संपूर्ण विश्व आज अपनी भौगोलिक सीमाओं को मुक्त कर चुका है। सभी देश अपनी संवृद्धि हेतु आर्थिक संसाधनों की ऐसी पृष्टभूमि बनाना चाहते हैं जिनसे सर्वसमावेशी संवृद्धि को साधा जा सके और देश में आधारभूत सुविधाएँ मुहैया कराया जा सके तथा सुख सवृद्धि को धरातल पर उतारा जा सके। लेकिन आदिवासी समुदायों के संदर्भ में Manav Adhikar kya hai मात्र वैश्वीकरण का एक मुखौटा है।
वैश्वीकरण की अवधारणा का परिचय:
आज के सभी राष्ट्र सूचना प्रौद्योगिकियों के माध्यम से तकनीकी जानकारी ग्रहण कर अपनी अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करना चाहते हैं। सभी राष्ट्र आपसी संबधों में सदृढ़ता के साथ ज्ञान-विज्ञान को साझा करना चाहते हैं क्योंकि इन प्रयासों के माध्यम से जनजीवन के स्तर को ऊपर उठाया जा सके। वैश्वीकरण में अनुकरण की प्रवृत्ति भी विद्यमान है। वह सीखना, जानना चाहता है तथा सुख एवं आनंद की प्राप्ति करना चाहता है।
डविड हैण्डरसन (अर्थशास्त्री) के अनुसार वैश्वीकरण की परिभाषा:
‘‘यह एक ऐसा दृष्टान्त है जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय रूप से जुड़े हुय बाजार दो शर्ते पूरी करते हैं। प्रथम माल, सेवाओं, पूँजी एवं श्रम का निर्बाध संचलन निवेशों और उत्पादनों के लिहाज से एक सकल बाजार के रूप में सामने आता है। द्वितीय विदेशी निवेशकों के साथ-साथ विदेशों में कार्यरत स्वदेशवासियों को भी पूर्ण सम्मान दिया जाता है, जिससे आर्थिक रूप से उन्हें विदेशी नहीं कहा जाता है।’’1
वैश्वीकरण का यह दौर 1870 से 1914 तक प्रांरभिक रूप में चला। इस दौर में मानव जीवन की आधारभूत सुविधाओं की आपूर्ति हेतु सभी देश एक दूसरे के समीप आये किन्तु उस समय वैश्वीकरण के मुद्दे आज से भिन्न थे। आज सूचना प्रौद्योगिकी वैश्वीकरण की आधार बनी हुयी है। उसी प्रकार उस समय भी विश्व के राष्ट्रों द्वारा साझा मंचों पर जिन विषयों को समझा एवं जाना जा रहा था, वे भी मानवीय जीवन को उन्नत अवस्था में पहुचाने के लिए सहयोगी थे। वैश्वीकरण के उसी दौर में मानव की सुरक्षा और संरक्षा को लेकर चिन्ता व्यक्त की जाने लगी थी। जिसका आदर्श रूप सन 1948 में सार्वभौम घोषणा के रूप में परिणत हुआ।
वैश्वीकरण और आदिवासी समुदायों की अस्मिता का प्रश्न आप यहाँ पढ़ सकते हैं
वैश्वीकरण के उस दौर का एक और बड़ा महत्वपूर्ण चिन्तन था कि विश्व में हो रहे मानवों पर अत्याचारों, शोषणों एवं अमानवीय बर्बर कृत्यों की घोर आलोचना तथा इस अमानवीय कृत्यों से निजात पाने की आकांक्षा क्योंकि 1948 के आते-आते विश्व दो महायुद्ध का अनुभव कर चुका था। जिनमें व्यापक नर संहार एवं अमानवीय अत्याचार हुए थें। इस प्रष्टभूमि में विश्व के सभी देशों में मानवों के प्राकृतिक अधिकारों एवं प्राकृतिक न्याय की रक्षा हेतु एक आम सहमति बनी। फलतः एक आचार संहिता का निर्माण किया गया। जिसे मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा कहते हैं।
