Vaishvikaran ke Prabhav वैश्वीकरण और आदिवासी अस्मिता का प्रश्न

आदिवासी अस्मिता का संरक्षण ही पर्यावरण संरक्षण है क्योंकि आदिवासी जीवन मूल्य, उनके आचार, विचार, उनका अतीत ज्ञान, उनकी संस्कृति तथा जीवन शैली पर्यावरण और पारिस्थितिकी के अनुकूल हैं। आज vaishvikaran ke prabhav के कारण आदिवासी अस्मिता खतरे में है। आदिवासी समुदायों के इन पर्यावरण हितैषी मूल्यों की रक्षा ही आदिवासी अस्मिता की रक्षा है, जो अंततोगत्वा पर्यावरण की रक्षा करते हैं और हजारों वर्षों से करते आये हैं। 

वैश्वीकरण की अवधारणा, अर्थ एवं परिभाषाएँ:

अंग्रेजी शब्द ग्लोबलाइजेशन का हिन्दी में अनेक पर्याय शब्द विद्यमान हैं। यथा वैश्वीकरण, भूमंडलीकर, विश्वायन, जगतीकरण, पार्थिवकरण आदि किन्तु सभी शब्दों का यही भाव है कि विश्व का मानव पूर्णतः एक परिधि में आ खड़ा हो गया है।

वैश्वीकरण शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं। जैसे वैश्वीकरण व्यक्ति में विश्व चेतना का विकास करनेवाली एक प्रक्रिया है। वैश्वीकरण की प्रवृत्ति अठ्ठारहवी सदी से शुरू हुयी थी किन्तु यह उन्नीसवी सदी में व्यापक रूप से गतिशील हुयी। सन-1948 के पश्चात इसकी गति तेज हुयी तथा सन 1990 के पश्चात वैश्वीकरण मानव को इस प्रकार प्रभावित करने लगा है कि आज का मानव पूर्ण रूप से इसमें जकड़ गया है।

वैश्वीकरण शब्द का भाव है संपूर्ण विश्व का अन्त: संबंध या संबंध या विश्व का एक रूप में बद्ध होना। यह अंतर्संबंध संपूर्ण विश्व को एकीकरण की ओर ले जाता है। यह एकीकरण शिक्षा, संस्कृति, सभ्यता, मानव मूल्य, आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक तथा साहित्यिक सभी क्षेत्रों में समानीकरण तथा देशों के बीच वस्तुगत उत्पादों, विचारों, भावों तथा मूल्यों का आपस में साझाकरण को भी प्रदर्शित करता है।

वैश्वीकरण की परिभाषाएँ: 

एन्थोनी गिड्डन के अनुसार: 

  • ‘‘विभिन्न लोग और दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों के मध्य बढ़ती हुयी पारस्परिकता ही वैश्वीकरण है। यह परस्परिकता सामाजिक और आर्थिक संबंधों में होती है। इससे समाज एवं स्थान सिमट जाते है।’’1

यूरोपीयन कमीशन के अनुसार:

  • ‘‘यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसके द्वारा विभिन्न देशों के बाजार और उत्पादन पारस्परिक रूप से एक दूसरे पर अधिक से अधिक निर्भर रहते हैं और इन निर्भरता का कारण व्यापार और वस्तुओं की गतिशीलता और पूँजी तथा तकनीकी तंत्र का प्रवाहित होना है।’’2

मेघनाथ देसाई के अनुसार:

  • ‘‘भूमंडलीकरण दुनिया भर में विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं का बढ़ना और परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध एवं एकीकरण है।’’3

मेल्कम वाटर्स के अनुसार:

  • ‘‘एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया जिसमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाओं पर भूगोल के अवरोध पीछे हट जाते हैं और जिसमें लोग उत्तरोत्तर इस बात से अनभिज्ञ हो जाते हैं कि ये अवरोध दूर हो गये हैं। इनके अनुसार वैश्वीकरण का अर्थ वृहत्तर सुसंबद्धता और सीमाओं को तोड़ना है।‘’4

उपर्युक्त सभी परिभाषाओं पर यदि विचार किया जाय तो सार निकलता है कि वैश्वीकरण एक बहुआयामी, बहुमुखी और एक व्यापक अवधारणा है। जिसमें व्यक्ति, समाज, बाजार, तकनीकी, संस्कृति, सभ्यता, संसाधन सभी का अन्योन्याश्रित अंतर्संबंध होता है। इसका समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा साहित्यिक क्षेत्र में ऐसा संबंध बनता चला जाता है, जो अंततः समरूपता, एकांगीरूप तथा समानता को जन्म देता है।

