vaishvikaran se kya abhipray hai आज का समय, जो विश्व को एक परिधि में लाकर खडा कर दिया है। आज के मनुष्य का दैनिक जीवन विश्व के किसी भी कोने में क्यो न हो, विश्व में घटित होने वाली घटनाओं से प्रभावित होता है। मध्य-एशिया में होनेवाली उथल-पुथल के फलस्वरूप भारतीय जेब से अधिक खर्च होने लगता है, कारण परिवहन हेतु इंधन का आयात प्रभावित होता है। यह तो वैश्वीकरण का एक उदाहरण है। कहना न होगा कि आज का मानव विश्व मानव से इतना अंतर्संबंधित है कि उसके जीवन का कोई भी पहलू इससे अछूता नहीं है। यह वैश्वीकरण का परिणाम है। आप यहाँ वैश्वीकरण का वास्तविक स्वरूप के संदर्भ में पढ़ सकते हैं।
वैश्वीकरण की परिभाषाएँ:
डविड हैण्डरसन (अर्थशास्त्री) के अनुसार:
- ‘‘यह एक ऐसा दृष्टान्त है, जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय रूप से जुड़े हुय बाजार दो शर्ते पूरी करते हैं। प्रथम माल, सेवाओं, पूँजी एवं श्रम का निर्बाध संचलन निवेशों और उत्पादानों के लिहाज से एक सकल बाजार के रूप में सामने आता है। द्वितीय विदेशी निवेशकों के साथ-साथ विदेशों में कार्यरत स्वदेशवासियों को भी पूर्ण सम्मान दिया जाता है, जिससे आर्थिक रूप से उन्हें विदेशी नहीं कहा जाता है।” बदलते समय में लेख-वितर्क पुस्तिका, आवास विकास सं-2013 पृ-8
रघुवंशमणि जी के अनुसार:
- ‘‘वैश्वीकरण वस्तुतः उस एक रूपया की प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं, सेवाओं, उत्पादन साधनों, कच्चे मालों, विभिन्न प्रौद्योगिकी आदि का बिना सरकारी नियंत्रण के देश की सीमाओं से परे सीधा प्रसार होता है।” बदलते समय में लेख-वितर्क पुस्तिका, आवास विकास सं-2013 पृ-8
वैश्वीकरण अवधारणा की कथनी और करनी में व्यापक अंतर है:
अभय कुमार दुबे द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारत का भूमंडलीकरण’ में भूमंडलीकरण को बिंदुवार रूप से स्पष्ट किया गया है।
- ‘‘आधुनिक भूमंडलीकरण का प्रहला और प्रधान अर्थ है, एक विश्व-अर्थतंत्र और विश्व बाजार का निर्माण जिससे प्रत्येक राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को अनिवार्य तौर से जुड़ना होगा।’’
- ‘दुनिया की राजनीति को इसी अर्थतंत्र और बाजार की जरूरतों के हिसाब से संचालित करने की परियोजना।’’
- ‘‘कंप्यूटर, इंटरनेट और संचार के अन्य माध्यमों के जरिए दुनिया में राष्ट्रों, समुदायों, संस्कृतियों और व्यक्तियों के बीच फासलों का कम से कम होते चले जाना।’’
- ‘‘उपग्रहीय टेलीविज़न की मदद से एक भूमंडलीय संस्कृति की रचना करना।” अभय कुमार दुबे, भारत का भूमंडलीकरण, वाणी प्रकाशन 2003, आवृत्ति 2017 प्र-377
विश्व के किसी भी कोने में उत्पादित वस्तु, विचार तथा भावों को संपूर्ण विश्व में प्रसारित करने की संम्भावना वैश्वीकरण में हमेशा बनी रहती है। वैश्वीकरण का सबसे प्रधान माध्यम है, सूचना संचार के साधन, जिसके माध्यम से विश्व एक परिधि में आने लगता है।
