रवृत्ति का प्रभाव पड़ रहा है। फलस्वरूप आदिवासी समाज में विद्यमान गुण, लक्षण एवं परम्परागत जीवन मूल्य भी अपना दम तोड़ने लगे हैं। आदिवासी समाज की मौलिक प्रवृत्ति आज खतरे में है। इसिलिए आदिवासी अस्मिता का सवाल खड़ा होता है। कहना न होगा कि इन सारे नकारात्मक आदान के बावजूद आज भी आदिवासी समाज की परम्पराएँ पूर्णरूपेण समाप्त नहीं हुयीहैं किन्तु उनकी रक्षा करने की आवश्यकता है।
5. बंधुत्व की भावना:
बंधुत्व की भावना किसी भी समाज के लिए लाभदायक एवं प्रगतिशील होती है। हम हमारे समूह के सभी लोग हम सब एक हैं की भावना आदिवासी समाज में परम्परागत रूप से विद्यमान है। बंधुता की भावना के अन्तर्ग परिवार, नातेदारी एवं समूह विचारधारा महत्वपूर्ण होती है। भारत में आदिवासी समाज विभिन्न समूहों में विभक्त है जिनमें सामुहिकता के भाव होते हैं। बंधत्व भावना पर नदीम हसनैन लिखते हैं कि ‘‘भारत की जनजातियों में नातेदारी के व्यवहार अत्यंत दिलचस्प तथा उल्लेखनीय दृश्य विधान प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार के व्यवहार प्रतिमान, बोले जानेवाले वे मौन नातेदारी प्रणाली के जटिल पहलुओं की व्यवस्था करते है।’’13 विभिन्न समुदाय बंधुत्व की भावना के विभिन्न मानदण्डों को स्वीकार करते हैं।
आदिवासी समाज में बंधुत्व की भावना के फलस्वरूप आपसी सामंजस्य की विशेषता विकसित होती है। अपने समुदाय में किसी भी प्रकार की अनहोनी हो जाने पर सारे गांव के वरीष्ट बैठकर सोच-विचार कर समस्या का समाधान एवं चुनौतियों का सामना करने की रणनीति बनाते हैं। इन परम्पराओं से समुदाय में मानवाधिकारों एवं प्रगतिशील जीवन मूल्यों की रक्षा होती है। अन्याय, अत्याचार का एकजुटता के साथ विरोध किया जाता है।
आदिवासी समाज में बंधुत्व की भावना के कारण शांति, सद्भावना, विश्वास, विनम्रता एवं अपने स्वभाव के अभिमानी जैसे गुण भी विकसित हुए हैं। अशोक सिंह अपनी कविता में आदिवासी प्रवृत्तियों का चित्रण करते हैं।
‘‘जिसने शांति और सद्भावना में ही किया हमेशा विश्वास
विनम्रता से ही उठायी अपनी मांग
हक मांगने की तरह ही मांगा अपना हक
और सबसे बड़ी बात तो यह है कि
अभाव में भी नष्ट नहीं किया अपना स्वभाव।’’14
आदिवासी समाज में न केवल अपने समुदायों के प्रति बंधुता है बल्कि विश्व बुंधुत्व की भावना भी उनमें विद्यमान है। वे मानते हैं कि इस पृथ्वी एवं सारे जीव-जन्तुओं को एक ही ईश्वर ने बनाया है। अतः सभी मानव ईश्वर की इच्छा तथा संपूर्ण ब्रहमांड ईश्वर की कृति है। आदिवासी कवि सभ्य संस्कृति एवं आदिवासी सांस्कृतिक मूल्यों में अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि-
‘‘पर हमने आपस में प्रेम, भाइचारा, इंसानियत और रिश्तों का लिहाज हैं
जबकि सभ्य समाज जो तुम समझते हो
खुद को श्रेष्ट हमसे
एक ही छत के नीचे एक ही कमरे में एक ही टेबल पर भी
तुममें देखी है हमने दूरियाँ
……………………………………………………
जबकि हम माँ-बहन की इज्जत के लिए न्योछावर कर देने हैं जान भी
हंसते-हंसते, लड़ते-लडते।’’15
इस प्रकार आदिवासी स्वाभिमानी, प्रेमी, तथा ईमानदार होता है। वह किसी के अधिकारों की रक्षा हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वाह करता है। क्योंकि बिना कर्तव्य पालन के अधिकारों की बहाली नहीं हो सकती। अपना अधिकार दूसरे का कर्तव्य हो सकता है तथा कर्तव्य एवं अधिकार में पुरकता का संबंध होता है।