वैश्वीकरण की अवधारणा मूलतः आर्थिक सवृद्धि हेतु एक साझा विश्व का निर्माण करना चाहती है किन्तु इस साझे विश्व में वे समूह अपने प्राकृतिक अधिकारों से वंचित न रह जाए इसलिए मानवाधिकारों की दिशा में विचार विमर्श किया गया। परिवार को समाज की प्राथमिक ईकाई मानकर मानव हितों के संरक्षण हेतु वैश्विक पहल हुयी। आगे चलकर इसी भावना को शिशु अधिकार एवं महिला अधिकारों के साथ जोडकर इसे विस्तार दिया गया है।
वैश्वीकरण की अवधारणा की प्रमुख प्रवृत्ति पूँजीपतियों के हितों की रक्षा तथा विकसित राष्ट्रों के हित संरक्षण है। ऐसी अवधारणा में वैश्विक मानवाधिकार की अवधारणा एक सन्तुलन की स्थिति निर्मित करती है।
वैश्वीकरण की साझा बाजार व्यवस्था में जो देश या जो बहुराष्ट्रीय कम्पनी अधिक से अधिक लाभ कमाती हैं, उन पर एक दायित्व होता है कि वे सामान्य जनता के जीवन के स्तर को ऊपर उठाने हेतु अपने लाभ का कुछ प्रतिशत व्यय करें।
वैश्वीकरण के दौर में जिसे सामाजिक उत्तरदायित्व कहा जाता है, वह मानवाधिकारों की बहाली तथा गरिमापूर्ण जीवन की बहाली हेतु लगाया गया एक उपकर होता है। जिसके फलस्वरूप समावेशी संवृद्धि की प्रक्रिया गति पकड़ती है। पूँजीपति वर्ग केवल लाभ कमाते रहें और साधारण जनता गरीब होती रहे, उनके मानवाधिकारों का हनन होता रहे, ऐसा न हो इसलिए राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं, संगठनों की स्थापना की गयी है। अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ह्यूमन राइट्स संगठन, एमनेस्टी इटरनेशनल, भारत में राष्ट्रीय मानवाधिकार अयोग का गठन किया गया है।
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में वैश्वीकरण:
अब सवाल उठता है कि वैश्वीकरण के इस दौर में मानव जीवन रक्षा, मानवाधिकारों की रक्षा तथा जन जीवन के स्तर को ऊपर उठाने के उपर्युक्त सारे प्रयासों के बावजूद विश्व में व्यापक रूप से मानवाधिकारों का हनन क्यो होता है? कैसे होता है? कौन करता है? इन्हीं प्रश्नों को आदिवासी कवि आदित्य कुमार मांडी अपनी कविता में उठाते हैं।
‘‘कौन लूटेरा है।
कौन दलाल है?
और कौन कागजों में
चोरी कर रहा है?
कौन गुनाहगार है?
और संवैधानिक अधिकारों से
कौन वंचित है?’’2
वैश्वीकरण की प्रक्रिया इतनी व्यापक है कि इसमें विश्व के किसी कोने में बैठा व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों को छिन सकता है। उसका शोषण कर सकता है तथा उसे बेघर भी कर सकता है। चार दीवारी के भीतर शीतल कमरों में बैठ कर लिया गया निर्णय वनों, प्रान्तरों, जंगलों, झुग्गी झोपडियों में निवासिक जन समुदाय का सर्वस्व लूट सकता है और किसी ग्राम को नष्ट कर ग्रामीण समुदाय को विस्थापित भी कर सकता है। इसी स्थिति का शिकार आदिवासी समाज सर्वाधिक रूप से हो रहा है। विस्थापन के दर्द को कवि अपनी कविता में चित्रित करता है।
‘‘वैसे सब कुछ से किया है तुमने बेदखल
घर, द्वार, खेत, खलिहान, भाषा, संस्कृति, अध्यात्म
जंगल, पहाड़, नदी, झरने, पेड़-पत्ते, हवा-सब कुछ
शरीर का मांस भी नोच लेने के बाद
और क्या लोगो?