वैश्वीकरण में व्यापार, वित्त, एवं श्रम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है। राष्ट्र की सरकारों का बाजार, उत्पादन प्रक्रिया तथा अन्य विषयों में कम हस्तक्षेप होता है। अर्थात यह वैश्वीकरण पूर्णतः बाजार तथा पूँजी को केन्द्र में लेकर चलता है। एक व्यापक समरूप बाज़ार में अधिक से अधिक लाभ कमाना तथा अपनी उन्नति को शिखर पर पहुँचाना मुख्य उद्धेश्य होता है। वैश्वीकरण में किसी एक देश की समस्या संपूर्ण विश्व की समस्या बनती है। उस समस्या का समाधान विश्व के सारे देशों द्वारा सम्मिलित रूप से किया जाता है। फलतः प्रभावित देश को अनेक सहायताएँ मिलती हैं।
वैश्वीकरण की अवधारणा राष्ट्र, राज्य, धर्म, जाति, संप्रदाय की सीमाओं का अतिक्रमण करती है तथा जीवमात्र के कल्याण तथा पृथ्वी को हम सबकी मानकर चलने की प्रवृत्ति भी इसमें अन्तर्निहित होती है।
वैश्वीकरण एक अवधारणा ही नहीं है बल्कि एक क्रियाशील प्रक्रिया भी है और यह कोई किसी विचारधारा, आन्दोलन या प्रयासों का परिणाम भी नहीं है। यह तो एक निरन्तर विकसित हुयी प्रक्रिया है। हालॉकि सूचना, संचार, परिवहन के साधनों के विकास के फलस्वरूप 1948 के पश्चात इसकी गति तीव्र होती गई है। यह प्रक्रिया सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक तत्वों एवं शाक्तियों का विनियमन भी करती है क्योंकि जब वैश्विक समुदाय आपसी संबंधों को संदृढ़ बनाना चाहते हैं, तो अपनी कुछ शक्तियों को शिथिल करना आवश्यक होता है और जब दो समुदायों का संबंध सदृढ़ बनने लगना है, तो अनायास रूप से सांस्कृतिक, सामाजिक विनियमन भी होने लगता है।
वैश्विक समुदाय का आपसी जुड़ाव आदान-प्रदान तथा परस्पर निर्भरता की प्रक्रिया प्राचीन काल से ही जारी है किन्तु आधुनिक काल में यह तेजी से विकसित हुयी है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में वैश्वीकरण की अवधारणा विद्यमान है, जो इसका प्रमाण है।
हमारे प्राचीन ग्रन्थों में ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम’ ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’, सर्वे सन्तु निरामयः, आदि उक्तियाँ हामारी प्राचीन विचारधाराओं को स्पष्ट करती हैं कि हम विश्व को एक परिवार मानने हैं। जिसमें सभी सुखी, प्रसन्न हो, इस वैश्विक परिवार में मूल्य, सेवा, समानता, बंधुत्व, न्याय आदि का भाव विद्यमान था किन्तु आज का वैश्वीकरण हमारे प्राचीन विश्व बधुत्व की भावना से काफी भिन्न है। आज के वैश्वीकरण में तमाम मानवीय मूल्य उतने महत्वपूर्ण नहीं हैं, जितना कि आर्थिक उन्नति एवं संसाधन दोहन की प्रवृति का महत्व है।
आज के वैश्वीकरण में भौतिक सुख सुविधाओं के साधन तथा संचार के साधन महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं किन्तु मानवीय मूल्य पीछे छूटते जा रहे हैं। इसी संदर्भ में प्रो. धसिभाई सेठ लिखते हैं कि ‘‘मनुष्य जाति को उसकी भौतिक जरूरतों के हिसाब से परिभाषित करना उसका बहुत बड़ा अपमान है। उनके आदर, नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूझान भी मौजूद होते हैं।” अभय कुमार दुबे, भारत का भूमंडलीकरण, वाणी प्रकाशन 2003, आवृत्ति 2017 प्र-328
मनुष्य को भौतिक आवश्यकता के अनुसार महत्व देना वर्तमान वैश्वीकरण की प्रधान प्रवृत्ति है। वैश्वीकरण के सामाजिक प्रभाव को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।