Vaishvikaran ke prabhav, Adivasi

आदिवासी समुदायों पर वैश्वीकरण का प्रभाव: Vaishvikaran ke Prabhav 

आदिवासी समाज पर वैश्वीकरण का प्रभाव जीवन के सभी पहलुओं पर नकारात्मक रूप से पड़ रहा है। चाहे वह सामाजिक क्षेत्र हो, राजनीतिक क्षेत्र हो, सांस्कृतिक हो या आर्थिक, साहित्यिक सभी क्षेत्र वैश्वीकरण से प्रभावित हैं। सवाल उठता है कि ऐसा कौन-सा कारण है कि यह समाज सर्वाधिक प्रभावित है। वैश्वीकरण की नकारात्मकता का सर्वाधिक प्रभाव आदिवासियों पर ही क्यों पड़ता है? इन सवालों पर यदि हम विचार करें तो हमें आदिवासी समाज का जीवन, उनकी अवस्थिति तथा उनके सांस्कृतिक मूल्यों को जानना आवश्यक है। तत्पश्चात वैश्वीकरण की मूल प्रवृत्ति एवं उसके वास्तविक रूप को पहचानना आवश्यक है। यदि इन दोनों कारकों की पहचान हो जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में ऐसा क्यों होता है।

वैश्वीकरण आदिवासी समाज की मौलिकता एवं जीवन शैली की जड़ों को ऐसे काट रहा है मानो धीमा ज़हर दिया जा रहा हो। आदिवासी समुदाय यह समझ ही न पाए कि उनकी प्रगतिशील आदिवासियत कैसे समाप्त हो गई। प्रस्तुत शोध-आलेख में वैश्वीकरण की गुप्त ज़हरीली विशेषताओं का प्रभाव कैसे आदिवासी समुदाय के अस्तित्व को समाप्त कर रही हैं? इसपर विचार करने का प्रयास किया गया है।

आदिवासी समुदायों की विशेषताओं को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

वैश्वीकरण और आदिवासी अस्मिता का सवाल:

भारत का आदिवासी समाज भौगोलिक दृष्टि से मुख्य धारा से पृथक रहा है। वह पूँजी संचालित बाजार का अंग धीरे-धीरे बन पायेगा लेकिन जहाँ तक प्राकृतिक संसाधनों की बात है, तो आदिवासी अस्तित्व का सवाल गहरे रूप से जल, जंगल, जमीन से जुड़ा हुआ है। अर्थात उनका जीवन प्रकृति से जुडा है और प्रकृति पर निर्भर भी है।

‘‘जंगल से जीविकोपार्जन कर

स्वच्छंद, चिंता रहित, उन्मुक्त

सुखमय जीवन हमारा।

सीमित साधनों में ही

हमें प्राप्त है निज संतुष्टि”5

जंगल पर आदिवासियों की यह निर्भरता प्राचीन समय एवं अनादिकाल से है। वे जंगलों में रहते आए हैं तथा उसकी रक्षा का दायित्व अपने कंधों पर लेकर पर्यावरण की रक्षा करते आये हैं।

जंगल प्रकृति का आधारभूत तत्व है। यदि जंगल है तो पहाड हैं, नदियाँ है, झीले हैं, सरोवर हैं, वनस्पतियाँ हैं, जंगली जानवर हैं और धरती के गंर्भ में संचयित खनिज संपंदा है। इसलिए जब-जब जंगलों पर खतरा मंडराया है, तब-तब आदिवासी समाज ने संघर्ष किया है। संपूर्ण इतिहास देखें आर्य-अनार्य संग्राम के क्रम से लेकर समकालीन वैश्वीकरण (पूँजीपति) एवं आदिवासियों के बीच संग्राम तक यही क्रम चलता रहा है।

