प्राकृतिक रूप से बहुमूल्य यूरेनियम खनिज से संपन्न इस क्षेत्र में विकास के स्थान पर खतरनाक जहर फैल रहा है। यूरेनियम खदानों का अपशिष्ट कचरा तालाबों में फेंक दिया जाता है, जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से वहाँ के निवासियों पर ही नहीं बल्कि जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों पर भी नकारात्मक रूप से पड़ता है। jaduguda uranium khadan sthit hai यह क्षेत्र झारखंड में स्थित है।
जादूगोड़ा क्षेत्र का परिचय:
झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले में स्थित ऐसा क्षेत्र है जहां व्यापक रूप से यूरेनियम पाया जाता है। यहाँ 160 किलोमीटर लंबी और 1 से 10 किलोमीटर चौड़ी एक पठारीनुमा पट्टी है। यहाँ की परतदार चट्टानों में इस बहुमूल्य यूरेनियम खनिज के अयस्क पाए जाते हैं। एक बड़ा सा लंबा, चौड़ा मैदान पठारी क्षेत्र इसके संदर्भ में आदिवासी समुदायों में प्राचीन काल से कई धारणाएँ प्रचलित थीं। इस क्षेत्र से जो गर्भवती महिलाएँ गुजराती थी उनका गर्भपात हो जाता था फलत: आदिवासी समाज विभिन्न प्रकार की धारणाएँ विकसित कर लिया था।
सन् 1955 में इस जमीन के नीचे दबे यूरेनियम के अकूत भंडार को वैज्ञानिक पद्धति से खोजा गया और सन् 1967 में ‘यूरेनियम कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड’ (UCL) के गठन के साथ ही यहाँ यूरेनियम का खनन शुरू हुआ। हमें वन और वन्यजीवों का संरक्षण क्यों करना चाहिए इस प्रश्न का उत्तर आप यहाँ विस्तार से पढ़ सकते हैं।
यूरेनियम का परिचय:
यूरेनियम एक ऐसा रासायनिक तत्व है, जिसका प्रयोग परमाणु ऊर्जा उत्पादन हेतु किया जाता है। यह एक ऐसा रेडियो सक्रिय धातु है, जिसका प्रतीक ‘U’ होता है और 92 परमाणु संख्या होती है। यूरेनियम में 92 प्रोटॉन और 92 इलेक्ट्रॉन होते हैं।
enciclopedia Britannica अनुसार “यूरेनियम एक्टिनाइड श्रृंखला का रासायनिक तत्व है (कई संक्रमण तत्व गुणों के साथ) रासायनिक प्रतीक ‘U’ परमाणु संख्या 92। एक घनी कठोर चांदी जैसी सफेद धातु जो हवा में धूमिल हो जाती है, इस पिचब्लेंड जैसे आयस्कों से अलग किया जाता है।” en-m-wikipedia-org
यूरेनियम के प्रकार:
प्राकृतिक रूप से सबसे आम एवं प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला यूरेनियम-238 है। यह पृथ्वी पर अधिक पाया जाता है। दूसरा है, यूरेनियम 235 इसमें 143 न्यूट्रॉन होते हैं। यूरेनियम सबसे अधिक घनत्व वाला एवं सर्वाधिक परमाणु भार युक्त खनिज होता है।
यूरेनियम-235 प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला विखंडन धातु है। इसे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में तथा परमाणु हथियार निर्माण में प्रयोग किया जाता है।
यूरेनियम-233 “यूरेनियम का एक विखंडनीय आइसोटोप है, जो थोरियम ईंधन चक्र के हिस्से के रूप में थोरियम-232 से उत्पन्न होता है। परमाणु हथियारों एवं रिएक्टर ईंधन के रूप में उपयोग के लिए यूरेनियम-233 की जांच में प्रायोगिक रूप से परमाणु रिएक्टरों में इसका सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है। इस परमाणु ईंधन के रूप में व्यापक उपयोग के लिए प्रस्तावित किया गया है।” en-m-Wikipedia-org