वैश्वीकरण के कुछ अध्ययनकर्ता इसे देश के समक्ष एक चुनौति के रूप में स्वीकारते हैं। क्योंकि यह देश की सभी मौलिक विशेषताओं को प्रभावित करता है। जब 1948 में वैश्वीकरण की नीव रखी गई, तभी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार संगठन की भी नीव रखी गई। वैश्विक उन्नति एवं विकास को समृद्ध बनाने के उद्धेश्य से बना यह संगठन व्यापार को निर्बाध बनाने के नाम पर पूँजीपतियों, उत्पादकों एवं विकसित देशों के हितों की रक्षा करने में जुटा रहा। सोवियत संघ द्वारा इसका विरोध भी किया गया था किन्तु स्वयं सोवियत संघ का ही विघटन हो गया। अतः वैश्वीकरण की अवधारणा और जोर पकड़ने लगी।
वैश्वीकरण का वास्तविक एवं मौलिक उद्धेश्य के आधार पर एजाज अहमद द्वारा इस प्रक्रिया का वास्तविक तात्पर्य समझाने का प्रयास किया गया है। जो वास्तव में सही भी है। वे लिखते हैं कि ‘‘वैश्वीकरण तो एक सिर्फ शब्द है, कई महत्वपूर्ण संदर्भों में एक भ्रामक शब्द। सीधे-सीधे साम्राज्य कहना शायद ज्यादा सटीक होगा। शायद अमेरिकी साम्राज्य कहना और भी सटीक होगा। किन्तु कई मामलों में फिर भी भ्रामक ही क्योंकि पहली बार हमारा सामना पूँजी के वैश्वीकृत साम्राज्य से हो रहा है, जो इतिहास में पहली बार संपूर्ण नवीनता के साथ उपस्थित हुआ है और अमेरिका इससे वित्तीय स्तर पर, सैन्य स्तर पर, संस्थागत स्तर पर तथा विचारधारा के स्तर पर प्रभूत्व शाली भूमिका में है।” अनु मनोज झा, किनकी सदी किनकी सहश्राब्दी, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2008 पृ-63
अहमद के दृष्टिकोण का तात्पर्य यह कि वैश्वीकरण एक नया साम्राज्यवाद है और साम्राज्यवाद क्या होता है? जिसकी प्रवृत्ति क्या होती है? यह भारत अच्छी तरह जानता है क्योंकि हमे साम्राज्यवाद का 150 वर्षो का अनुभव है। एजाज अहमद के इस कथन के कई मायने हैं, जिनका आगे सविस्तार रूप से विश्लेषण किया जाएगा।
वैश्वीकरण पर अध्ययन हेतु रूचि इसलिए भी बनती है क्योंकि कुछ चिन्तक इस प्रक्रिया का समर्थन करते हैं तथा इसके गुणों तथा लाभों को बताते हुए किंचित भी नहीं थकते। उनका दृष्टिकोण है कि वैश्वीकरण विश्व को एकजुट बनाता है। भौगोलिक दुरियों को कम करता है। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुविधाओं तथा तकनीकी साधनों का साझाकरण होता है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दायरा भी बढ़ता है। यह प्रक्रिया लोकतंत्र को सदृढ़ बनाती है। सूचना क्रांन्ति तकनीकी विकास और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा निवेश के फलस्वरूप तीव्र संवृद्धि आदि सब वैश्वीकरण के फलस्वरूप ही हो पाया है।
उपर्युक्त सारे गुण, लाभों के अलावा वैश्वीकरण के नकारात्मक पक्ष भी कुछ कम नहीं हैं। सवाल यह है कि क्या वास्तव में वैश्वीकरण की अवधारणा सर्व समावेशी संवृद्धि का समर्थन करती है? क्या यह धारणा समाज के अन्तिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के संदर्भ सोचती है? यदि हाँ, तो यह प्रक्रिया स्वीकराने योग्य है किन्तु वास्तव में ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता है।