भारत का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहाँ आदिवासी समुदायों द्वारा प्राकृतिक विनाश पर संघर्ष न किया हो। पूर्वोत्तर भारत में नागारानी गांडिल्यू से लेकर इरोम शर्मिला तक, सिधो-कान्हो, बिरसा मुंडा, तिलका मांसी, टंटया मामा, गोविंद गुरू, जोरिया भगत, ख्वाजा नायक, अल्लूरी सीता रामराजू, केरल की आदिवासी किसान क्रांन्ति आदि अनेक क्षोत्रों में प्रकृति विनाश के विरोध में संघर्ष हुए हैं। यही नहीं हिमालय में लेप्चा, भूटिया जनजातियों द्वारा संघर्ष तथा अंदमान द्वीप समूह में अबेदीन की लढ़ाई इसी क्रम में है। अबेदीन की लढ़ाई के संदर्भ में हरिराम मीणा अपनी कविता में लिखते हैं कि

‘‘ऐसा तो नहीं जारवा-पुत्र

कि मस्तिष्क की कंदराओं से

सुनाई देती हों –

अबेदीन की दनदनाती बंदूक की

धधकती अग्नेय प्रतिध्वनियाँ।’’6

इस लढ़ाई में हजारों जारवा आदिवासियों की सरें आम सामूहिक हत्या कर दी गई थी। कहना न होगा कि देश के सभी क्षेत्रों में आदिवासी समाज संघर्षशील रहा है तथा अपने अस्तित्व की लढ़ाई अनादि काल से लड़ता आ रहा है।

आज यदि समग्र दृष्टि से विचार किया जाए तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों, सरकारों और दलालों की गठबन्धनी धुसपैठ तथा वैश्वीकरण के वास्तविक स्वरूप के समक्ष अकेला आदिवासी खड़ा है और संघर्ष कर रहा है ।वह स्वयं के लिए ही नहीं बल्कि समग्र राष्ट्रीय संपदा, राष्ट्र तथा अंततोगत्वा पर्यावरण के लिए संघर्ष कर रहा है। वैश्वीकरण का स्वरूप जितना सुहावना हमें दिखता है वह वास्तव में उतना ही भयावह और ख़तरनाक है। वैश्वीकरण के वास्तविक चेहरे को बेनकाब करती हुयी अनुज लुगुन की यह कविता उस रक्तालोलुप चेहरे से परदा उठाती है।

‘‘उसकी आँखें

पहले से ज्यादा लाल औ प्यासी हैं

वह एक साथ

कई गावों में हमला कर सकता है

उसके हमलों ने

समूची पृथ्वी को दो हिस्सों में बांट दिया है,

जहाँ से वह छलांग लगाता है

वहाँ के लोगों को लगता है

यह उचित और आवश्यक है

जहाँ पर वह छलांग लगाता है

वहाँ के लोगों को लगता है

यह उन पर हमला है

और वे तुरत खड़े हो जाते है

तीर-धनुष, भाले, बरची और गीतों के साथ।’’7

इस कविता में उन दो वर्गों की ओर संकेत किया गया है जो अपने-अपने हितों को ध्यान में रखते हुए वैश्वीकरण की व्याख्या करते हैं। एक वर्ग है वैश्वीकरण की वास्तविकता को जान रहा है और संघर्षरत है वह है आदिवासी। दूसरा वर्ग है जो इस हमले को उचित ठहराने में जुटा है क्योंकि वह उचित ठहराकर प्राकृतिक संपदा को अपने स्वार्थ पूर्ति हेतु उपयोग करना चाहता है। अत: आज यही सोचने समझने का समय है कि राष्ट्र, प्रकृति और पृथ्वी के पक्ष में कौन खड़ा है तथा उन्हें बर्बाद करने पर कौन आमादा है।

आदिवासी अस्मिता पर 2010 से जोर-शोर से चर्चाएँ हो रही हैं। आदिवासी अस्मिता के संरक्षण के समर्थक प्रो. बी.के रायमर्म्मन इस मुद्दे को आदिवासी मानवाधिकार के हनन से जोड़कर देखते है। कुछ विचारक आदिवासी अस्मिता को दो दृष्टिकोण से देखते हैं। एक दृष्टिकोण यह है कि ‘‘आदिवासियों को उनके अलग-थलग अंचलों में रहने दिया जाय उनकी सांस्कृतिक परम्पराओं के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जाय लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उनके विकास के कोई प्रयत्न न किए जाये। यहाँ विकास से महत्वपूर्ण आदिवासियों की एकांतिकता को माना गया।’’8 दूसरे दृष्टिकोण में आदिवासी विकास को महत्व देते हुए कहा गया कि ‘‘आदिवासियों को विकास की विभिन्न योजनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय समाज की मुख्य धारा से जोड़ा जाय।’’9 दूसरे दृष्टिकोण से आदिवासियों की संस्कृति एवं परंम्पराओं पर खतरा उत्पन्न हो सकता है।