हमारी अस्थियाँ ?’’3
आदिवासी समाज को न केवल विस्थापित किया जाता है बल्कि उसका सारा अस्तित्व ही मिटाने का प्रयत्न किया जाता है क्योंकि वे फिर से अपने अधिकारों की माँग न कर सकें। यही तो वास्तविक रूप है वैश्वीकरण का और वास्तविक उद्धेश्य भी।
विडम्बना यह है कि साधारण जन समूह को यह ज्ञात भी नहीं हो पाता है कि उनका शोषण कौन, कैसे और किस प्रक्रिया के माध्यम से कर रहा है। यही वैश्वीकरण का संजाल है।
वैश्वीकरण की इस महा भयावह मृगमरिचिका में ‘‘जितने अधिक मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहे हैं, उतने ही अधिक मानवाधिकारों की रक्षा करने वाले आयोग रहे हैं। दुनिया के अधिकतर देशों की सरकारें ऐसे आयोगों को झूठा अथवा निरर्थक करने में जुटी रहती हैं। वास्तव में मानवाधिकार आयोग ऐसी सरकारों का अमानवीय चेहरा पूरे विश्व को दिखाकर उसको न केवल बेनकाब करता है बल्कि उन पर अंकुश लगाने का भी काम करता है। यह बात प्रत्येक सरकार को आपतिजनक लगती है। यदि ये आयोग उग्रवादी संगठनों की करगुजारियों के संबंध में कुछ सच्चे तथ्य जनता के सामने लाते हैं, तो वे तत्व और अधिक उग्र एवं अत्याचारी होने लगते हैं। ऐसी स्थिति में सरकारे इन आयोगों को किसी न किसी प्रकार से बंद करने के प्रयास में लगी रहती हैं और उनके विरोध में झूठा प्रचार करने लगती है।’’4 सरकारे ऐसा इसलिए करती हैं कि ये सारे मानवाधिकारों का हनन उनके द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों या विकसित राष्ट्रों से किए गए समझौतों के परिणाम स्वरूप होते हैं। समझौते में शर्त होती है कि सरकार हमारे कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगी और न ही किसी को करने देगी। ऐसी छूट प्राप्त होने पर कम्पनियाँ अत्यधिक लाभ हेतु अधिकारों का हनन करती हैं। आदिवासी समुदायों के संदर्भ में यह एक यथार्थ स्थिति है। यदि इन अत्याचारों का चित्रण इस कविता में हुआ है।
‘‘ऑपरेशन के दौरान
बलात्कार की शिकार
इस स्थिति पर एक ने कहा
अरे भाई
उन लड़कियों को यहाँ ला कर
माओवादी के कपड़े पहनाओं
और गोली मार दो।’’5
विडम्बना यह है कि जो देश वैश्विक मंच पर मानवाधिकारों की वकालत करते हैं, वे देश भी मानवाधिकारों का हनन करते हैं। चीन द्वारा सामूहिक नरसंहार, तिब्बतियों को अधिकारों से वंचित रखना, अमेरिका द्वारा अफगान, सिरिया में मानवाधिकार हनन इसके प्रमाण हैं। ये सारे देश अपने हितों की रक्षा करने हेतु मानवाधिकारों का हनन कर रहे हैं। मानव का शोषण कर रहे हैं। ये विकसित देश विकासशील एवं अल्पविकसित देशों की मजबूरियों का फायदा उठाकर उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से उपनिवेश बना रहे हैं। कुछ राष्ट्र तो अपने हितों के लिए महिलाओं और बच्चों का भी शोषण कर रहे हैं।
अनुबंधित श्रमिक बनाना, धार्मिक उन्माद में युवकों को आतंकवादी बनाना, विचारधाराओं को हवा देकर माओवादी हिंसा करवाना, महिला तस्करी कराना, माबलिंचिंग (भीड हत्या) करवाना, समाज में असामाजिक तत्वों को जाग्रत करना ऐसी अनेक क्रियाएँ हैं, जो वैश्वीकरण के वास्तविक चेहरे को हमारे समक्ष रखती हैं। सभी राष्ट्र, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, पूँजीपति वर्ग अपने अपने स्वार्थ सिद्ध करने हेतु प्रयत्नरत हैं।