वैश्वीकरण सन 1950 के पश्चात तेजी से बढ़ा है और तभी से भारतीय अर्थव्यवस्था में पूँजीपतियों का वर्चस्व स्थापित हुआ है। 1990 के पश्चात यह वर्चस्व तेजी से स्थापित हुआ है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की कमर टूट गई है। लोक कला, संस्कृति, हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्य आज टूटते जा रहे हैं। अमीर व्यक्ति और अमीर तथा गरीब व्यक्ति और गरीब बनता जा रहा है। किसान आत्महत्या कर रहा है। मजदूर रोजगार में विफल्पहीनता की स्थिति अनुभव कर रहा है। युवा रोजगार विहीन हैं, जिन्हें रोजगार मिला है, वे निराशा, कुंठा, आशंका, अकेलापन तथा तनाव में जीवन व्यतीत कर रहें हैं। हिन्दी साहित्य इतहास में नई कविता, अकविता तथा समकालीन कविताओं में ये ही प्रवृतियाँ प्रधान रूप से उभरी हैं, जो इसका प्रमाण भी है।
वैश्वीकरण के दौर में एक व्यक्ति सफलता प्राप्त करने तथा अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करने हेतु किसी भी सीमा का अतिक्रमण कर सकता है। अतः आज मानवीय संवेदना खतरे में पड़ गई है। आज दया, करूणा, सहृदयता, पर पीर, सेवा जैसे आदर्श मूल्यों का कोई महत्व नहीं रह गया है।
वैश्वीकरण को गति प्रदान करने वाले कारक:
वैश्वीकरण को गति प्रदान करने वाले कारक हैं, उदारीकरण और निजीकरण। उदारीकरण का तात्पर्य है, अर्थव्यवस्था को निजी निवेश हेतु खोलना और यही निजीकरण कहलाता है। अतः वैश्वीकरण इस उदारीकरण के माध्यम से ही विस्तार प्राप्त करता है। भारत में यह 1990 के पश्चात बढ़ा है तथा इसमें पूँजी प्रवाह तथा प्रभाव भी बढ़ा है।
वैश्वीकरण का एक पक्ष पूँजी का विस्तार करना भी है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के माध्यम से पूँजी का प्रवाह ही आगे चलकर विश्व बाजारीकरण की नीव बनता है। नब्बे के दशक के बाद उदारीकरण के फलस्वरूप बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का अर्थव्यवस्था में प्रवेश हुआ और इन कंपनियों द्वारा भारतीय उद्योग, लघु उद्योग एवं कम्पनियों को किनारे कर अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने बाजार में भारी संसाधनों, व्यापक पूँजी तथा भ्रामक विज्ञापनों के माध्यम से अर्थव्यवस्था के मौलिक ढॉचे को ही तहस-नहस कर दिया है।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सर्वप्रथम शर्त रखता है कि सरकार अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप न करें। उसे बाज़ार की शक्तियों पर छोड़ दे किन्तु इस शर्त के पीछे उनका उद्धेश्य सस्ते श्रम का दोहन, संसाधनों का अनुचित दोहन तथा अधिक से अधिक लाभ कमाना होता है। इस प्रक्रिया में साधारण जनता अपने रोजगार एवं संसाधनों से दूर हो जाती है और गरीबी से और गरीब बनती चली जाती है।
वैश्वीकरण की प्रवृत्तियाँ vaishvikaran se kya abhipray hai
कोई भी विचारधारा, धारणा, अवधारणा या सिद्धान्त अपनी सकारात्मकता एवं नकारात्मकता दोनों के साथ विकसित होते हैं। वैश्वीकरण की अवधारणा एक व्यापक एवं प्रभावकारी अवधारणा है, जिसके कुछ सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार के लक्षण हैं। वैश्वीकरण की प्रवृतियाँ भी दोनों गुणों के साथ हमारे समक्ष उभरती हैं। वैश्वीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
- वैश्वीकरण एक गतिशील प्रक्रिया है।