उपयुक्त दोनों सिद्धान्त सांस्कृतिक संरक्षण बनाम विकास का मुद्दा खड़ा करते हैं किन्तु सांस्कृतिक अस्मिता संस्कृति के संरक्षण से अधिक जुड़ी हुयी है। और आदिवासी अस्मिता का सवाल सम्पूर्ण मानवता के मौलिक सरोकारों से जुड़ा दृष्टिगोचर होता है। जहाँ से सभ्यता, संस्कृति-विज्ञान ने जितनी प्रगति की है, उसके पश्चात पारिस्थितिकीय वैश्विक संकट तक पहुचने के बाद उस संकट का समाधान उन्हें वहीं खोजना होगा जहाँ से मनुष्य ने विकास की अपनी यात्रा शुरू की थी। लेकिन पारिस्थितिकीय संकट पर वैश्वीकरण के दौर में सोच विमर्श तो बहुत हो रहे हैं किन्तु ये विमर्श वास्ताविकता से बहुत दूर हैं। इन विमर्शो में आदिवासी अस्मिता एवं पारिस्थितिकीय संकट दोनों को पृथक करके देखा जाता है किन्तु ऐसा कतही नहीं है।

जब हम आदिवासी समुदायों की अस्मिता को परिभाषित करते हैं, तो आदिवासी समुदायों की समग्र संस्कृति को ध्यान में रखना होगा। क्योंकि आदिवासी संस्कृति, पारिस्थितिकी के सारे आयामों को अपने में समेट लेती है। जिसमें ‘‘भाषा, धर्म, मिथक, प्रथाएँ, जीवन शैली, खान-पान, वेशंभूषा, गणचिन्ह, सौदर्यबोध, निषेध, आवास, परम्परागत ज्ञान, मानवेत्तर प्राणी जगत, प्राकृतिक तत्वों से संबंध, स्वायत्त जीवनयापन, पर्वोत्सव, लोकोक्तियाँ, मुहावरे, गल्प गीत संगीत, स्त्री-पुरूष संबंध, परिवार, समाज व बस्तियों की दशा आदि से संबंधित बहुत सारी बाते अस्मिता विमर्श के केन्द्र में होगी।’’10 अतः कहना न होगा कि आदिवासी अस्मिता का संरक्षण ही पारिस्थितिकी संरक्षण है लेकिन वैश्वीकरण का दृष्टिकोण कुछ ओर ही है। वह तो किसी भी कींमत पर आदिवासियों को समाप्त करने पर तुला हुआ है। वैश्वीकरण के वास्तविक स्वरूप का चित्रण निम्नलिखित पंक्तियों में हुआ है। 

‘‘उनके एक हाथ में दया का सुनहरा कटोरा होता है

तो दूसरे हाथ में खून से लथपथ कुटनीतिक खंजर।’’11

वैश्वीकरण एक और तो कहता है कि वह आदिवासियों को मुख्यधारा में सम्मिलित करने हेतु उन तक पहुच रहा है। अर्थात वे मेरे दया के पात्र हैं किन्तु उसके दूसरे हाथ में कुटनीतिक खंजर जो उसकी वास्ताविक मंशा जो संसाधन लूट तथा अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। वैश्वीकरण का सांस्कृतिक चेहरा जो आंचलिक संस्कृतियों को लीलते रहने की भूमिका निभाता है। और यह सब विकसित राष्ट्रों द्वारा पूँजी की ताकत के आधार पर सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने की कुटनीतिक मंशा के तहत होता है।

इस वैश्वीकरण की वर्चस्ववादी सांस्कृतिक पहलू के विरूद्ध संघर्ष बहुत कठीन है। कारण वैश्वीकरण एक जुट तथा पूँजी के बल पर बढ़ रहा है किन्तु आदिवासी समाज में एक जूटता एवं पूँजी का भी अभाव है। वैश्वीकरण की प्रवृतियों में बाजारवाद, व्यापार, वित्त, संचार, मीडिया, तकनीकी व विज्ञान तथा अन्य क्षेत्र में घुसपैठ के साथ सांस्कृतिक संस्था है। कुल मिलाकर वैश्वीकरण आदिवासियों के लिए बहुआयामी आक्रमण के रूप में सामने आ रहा है, जो इस समाज के अस्तित्व के ठोस धरातल को ही नष्ट कर रहा है। जो निम्न कविता में भी व्यक्त हुआ है।