आदिवासी समाज के इन प्रगतिशील एवं मानवीय गुणों की प्रासंगिकता इस बात से भी सिद्ध होती है कि आज का वैश्विक समाज केवल अधिकार चाहता है न कि अपना कर्तव्य निभाना चाहता है।
6. स्वच्छंद जीवन की प्रवृत्ति:
आदिवासी अपनी प्रकृति से ही स्वच्छंद होता हैं। स्वच्छंदता के गुण उसे बाल्यकाल से ही प्राप्त होते हैं। वह पर्यावरण की विभिन्न क्रिया-कलापों पेड़, पौधों एवं नदी, झरनों से स्वछंदता के गुण सीखता है। आदिवासी का जीवन प्रकृति पर आश्रित होता है। वे स्वभाव से ही प्रकृति की गोद में जीवन यापन करते हैं। प्राकृतिक उपादानों से उन्हें जीवन-संगीत प्राप्त होता हैं। वृक्षों की हरीतिमा एवं वर्षा की बूँदे इन्हें जीवनन्तता प्रदान करती हैं, वही सर-सरिताएँ जीवन को अमृत-तत्व प्रदान करती हैं। पशु-पाक्षीयों का कलरव जहाँ इनकी नृत्य-भंगिमा को पोषित करते हैं, वहीं पर्वतों से गिरने वाले झरने लोकजीवन-विषयक नई उमंगों एवं उत्साहों को जन्म देते हैं। यही कारण है कि आदिवासी जीवन वन्य प्राणियों के समान स्वच्छंद होता है।
आदिवासी समाज में स्वच्छंदता उनकी सांस्कृतिक विशेषताओं एवं जीवन निर्वाह पद्धतियों का परिणाम है। क्योंकि आदिवासी संस्कृति सतत, सहज प्रवाहित धारा है। डॉ. शामा सुंदर दुबे के शब्दों में ‘‘आदिवासी सांस्कृतिक परम्परा सतत विकसित मूल्यबोध है। पीढ़ी दर पीढ़ी इसमें कुछ नया जुड़ता रहता है।’’16 सतत नया जुड़ने से जीवन में नई दिशा एवं स्वतंत्रताओं का समावेश होता है। संभावनाएँ बढ़ती हैं और व्यक्ति और-और मुक्त होता जाता है। आदिवासी स्वच्छंद जीवन में वे सारे जीवन सौंदर्य के मूल्य विद्यमान हैं। उसे वे सारे अधिकार प्राप्त हैं जो उनके लिए आवश्यक है।
प्रकृति की गोद में अपनी स्वच्छंदता एवं आनंद का अनुभव करता हुआ आदिवासी बाहरी समाज के षड़यंत्रों को समझ नहीं पाता है। बाहरी समाज उसके इस भोलेपन का फायदा उठाता है। ग्रेस क्रूज़ुर की कविता में अपने संगी की स्वच्छंद प्रवृत्ति पर पश्न चिन्ह लगाती नायिका कहती है कि
‘‘ए संगी!
क्यो घूमते हो
झुलाते हुए खाली गुलेल
जंगल-पहाड़, नदी-ढ़ोढ़ा
तुम्हारी गुलेल का गोढ़ा
डूबते हुए लाल सुरज की तरह
भटक गया है
टहनी में
क्या तुम्हे अपनी धरती की
सेंधमारी सुनाई नहीं दे रही?’’17
आदिवासी अपने-आप में सन्तुष्ट होता है किन्तु आज विश्व ग्राम, वैश्वीकरण की अवधारणा के फलस्वरूप उसके इस स्वच्छंद जीवन के समक्ष कई चुनौतियाँ खाड़ी हो गयी हैं। आज उसे बाहरी समाज की सेंधभारी को समझना आवश्यक हो गया है। किन्तु आदिवासी अब भी अपनी भोलेपन एवं अपने में सन्तुष्ट रहने की प्रवृत्ति को पूर्णतः त्यागा नहीं है। उसका आकर्षण और मनोरंजन गीत, नृत्यों और अन्य कला-कृतियों की ओर ही होता है।
आज के समय में आदिवासी समुदायों की स्वच्छंद प्रकृति खतरे में है। उसके संसाधनों, उसकी सांस्कृतिक एकता तथा उनकी जीवन प्रक्रिया का पतन हो रहा है। इस पतन में बाहरी सभ्य संस्कृति की मूख्य भूमिका है। आज आदिवासी कवि अपने जीवन एवं प्रवृति की समृर्ति में लिखता है कि-
‘‘मैं खुश था, हालत पर अपनी –
चाहे जैसा था आजाद था, खुश था
अपने खेतों, खलियानों से
घर में लगभग साल-भर का अन्न पाकर।’’18