खुले बाजारवाद, पूँजी का एक तरफ का प्रवाह और उदार लेन-देन के साथ-साथ सूचना एवं सम्पर्क प्रौद्योगिकी के तेजी से फैलते मकड़जाल में वैश्वीकरण पर प्रश्न यह है कि यह सम्पूर्ण विकास एवं संवृद्धि आखिर किसके लिए है? कुछ देशों के लिए या कुछ लोगों के लिए? बड़े और विकसित देशों की दोहरी दबाव नीति अपने हितों की वरीयता और छोटे विकासशील देशों का शोषण तथा उन देशों को खुला बाजार बनाकर उपभोक्तावाद की प्रवृत्ति का विस्तार करना वैश्वीकरण अवधारणा के पीछे का मुख्य लक्ष्य है।
वैश्वकीरण के उद्धेश्य भी निजी हितों और लाभार्जन की सीमाओं में सीमित हैं तथा इस अप्रत्यक्ष, अलक्षित एवं प्रभावशाली मृगमरिचिका की आड़ से संपूर्ण मानव समाज और प्रकृति के हितों को अनदेखा किया जा रहा है।
ऊपरी तौर पर वैश्वीकरण एक उदार एवं समग्र प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है। जिसमें जाति, धर्म, रंग-भेद आदि सीमाओं का अतिक्रमण प्रतीत होता है किन्तु वास्तविकता इसके विपरित होती है। जब बड़े विकसित देश एवं पूँजीपतियों के नेतृत्व में विकास एवं संवृद्धि की समावेशी नीतियाँ बनाई जाती हैं, तब उपर्युक्त सारे कारकों को अप्रत्यक्ष रूप से ध्यान रखा जाता है और निर्णय लिए जाते हैं। ऐसी स्थिति में वैश्वीकरण की वास्तविक मंशा पर पश्नचिन्ह उठ खड़ा होता है और संदेह उत्पन्न होता है कि इन नीतियों का लाभ साधारण मानव तक पहुचेगा या नहीं? इसी मुद्दे पर पंडित जवाहरलाल नेहरू सन 1949 में कनडा की संसद में अपने विचार व्यक्त किये थे कि ‘‘अगर दुनिया के विभिन्न भागों में बहुत बड़ी संख्या में लोग गरीबी और कंगाली में रहेगे, तो न सुरक्षा संभव है और न ही असली शाति और न ही पूरी दुनिया के लिए संतुलित अर्थव्यवस्था बन पाएगी। अगर विकसित देश संतुलन बिगाड़ते रहें और कम धनी देशों पर दबाव डालते रहें तो अर्थव्यवस्था सन्तुलित नहीं रहेगी।’’6 जवाहरलाल नेहरू का यह कथन आज पूर्णतः प्रासंगिक है जो उन्होंने कहा था एवं शंका जतायी थी वही सब तो आज वैश्वीकरण के दौर में हो रहा है। आज विश्व के समक्ष अनेक आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याओं के साथ-साथ मानवीय गरिमा के भी मुद्दे हैं किन्तु ये देश अन्तर्राष्ट्रीय चर्चाओं को किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुचने देते। हर किसी भी बात में अपना हित तलाशने लगते हैं। इसी कारण आज अमीर और अमीर होता जा रहा है तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है। विश्व की कुल संपित्ति का 90% भाग विश्व की कुल जनसंख्या के एक प्रतिशत लोगों के पास है। यह संपित्त असमानता वैश्वीकरण की ही देन है।
डॉ. मनमोहन सिंह इसी समस्या पर विचार करते हुए लिखते है कि ‘‘गरीब देशों में जनता को भूमंडलीकरण के लाभों से आश्वस्त करने हेतु हमें श्रम बहुल उद्योगों और सेवाओं के व्यापार को उदार बनाने के लिए दूरदृष्टि पूर्ण रवैया अपनाना होगा। मैं व्यापार को खुशहाली का ही नहीं बल्कि शांति निर्माण का भी साधन मानता हूँ।’’7 डॉ. मनमोहन सिहं के कथन पर आज सरकारों को विचार करना आवश्यक है क्योंकि जब तक भारत में श्रमप्रधान उद्योग विकसित नहीं होंगे तब तक रोजगार की समस्या का हल नहीं हो पाएगा। भारत में व्यापक मानव संसाधान है। जिसे हम श्रम प्रधान अर्थव्यवस्था में समेकित कर सकते हैं और जब तक ये उद्योग विकसित नहीं होगे तब तक खुशहाली नहीं आएगी तथा मानवाधिकारों का हनन होता रहेगा। अतः उपर्युक्त कदम उठाने ही होंगे तथा अपने अधिकारों की भी रक्षा करनी होगी तभी वैश्वीकरण की सफलता संभव हो सकेगी।