यूरेनियम के प्रभाव:
यूरेनियम तथा उसके रेडियोसक्रिय पदार्थों का प्रभाव न केवल मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ता है बल्कि जीव-जंतु वन्य प्राणी और प्राकृतिक पेड़ पौधों पर भी पड़ता है। Centre for disease control and prevention के अनुसार “यूरेनियम की उच्च सांद्रता का अंतरग्रहण हड्डी या यकृत के कैंसर जैसे गंभीर स्वास्थ्य प्रभाव पैदा कर सकता है। यूरेनियम की बड़ी सांद्रता को सांस में लेने से अल्फा कणों के संपर्क में आने से फेफड़ों का कैंसर हो सकता है। यूरेनियम एक विषैला रसायन है, जिसका अर्थ है कि यूरेनियम के अंतरग्रहण से इसके रासायनिक गुणों से किडनी को बहुत जल्दी नुकसान हो सकता है, जबकि इससे रेडियोधर्मी गुणों से हड्डी या यकृत का कैंसर हो सकता है।” cdc.gov
National library of medicine के ऑनलाइन पोर्टल पर प्रकाशित एक लेख के अनुसार यूरेनियम खनन पर संस्करण और पुनर्ग्रहण के संभावित मानव स्वास्थ्य पर प्रभावों का विश्लेषण किया गया है।
“रेडॉन से उत्पादों के संपर्क से फेफड़े का कैंसर……रेडियोधर्मी सामग्री के संपर्क से सांस लेने निकालने या त्वचा में कट हो सकता है।…..रेडियो न्यूक्लाइड और उनके अक्षय उत्पादन से स्थानीय पर्यावरण को हानि पहुंचती है तथा वह प्रदूषित होता है। जल स्रोतों में रिसकर जल में सांद्रता बढ़ाकर जल दूषित होता है। उस जल को पीने से कैंसर का खतरा होता है।… जैसे हड्डी का कैंसर।”nabi.bom.nih.gov
अमेरिका सरकार की एक आधिकारिक वेबसाइट epa.gov पर यूरेनियम के घातक प्रभाव के संबंध में कहा गया कि “ईपीए ने साइट पर कैडमियम, क्रोमियम, निकल, जिंक, रेडियम 226, यूरेनियम 234, यूरेनियम 238, पोलोनियम 210, तांबा, सीसा और सीसा 210 का दस्तावेजीकरण किया है। ये खतरनाक पदार्थ वर्तमान में भूजल, सतही जल और तलछट में मौजूद हैं और मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए जोखिम पैदा करते हैं। विशेष रूप से, स्थानीय निवासियों को आवासीय भूमि उपयोग, भूजल अंतर्ग्रहण और आदिवासी निर्वाह भूमि उपयोग के माध्यम से संदूषण के जोखिम का सामना करना पड़ता है।” https://www.epa.gov/enforcement/
उपर्युक्त सारे प्रमाणों के बाद भी जादूगोड़ा के ‘यूरेनियम कार्पोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड’ (UCL) प्रशासन कहता है कि यहाँ खतरनाक किस्म के विकिरण जैसी कोई बात नहीं है। प्रबंध संस्थानों का कहना है कि रेडियोधर्मी सक्रियता के कारण बीमारियाँ नहीं होती है लेकिन उनके इस दावे में कोई दम नहीं दिखाई देता है। इस क्षेत्र में आशंका का माहौल हमेशा बना रहता है। आखिर यूरेनियम कारपोरेशन ने आशंका के समाधान का कोई ठोस प्रयास अब तक नहीं किया है।
जादूगोड़ा क्षेत्र में यूरेनियम उत्खनन की स्थिति: jaduguda uranium khadan sthit hai