किन्तु आज उसका सब कुछ अस्त-व्यस्त हो चूका हैं। उसकी भूमि छीनी जा चूकी है। जंगल कानूनों द्वारा उनके अधिकर छीन लिए गए हैं। उनके जीविका के साधन समाप्त हो चूके हैं। और अब आदिवासी अपने जीवन हेतु दर-दर, गांव-गांव, शहर-शहर भटकने लगा है। उसकी स्वच्छंदता को सभ्य समाज एवं वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था ने छीन लिया है। इस पर आज पुनः विश्लेषण एवं अनुसंधान की आवश्यकता है।
7. सामाजिक न्याय एवं पंचायत व्यवस्था:
सामाजिक न्याय और पंचायत व्यवस्था के आधार पर हम किसी समाज की प्रगतिशीलता का अध्ययन कर सकते हैं। आदिवासी समुदायों में व्यक्ति के सर्वागिन विकास के साथ उसे न्याय प्रदान किया जाय। जिसका उद्देश्य होता है कि वह अपने जीवन को गुणवतापूर्ण बनाता हुआ एक आदर्श जीवन व्यतीत करें। किन्तु यह सब तभी संभव है जब सामाजिक व्यवस्था न्यायप्रिय हो समाज में ऐसी व्यवस्था विद्यमान हो जो सभी के अधिकारों का ध्यान रखें।
आदिवासी समाज में परम्परागत रूप से सामाजिक एवं व्यक्तिगत न्याय प्रदान करने हेतु अपनी एक विशिष्ठ व्यवस्था विद्यमान है। जिसे पंचायत व्यवस्था कहते हैं। आदिवासी समाज में पंचायत व्यवस्था इतनी प्रगतिशील एवं न्याय प्रिय है कि उस पर सारा समुदाय विश्वास करता है। उसके निर्णय को स्वीकार करता है तथा उसके विनियमों के अनुसार समुदाय विनियमित भी होता है।
आदिवासी समाज की पंचायत व्यवस्था में कोई कानून के विशेषज्ञ अथवा वकील, न्यायाधीश नहीं होते हैं। इसमें गांव के सभी वरिष्ठ गण पंच होते हैं जो मामले की प्रत्यक्ष जॉच पड़ताल के बाद सर्व-सहमति से निर्णय देते हैं। मामले की गंभीरता के अनुसार दण्ड अथवा पुरस्कार की व्यवस्था होती है। दण्ड एवं पुरस्कार भी समुदाय की परिस्थितियों के अनुकूल होते हैं।
आदिवासी समाज अपनी समस्या स्वयं हल करना चाहता है। सभी आदिवासी समुदायों में वरिष्ठ लोगों का एक पंचायत मंडल होता है। यह विवाह तय करता है, तलाक करता है, भृष्ट होने पर सजा देता है और सामाजिक नियम तथा रीति-रिवाज को बचाए रखने के सारे प्रयत्न इसी के द्वारा होते हैं। गांव का मुखिया पंचायत का प्रमुख होता है। वह पंचायत का आयोजन एवं अध्यक्षता करता है किन्तु निर्णय सर्वसम्मति से होता है। यह एक प्रकार का गणतंत्र हैं। अनुज लुगुन अपनी कविता में अभिव्यक्त करते हैं कि-
‘‘हमारे गणतंत्र का आधार गीत हैं
गीत ही मंतर हैं
रोग निवारक प्रमुख औषधि
गीतों का रस है
गीत रहित गणतंत्र प्रभुओं की व्यवस्था है
प्रभुओं के खिलाफ़
मैं तुम्हें मंतर दूँगा, गीत सौपॅूगा
वही होगा रोगों से मुक्ति का आधार।’’19
गणतंत्र का आधार गीत का तात्पर्य है। गीतों में अभिव्यक्त आदिवासी परम्पराओं, जीवन मूल्यों एवं रीति-रिवाजों के अनुसार सामाजिक न्याय एवं व्यक्ति अधिकारों की रक्षा करना। पंचायत अपने समुदाय के सभी सदस्यों को न्याय प्रदान करती है।
आदिवासी समुदाय का सामाजिक न्याय प्राकृतिक सिद्धान्तों पर आधारित होता हैं न कि किसी लिखित कानून की धाराओं के अनुसार। उनके अपने गीत, उनकी परम्परा, रीति-रिवाज एवं प्राकृतिक नियम हैं। उनके अपने कानून हैं, जो प्रगतिशील हैं।
आदिवासी समाज में इस न्याय व्यवस्था से समाज में आन्तरिक सामंजस्यता बनी रहती है। अत्याचार, अन्याय व अनैतिकता पर न्याय देना इसके विशेषाधिकारों में है। अनेक जनजातियों में पंचायत के भिन्न-भिन्न नाम हैं। जैसे जमात ग्राम पंचायत, सभासद, मंडल, स्थानिक ग्रामसभा, लॉबीर, नसाब आदि।