‘‘हमारा गांव-घर है, दंडकारण्य

दण्डकारण्य के गांवो ने ‘वैश्विक ग्राम’

के संधि प्रस्तावों के विरूद्ध मतदान किया है

क्या उसी का परिणाम है यह कि

यहाँ मासूम, नाबालिगों तक की लाशे बिखरी हुई है?”12

आदिवासी अस्मिता के सवाल पर लोकतंत्र में राजनीतिक स्तर पर भी विचार विमर्श होना आवश्यक है। संसद में आदिवासी समाज के प्रतिनिधियों द्वारा इन मुद्दों को उठाना चाहिए लेकिन वे तो बिकाऊ बन जाते हैं। यहाँ तक की अपने क्षेत्र की नदी जो अनादि काल से अपने समाज को स्वच्छ जल प्रदान करती रही, उसी को बेच देते हैं और आगे कहते हैं कि यह सब देश हित में तथा आदिवासियों के फायदे के लिए उठाया गया कदम है।

‘‘रेड डंडियन्स अबुझमाड में

इन्द्रावती का पानी पी रहे हैं

और उन्हें गोरे सैनिकों ने

इस चेतावनी के साथ घेर लिया है कि

पानी की निलामी देश हित में हो चुकी है

अब वे और उनके घोड़े

बिना अनुमति के

बिना कींमत आदायगी के

पानी नहीं पी सकते हैं

ऐसा करना अपराध है।’’13

केवल भूमिगत संसाधनों का ही नहीं बल्कि जल को भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेचा जा रहा है। ऐसे में आदिवासी समाज का अस्तित्व कैसे बचा रहेगा? यह भी सोचनीय मुद्दा है। राजनीति का यह कदम आदिवासी अस्मिता पर गहरी चोट है। आदिवासी समुदायों का संसदीय प्रतिनिधि यह सब होते हुए भी मौन होकर देखता रहता है।

आदिवासी अस्मिता का सवाल आज निसंदेह समग्र सांस्कृतिक परम्परा की पहचान से जुड़ा है। भौगोलिकता, भाषा, धर्म, जीवन शैली, पोषाक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं प्रजातीय पहचान को सुरक्षित रखना एवं बाहरी हस्तक्षेप से स्वतंत्र रखने के प्रयास आज के इस वैश्वीकरण के दौर में विफल हो रहे हैं।

वैश्वीकरण की चकाचौध संस्कृति कैसे हमारी प्राचीन मौलिक संस्कृति को निगल रही है, इसका उदाहरण आज मीड़िया के किसी भी अंग में देख सकते हैं। यह संस्कृति का समांगीकरण आदिवासी की ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। आदिवासी सांस्कृतिक अस्मिता पर हमले का एक चित्रण अनुज लुगुन की कविता से लिया जा सकता है।

‘‘मैन देखा मेरा रूप विचित्र हो चूका था

मेरी कलाई में चूडियों की जगह

बैंक चेक और ड्राफ्ट थे

कान की बालियों की जगह रंगीन चलचित्र थे

और जूडे में फूल की जगह

फेयर लोषन के विज्ञापन झूल रहे थे

मेरी पूरी देह असीमित वस्तुओं की सूची से भरी थी

मुझे अपनी देह विज्ञापन की होर्डिग लग रही थी

तभी किसी ने मुझसे कहा

अब तुम आदिवासी स्त्री नहीं हो

और यहाँ आकर

तुम्हारा समाज भी अब आदिवासी नहीं रहा।’’14

इस कविता में सांस्कृतिक अस्मिता मिटाने की प्रक्रिया का पर्दाफाश हुआ है। न केवल आदिवासी अस्मिता बल्कि संपूर्ण भारतीय समाज का अस्तित्व आज खतरे में है।