- नवीन सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका।
- व्यापार एवं वित का अन्तर्राष्ट्रीकरण।
- श्रम का वैश्वीकरण
- बहुसंस्कृतिवाद एवं सजातीय पहचान।
- सांस्कृतिक समांगीकरण एवं संकरीकरण।
- प्रतिस्पर्धा एवं सहयोग।
- विचार एवं भावों का आवागमन।
- उत्पादन एवं संवृद्धि की तीव्र गति।
- वैश्विक स्तर पर प्रवसन।
- वाद-विवाद और संवाद से समाधान।
वैश्वीकरण की अवधारण कोई एक घटना नहीं है अथवा किसी निश्चित समयावधि में घटित होने वाली प्रक्रिया भी नहीं है बल्कि यह एक निरन्तर गतिशील प्रक्रिया है, जो प्राचीन काल से ही गतिशील है। हालांकि 20वीं सदी के अन्तिम दशकों से इसकी गतिशीलता तेज हो गई है। यह प्रक्रिया मानव-मानव में संबंध बनते ही शुरू होती है और यह मानवीय संबधों का सदृढ़ होते जाना एक निरन्तर प्रक्रिया है।
नव-नवीन सूचना प्रौद्योगिकी वैश्वीकरण का प्रधान एवं महत्वपूर्ण साधन है, जिनके फलस्वरूप विश्व के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति विश्व के दूसरे कोने में बैठे व्यक्ति से तुरत संपर्क स्थापित कर सकता है। इंटरनेट, सेटेलाइट, मोबाइल, टेलीफोन आदि सूचना संचार के माध्यमों से वैश्वीकरण को गति प्राप्त होती है। ये माध्यम भौगोलिक, प्रजातीय, सभ्यतागत, धार्मिक तथा लैगिक सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं तथा समान रूप से अवसर प्रदान करते हैं। इन प्रौद्योगिकियों का उपयोग व्यापार, वित, वाणिज्य का संयोजन तथा आपसी अंतर्संबंध बनाने में भी सहयोगी भूमिका है। नव-संचार माध्यम एवं वैश्वीकरण के अंतर्संबंधों पर मैनुअल केस्टल द्वारा कहा गया है कि ‘‘प्रौद्योगिक रूप से मध्यस्थ दशाओं के कारण प्रदत्त समाज में विद्यमान अंतः क्रियाओं की तुलना में विभिन्न प्रकार की अन्तः क्रियाओं की सभावनाएँ बढ़ जाती है।” Mindens, The Consequences of Minority , Cambridge Polity Press –Pr. No. 1999 page 20, प्रौद्योगिकी ने व्यापार की सीमाओं को समाप्त कर दिया है। फलतः अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं, संगठनों के बीच द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय समझौते अत्यधिक होने लगे हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय उद्यमों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का विस्तार भी प्रौद्योगिकी के फलस्वरूप ही होता है। इन कम्पनियों का जन्म कहीं ओर होता है किन्तु इनका कार्यक्षेत्र संपूर्ण विश्व में होता है। इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में किसी देश की अर्थव्यवस्था एवं सरकारों के निर्णयों को प्रभाविक करने की क्षमता होती है। व्यापार एवं वित्त तथा दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं में अन्तर्राष्ट्रीय नियामकों, नियमों तथा निर्देशों के अनुरूप व्यापारिक संबंध विकसित होते हैं। विश्व व्यापार संगठन (WTO), अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO), अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा कोष (IMF), विश्व बैक समूह आदि प्रमुख विनियामक संस्थाएँ हैं।
बहुसंस्कृतिवाद से सांस्कृतिक समांगीकरण:
वैश्वीकरण में बहुसंस्कृतिवाद की प्रवृत्ति भी विद्यमान है। इस प्रक्रिया में विभिन्न संस्कृतियों से संबंधित लोग आपसी संबंध बनाने हैं तथा विभिन्न आर्थिक सामाजिक क्रियाएँ करते हैं। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का बहुसंस्कृतिवाद की विद्यमानता अन्ततोगत्वा समांगीकरण की ओर ले जाता है। समकाल में आस्ट्रेलिया, अमेरिका, कनाडा, इग्लैण्ड की यही नीति है कि विभिन्न सांस्कृतिक मूल के लोग एक साथ कार्य करें। जब विभिन्न सांस्कृतिक मूल के लोग आपस में क्रियाएँ करते हैं, तो वे अपने सांस्कृतिक मूल्यों का भी आदान-प्रदान करते हैं। आपसी सामजंस्य एवं एक विशिष्ट भावनात्मक संबंध भी बनने लगते हैं। साहित्य, कला, रीति-रीवाज, दर्शन, परम्पराएँ, पर्व, त्यौहार आदि एक दूसरे में घूलने-मिलने लगते हैं। अतः सांस्कृतिक तत्व भी वैश्विक रूप धारण करने लगते हैं।
बहुसंस्कृतिवाद के परिणाम सकारात्मक या नकारात्मक दोनों हो सकते हैं। यदि अपनी संस्कृति, सभ्यता एवं दार्शनिक तत्वों का जो समूह प्रगतिशीलता के साथ परिचय देता है, उस समूह के सांस्कृतिक तत्व वैश्विक रूप धारण करते हैं तथा सांस्कृतिक प्रचार प्रसार होता है किन्तु जो समूह अपने सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा नहीं कर पाता अथवा अपने मूल्यों को प्रगतिशील रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाता, वह अनायास अन्य प्रगतिशील संस्कृति के तत्व अपनाने लगता है और स्वयं के सांस्कृतिक तत्व खतरे में पड़ जाते हैं।
इस संदर्भ में लेबिट कहते हैं कि ‘‘एथनिक रूचि के अनुसार भोजन के विभिन्न व्यंजनों, पोषाकों तथा संगीत का विश्व के कोने-कोने में उपलब्ध होना और उनका अन्य नृजातीय व्यक्तियों द्वारा उपयोग किया जाना नृजातीयता का वैश्वीकरण है। चाइनीज व्यजन, इटालियन पिज्जा, भारतीय करी और इड़ली, डोसा आदि आज कल विश्व के सभी बड़े होटलों में उपलब्ध हैं।” Henderson, Globalization as a Sustaining Force in the Global Economy, West High Ford City, 1999 page, 51
सांस्कृतिक समांगीकरण का तात्पर्य है, एक ऐसी संस्कृति का उद्भव जिनकी विशेषताएँ समान हो, जिनके विभिन्न सांस्कृतिक मूल्य समानता के कारण आपस में धूल-मिल गए हो। वर्तमान में पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव पूर्ण विश्व पर है तथा उसी प्रकार पश्चिमी संस्कृति भी अन्य संस्कृतियों से प्रभावित हो रही है। यह प्रभाव भारतीय संस्कृति पर भी पड रहा है। आज भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी प्रभाव इतना गहराई के साथ पड़ रहा है कि आज भारतीय संस्कृति संकट में खड़ी है। विशेषकर शिक्षित युवा वर्ग में। किन्तु इसके विपरित पश्चिमी देश भारतीय संस्कृति के तत्व योग, दर्शन, आध्यात्म से प्रभावित हो रहे हैं तथा उन्हें अपना भी रहे हैं। प्रमुख विचारक गिफिन कहते हैं कि ‘‘वैश्वीकरण के सशक्त समांगीकरण प्रभाव पड़े हैं, जो विद्यमान संस्कृतियों को कमजोर और बरबाद कर इन्हें अमेरिकी अधिपत्य के अन्तर्गत एक विश्व संस्कृति की ओर ले जाते हैं। अमेरिकी जीवन शैली अथवा अधिक संभाव्य रूप से इसकी एक धुंधली नकल विश्व की जीवन शैली बन जाएगी।” Singh, Modernity and Self-Identity-4, Cambridge Positivity Press-2002, page-47 इन्होंने आगे भी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि एक इकहरी संस्कृति का उद्गम असंभव है क्योंकि यह एकांगीकरण नए तत्वों के साथ अपनी नई विशेषताओं से युक्त होगी। अतः कहना न होगा कि यह सांस्कृतिक समांगीकरण कुछ संस्कृतियों का प्रचार प्रसार करता है, तो कुछ संस्कृतियों के अस्तित्व को समाप्त करने पर तुला हुआ है।