वर्तमान समय में आदिवासी समाज की यह न्याय व्यवस्था तथा इसके मानदण्ड कमजोर पड़ते जा रहे हैं। इस पंचायत में बाहरी सभ्य समाज के षड़यंत्रकारी चरित्र एवं पक्षपाती प्रवृति प्रवेश कर चुकी है। फलतः सामाजिक न्याय कभी-कभी पक्ष-विपक्ष में उलझ जाता है और व्यक्ति के अधिकारों का हनन हो जाता है। अतः आदिवासी समाज को अपनी परम्परा के प्रगतिशील तत्वों की रक्षा करनी चाहिए। उन्हें बनाएँ रखना चाहिए तथा सामाजिक न्याय की इस सस्ती, अनुकूल एवं उदार व्यवस्था को कमजोर नहीं होने देना चाहिए। यह व्यवस्था आदिवासी समाज को अपनी जड़ों एवं संस्कृति से जोड़े रखती है।
निष्कर्ष:
आदिवासी समाज में प्रचलित जीवन मूल्य स्वयं में प्रगतिशील हैं। आदिवासी समुदायों के परंपरागत जीवन मूल्यों की आज न केवल आदिवासी समाज को बल्कि संपूर्ण मानव सभ्यता को आवश्यकता है क्योंकि ये जीवन मूल्य मानव जीवन के साथ-साथ जीव-जंतुओं और प्रकृति को भी संरक्षित करने एवं संवर्धन करने की शिक्षा प्रदान करते हैं। आज का तथाकथित स्वयं को आधुनिक समझने वाला मनुष्य स्वयं में कितना अकेला, कुंठायुक्त भावनाएँ लिए कटा-छटा जीवन व्यतीत कर रहा है। आज रिश्ते, नाते, संबंध, समाज तथा पर्यावरण संबंधी कर्तव्यों को ताक पर रख दिया गया है। और मनुष्य दौड़ रहा है दौड़ रहा है जिसका तय कोई गंतव्य स्थान अथवा उद्देश्य निर्धारित नहीं है। कहना न होगा की यह स्वयं को आधुनिक समझने वाला मनुष्य एक मृगमारिचिका में भटक गया है। ऐसी स्थिति में आज भी आदिवासी समुदायों के जीवन मूल्य तथा उनकी प्रगतिशीलता इस समाज के लिए प्रासंगिक है। आदिवासी समुदायों के जीवन मूल्यों को यदि हम उपभोक्तावादी दृष्टिकोण से समझने का प्रयास करते हैं तब हम उन्हें समझ नहीं पायेंगे। लेकिन यदि जीवन को सौंदर्य युक्त बनाने हेतु आदिवासी जीवन प्रवृतियों की और यदि हम देखते हैं तब वे प्रवृतियाँ हमें असीम ज्ञान प्रदान करने में पूर्णरूपेण सक्षम हैं।
संदर्भ ग्रंथसूची:
- हरिराम मीणा, समकालीन आदिवासी कविता, अलख प्रकाशन जयपुर, 2013, पृ-16
- सं. वंदना टेटे, लोकप्रिय आदिवासी कविताएँ, प्रभात प्रकाशन, 2017, पृ-61
- भारतीय आदिवासी उनकी संस्कृति और सामाजिक पृष्ठभूमि पृ–179 वाणी प्रकाशन 1983
- हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक टृस्ट इंडिया नयी दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ–98
- अनुज लुगुन, बाघ और सुहाना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2017,पृ-42
- अनुज लुगुन, बाघ और सुहाना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2017,पृ-50
- हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक टृस्ट इंडिया नयी दिल्ली, प्र. सं. 2013,पृ–98
- नदीम हसनैन, जनजातीय भारत, जवाहर पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रिब्यूटर्स दिल्ली, प्र.सं. 2014, पृ-52
- अनुज लुगुन, बाघ और सुहाना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2017,पृ-80
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- हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक टृस्ट इंडिया नयी दिल्ली, प्र. सं. 2013,पृ-98
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