कहना न होगा कि वैश्वीकरण न केवल हमारी पहचान को समाप्त कर रहा है बल्कि यह हमारी मानसिकता एवं सोचने, समझने के तौर तरीकों को भी आज बदलकर रख दिया है। जब वैश्वीकरण आदिवासी समुदायों का अस्तिव मिटाता हुआ आगे बढ़ रहा है, तब बुद्धिजीवी, राजनेता, विचारक कहते हैं कि यह विकास एवं संवृद्धि हेतु आवश्यक है और इससे आदिवासी मुख्यधारा से जुड़ जाएगे, उनका भी विकास होगा। और वे ही लोग अकले बंद कमरे में गुफ्तगू करते हैं कि यह सब आदिवासियों की नियति है, उन्हें तो मिटना ही था। इसी मानसिकता का चित्रण कमल कुमार तॉनी की कविता में हुआ है।

‘‘लोक तब भी नियति को हमारा अंतिम सच बता रहे थे

हाँ, उसी दिन, जिस दिन खोया था हमने

अपनी धरती, अपनी पहचान और अपना देश

और यहाँ तक कि हम खुद को भी खो चुके थे।’’15

आज का आदिवासी समाज अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की रक्षा हेतु संघर्षरत है और यह उसका संघर्ष समग्र प्रकृति संरक्षण तथा पर्यावरणीय सम्मान हेतु है। जब पारिस्थितिकी अपने संपूर्ण क्रोध के साथ इस वैश्वीकरण का हिसाब मानव सभ्यता से लेगी तब आदिवासी के इस संघर्ष का आवश्य पुनर्मूल्याकन होगा।

निष्कर्ष: 

कहना न होगा कि आदिवासी समुदायों की संस्कृति, जीवन मूल्य, आदर्श, अतीत का ज्ञान, जीवन शैली तथा उनकी संपूर्ण पहचान पारिस्थितिकी हितैषी और पर्यावरण अनुकूल है। आदिवासी समुदायों की इन विशेषताओं की रक्षा करते हुए उन विशेषताओं को अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि आज हमारे समक्ष अनेक पर्यावरणीय संकट खड़े हैं। लेकिन वैश्वीकरण के दौर में बाजारवादी ताकते प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से आदिवासी समुदायों के अस्तित्व को ही समाप्त करने पर तुली हुई हैं। जो आदिवासी समाज के लिए ही नहीं बल्कि संपूर्ण मानव सभ्यता के लिए चिंता का विषय है। आदिवासी समाज का अस्तित्व केवल आदिवासी समाज का नहीं है। आदिवासी समाज का अस्तित्व ही पर्यावरण और प्रकृति का अस्तित्व है। यदि आदिवासी समाज के जीवन मूल्य समाप्त हो गए तो प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के मूल्य भी समाप्त हो जाएँगें। परिणाम स्वरूप मानव सभ्यता विभिन्न भयानक प्राकृतिक आपदाओं का सामना करेगी।  

संदर्भ सूची: 

  1. बदलते समय में लेखवितर्क पुस्तिका, आवास विकास प्र.सं. 2013, पृ8
  2. बदलते समय में लेखवितर्क पुस्तिका, आवास विकास प्र.सं. 2013, पृ8
  3. बदलते समय में लेखवितर्क पुस्तिका, आवास विकास प्र.सं. 2013, पृ8
  4. बदलते समय में लेखवितर्क पुस्तिका, आवास विकास प्र.सं. 2013, पृ8
  5. राठोड पुंडलिक, जंगल के अंधियारे से….अनंग प्रकाशन  नई दिल्ली, पृ-31
  6. हरिराम मीणा, सुबह के इतजार में शिल्पायन प्रकाशन नयी दिल्ली, 2006, पृ-24
  7. अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडा की बेटी, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2017, पृ-33
  8. हरिराम मीणा, आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक टृस्ट इंडिया नयी दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ-170
  9. हरिराम मीणा,आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक टृस्ट इंडिया नयी दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ-170
  10. हरिराम मीणा,आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक टृस्ट इंडिया नयी दिल्ली, प्र. सं. 2013, पृ-170
  11. अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडी की बेटी, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2017, पृ-34
  12. अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडी की बेटी, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2017, पृ-34
  13. अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडी की बेटी, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2017, पृ-34
  14. अनुज लुगुन, बाघ और सुगना मुंडी की बेटी, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2017, पृ-34
  15. ब्लॉगपोस्ट डॉट इन कविता का हिन्दी अनुवाद लोकप्रिय आदिवासी कविताएँ पृ-148

 

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