प्रतिस्पर्धा और सहयोग:
वैश्वीकरण की एक और प्रवृति है, प्रतिस्पर्धा एवं सहयोग जो मनुष्य को एक रेस में ला खड़ा कर दिया है। यह प्रतिस्पर्धा हर क्षेत्र में बनी हुयी है। चाहे वह उत्पादन हो, व्यापार हो, वाणिज्य हो, बाजार हो, चाहे सांस्कृतिक जीवन मूल्य ही क्यो न हो, हर कोई अपने आप को सिद्ध करने की होड़ में खडा है। इस प्रतिस्पर्धा में बने रहने हेतु व्यक्ति किसी भी सीमा का अतिक्रमण करने को सज्ज है। चाहे वह मानवीय नैतिकता ही क्यो न हो। प्रतिस्पर्धा के पीछे व्यक्ति अपनत्व एवं अपना निजित्व खोता चला जा रहा है क्योंकि प्रतिस्पर्धा के जितने सकारात्मक परिणाम हैं, उनसे कहीं अधिक नकारातम्क परिणाम भी हैं। कारण मनुष्य आखिर क्यो उन्नत होना चाहता है? अन्ततोगत्वा आनंद प्राप्ति के लिए ही न किन्तु जब आनंद ही खो जाए तो उस प्रतिस्पर्धा का क्या लाभ?
वैश्वीकरण में प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ सहयोग की भावना भी होती है, जो विभिन्न देश एक दूसरे को विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग करते हैं, चाहे वह तकनीकी हो या पूँजी का निवेश।
वैश्वीकरण में संपूर्ण विश्व एक ग्राम के समान व्यवहार करता है। संचार साधनों के माध्यम से तीव्रगति से विचारों एवं भावों का आदान-प्रदान होता है, समाधान निकलता है। किसी देश पर ही नहीं वरन संपूर्ण विश्व पर कोई समस्या आन पड़े तब सारे देश अपने-अपने विचार व्यक्त करके समस्या का समाधान करते हैं। दो देशों के मध्य आपसी संबंधों में मनमुटाव हो या दो क्षेत्रीय समूहों में किसी विचारधाराओं का टकराव हो ऐसी स्थिति में आपसी वाद-विवाद से संवाद की स्थिति बनती है। जिसके सामान्यतः सकारात्मक निष्कर्ष निकलते हैं। जिसका प्रमाण वर्तमान विश्व राजनीति की उथल-पुथल में अनुभव हो चुका है।
उत्पादकता और संवृद्धि की तीव्र गति:
वैश्वीकरण में उत्पादकता एवं संवृद्धि की गति तीव्र हो जाती है। इसका प्रमुख कारण है, प्रौद्योगिकी का आदान- प्रदान, प्रतिभा का आदान-प्रदान तथा पूँजी का व्यापक निवेश। तीवृ संवृद्धि मानव को तीव्रता से उन्नत तथा विकसित बनाती है किन्तु चुनौति इस बात की होती है कि यह संवृद्धि सर्व समावेशी हो तथा सरकार कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से संवृद्धि में सभी को सहभागी बनाएँ। भारत में ये प्रयास तो हो रहे हैं किन्तु कल्याणकारी योजनाओं का परिणाम संतोषजनक नहीं है। आज राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ सरकार पर ही हावी हो गई हैं।
श्रम का वैश्वीकरण:
वैश्वीकरण की प्रक्रिया में श्रम का वैश्वीकरण होता है। भौगोलिक सीमाएँ समाप्त होने के कारण तथा द्विपक्षीय, बहुपक्षीय समझौतों के फलस्वरूप एक साझा बाज़ार का निर्माण होता है, जिसमें श्रम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण होता है। इसके दो सकारात्मक पहलु है। एक यह कि श्रम प्राप्त कर्ता देश को सस्ता एवं प्रतिभाशाली विशेषज्ञ श्रम प्राप्त होता है तथा श्रम आपूर्तिकता देश को विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है। फलतः दोनों देश संवृद्धि प्रक्रिया में तीव्रगति प्राप्त करते हैं।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रवसन:
श्रम के वैश्वीकरण की प्रक्रिया में और एक प्रवृत्ति का जन्म होता है, जिसे प्रवसन कहते हैं। लोग रोजगार की तलाश में ग्राम से शहरों की ओर तथा देश से विदेश की ओर प्रवसन करते हैं। प्रवसन के दो कारक होते हैं। एक अपकर्ष कारक तथा दूसरा प्रतिकर्ष कारक। प्रथम कारक प्रगतिशीलता का सूचक है, जिसमें व्यक्ति उचित रोज़गार की तलाश में प्रवसन करता है, मुद्रा कमाता है और अपने घर भेजता है। फलतः घर की संवृद्धि बढ़ती है। लेकिन दूसरा कारक प्रतिकर्ष के कारण यदि प्रवसन होता है, यह उस व्यक्ति, समुदाय तथा उस देश के लिए भी नकारात्मक होता है। प्रतिकर्ष कारक के फलस्वरूप विस्थापन की समस्या उत्पन्न होती है। लोगों के रोजगार छीन लिए जाते हैं तथा यह संवृद्धि में बाधक होता है। आज भारत के अधिकांश आदिवासी समुदाय इसी प्रतिवर्ष कारक से विस्थापित हो रहें हैं।
प्रवसन का प्रतिकर्ष कारक समावेशी संवृद्धि के विपरित परिणाम प्रदान करता है। जिससे एक समूह का शोषण होता है। रोहिग्या समुदाय जैसे अनेक समुदायों की समस्याएँ आज विश्व के समक्ष चुनौति के रूप में खडे हैं।
भारत में आदिवासी समुदाय भी विस्थापन की गंभीर समस्या से ग्रस्थ है। जिनके मानवाधिकारों का हनन होता है। यह सब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हितों में सरकार द्वारा किए गए निर्णय का परिणाम होता है।
राजनैतिक संकल्पनाओं में परिवर्तन:
वैश्वीकरण प्रक्रिया ने राजनैतिक संकल्पनाओं में भी व्यापक परिवर्तन कर दिया है। वैश्विक साझा बाजार में विभिन देश अपने हितों की रक्षा हेतु समझौते करते हैं या क्षेत्रीय संगठनों की स्थापना करते है। उदा. दक्षेस, आसियान, यूरोपीयन संघ, अफ्रीकी संघ आदि। आज विश्व के समक्ष पार्थिव उष्मन, पर्यावरणीय मुद्दे, समुद्र जल स्तर में वृद्धि जैसे अनेक मुद्दें हैं। इन मुद्दों के समाधान हेतु आज विश्व एक जुटता का परिचय दे रहा है, जो वैश्वीकरण का ही परिणाम है। यही नहीं विभिन वैश्विक महामारियों के निवारण में भी वैश्विक एकजूटता सराहनीय रही है।
निष्कर्ष:
vaishvikaran se kya abhipray hai कहना न होगा कि वैश्वीकरण की जितने भी सकारात्मक पहलुओं का हवाला दिया जाता है, उन सारे पहलुओं की वास्तविकता कुछ और होती है क्योंकि वैश्वीकरण में पूँजी का अत्यधिक महत्व होता है और पूँजी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के पास है, इसलिए पूँजीवाद साधारण जनता का नहीं बल्कि स्वयं का विकास चाहता है। वह श्रम का प्रयोग अपने हितों के अनुसार करता है। इस प्रक्रिया में श्रम का शोषण होता है। पूँजीवाद अपने हितों के अनुरूप सरकारों के निर्णयों को भी प्रभावित करता है। आज भारत में पूँजीवाद का परिणाम यह है कि अमीर और अमीर बनता जा रहा है और गरीब और गरीब। गरीब और अमीर में खाई बढ़ती ही जा रही है।