निष्कर्ष:
वैश्वीकरण आज के समय की सबसे व्यापक और सर्वाधिक प्रभावशाली आवधारणा है। इस अवधारणा में पूँजीवादी विचारधारा की महत्वूपर्ण भूमिका है तथा साम्यवादी विचारधारा भी इसे मौन स्वीकृति प्रदान कर दी है। आज विश्व के प्रमुख साम्यवादी देश रशिया एवं चीन भी वैश्वीकरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका में हैं।
वैश्वीकरण व्यक्ति, समाज, देश के समक्ष कई रूपों एवं कई आयाम लेकर उपस्थित होता है। वह सर्वप्रथम सुनहरे सपनों में व्यक्ति एवं समाज को बहलाता-फुसलाता है, तत्पश्चात बाजार का महाजाल बनाता है और सब कुछ को बाजार की वस्तु बना देता है। चाहे वह भावनाएँ या माता-पिता और पत्नी ही क्यो न हो। यदि पत्नी बहुत ही अच्छी वस्तु है किन्तु यदि वह कुछ नहीं ले आती तो वैश्वीकरण में वह एक बेकार वस्तु है और पति उसे जिंदा जलाने में भी नहीं हिचखिचाता। यही तथ्य माता-पिता के साथ भी है।
वैश्वीकरण बाज़ार, पूँजी, एकीकरण, सांस्कृतिक तकनीकी, विज्ञापन एवं सभ्य होने का मुखौटा पहनकर विविध आयामों के साथ प्रस्तुत होता है। इन सभी आयामों में वह न केवल आदिवासी समाज बल्कि सम्पूर्ण समाज की मानसिकता को प्रभावित करता है। यही मानसिता आगे चलकर मानवाधिकारों का हनन करती है।
आज का आदिवासी समाज वैश्वीकरण के सभी अयामों पर शोषित, पीडित एवं उपेक्षित है। कहना न होगा कि आदिवासी समाज अपने अधिकार एवं अस्मिता की रक्षा हेतु कितना भी जोर क्यो न लगा ले किन्तु वह वैश्वीकरण के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता।
अतः आदिवासी समाज अपनी संस्कृति, अपने जीवन मूल्य एवं भाषा को बनाए रखते हुए वैश्वीकरण की प्रक्रिया में इस प्रकार शामिल हो कि जैसा कमल विशाल सागर में शामिल होता है। तभी हम अपनी अस्मिता को बचाए रखते हुए भूमंडलीकरण के लाभों को प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा यह वैश्वीकरण का अजगर हमें तो क्या हमारी सभ्यता, संस्कृति एवं जीवन मूल्यों को ऐसा गटकेगा कि हम पुनः यह भी नहीं कह सकेंगे कि हम कभी प्रकृति पुत्र हुआ करते थे।
संदर्भ सूची:
- बदलते समय में लेख–वितर्क पुस्तिका, आवास विकास प्र.सं. 2013, पृ–8
- पहाड पर हूल फूल- आदित्य कुमार मांडी, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, 2015, प्र-22
- जंगल पहाड के पाठ – महादेव टोप्पो, अनुज्ञा बुक्स दिल्ली, 2017, पृ-73
- कुरूक्षेत्र पत्रिका-दिसंबर 2006 प्र-17 मनोहरपुरी का लेख, https://www.publicationsdivision.nic.in
- पहाड पर हूल फूल- आदित्य कुमार मांडी, प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, 2015, पृ-43
- योजन-दिस-2006 प्र-6–डॉ.मनमोहन सिंह का लेख, https://www.publicationsdivision.nic.in/journals/
- योजन-दिस-2006 प्र-6–डॉ.मनमोहन सिंह का लेख, https://www.publicationsdivision.nic.in/journals/