परमाणु अस्त्र संपन्न भारत परमाणु अनुसंधान कार्यक्रम के लिए जादूगोड़ा की यूरेनियम खदान किसी जादुई चिराग से कुछ काम नहीं है। पर इस आदिवासी इलाके में यही खदानें लगातार बदहाली और बीमारी का अंधेरा फैला रही हैं। रेडियोधर्मिता की वजह से हवा और पानी में जहर घुल रहा है। इस तरह परमाणु हथियारों और अन्य अनुसंधानों के क्षेत्र में हो रहे राष्ट्रीय विकास की इन आदिवासियों को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। पर सरकार और देश उनकी अपेक्षाओं से पूरी तरह बेखबर है और राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाली शक्तियाँ उनकी बदहाली के प्रति उदासीन हैं।
इसके पूर्व खनन के बाद यूरेनियम अयस्क से पीला केक पैदा करने की प्रक्रिया के दौरान जो विशाल कचरा भंडार निकलता है, उसके लिए आदिवासी गांव के पास बड़े-बड़े कचरा तालाब ट्रेनिंग पॉइंट्स बना दिये गये हैं। इन तालाबों के लिए करीबन 109 एकड़ जमीन अधिग्रहित की जा चुकी है।
लगभग 15 किलोमीटर क्षेत्र के दायरे में यहाँ यूरेनियम की खदानें तीन खास स्थानों पर अवस्थित हैं। जादूगोड़ा, भाटी और नखापहाड़। सबसे प्रमुख केंद्र जादूगोड़ा ही है। कचरे के तालाब भी इसी के पास हैं। इसके आसपास बसे 78 गांव की आदिवासी समाज पर दहशत की काली छाया लगातार बढ़ती रही है।
लगभग 500 करोड रुपए के निवेश वाले ‘यूरेनियम कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया लिमिटेड’ भी मिलों से प्रतिदिन लगभग डेढ़-दो हजार टन यूरेनियम अयस्क पत्थर पीस जाता है। इसमें से यूरेनियम का अल्पांश निकाला जाता है और लगभग एक-डेढ़ हजार टन रेडियोधर्मी कचरा पाइपलाइन के सहारे डुगरीडीह और तिलैयाटांड़ गांव स्थित ट्रेलिंग पांड (यूरेनियम कचरा फेंकने के लिए बने तालाब) में प्रतिदिन गिराया जाता है। इसके अलावा देश के दूसरे हिस्सों की कुछ प्रयोगशालाओं का कचरा भी यही फेंका जाता है। राखा माइंस रेलवे स्टेशन पर चढ़ने और उतरने वाले इन कचरो को ट्रैकों से लाया और ले जाया जाता है। इसके लिए निजी ठेकेदारों को अनुबंधित किया गया है, जो अपने कर्मचारियों को किसी तरह का सुरक्षा कवच या उपकरण मुहैया नहीं कराते हैं।
यूरेनियम उत्खनन के असाध्य नकारात्मक प्रभाव:
इस यूरेनियम खदानों से निकलने वाले रेडियो सक्रिय विकिरणों से प्रभावित क्षेत्र के आदिवासियों का कहना है कि मनुष्य और जीव ही नहीं बल्कि वनस्पतियों पर भी विकिरण का साफ-साफ प्रभाव दिखाई देता है।
यूरेनियम उत्खनन की प्रक्रिया में व्यापक रूप से जल प्रदूषण होता है। यूरेनियम उत्खनन क्षेत्र में जहाँ प्रमुख रूप से जैविक अपशिष्ट, अजैविक अपशिष्ट, कार्बनिक रसायनों अनेक प्रकार के कार्बनिक यौगिक, निलंबित कणों के परतें रेडियोधर्मी समस्थानिक आदि प्रदूषक
कों का जल में विलय से जल प्रदूषित होता है। उत्खनन एग्रीमेंट की प्रथम शर्त यह होती है कि उत्खनन के पश्चात खोदे गए गढ़ों को उचित तरीके से पुनः भर दिया जाए किंतु ऐसा नहीं होता है। यूरेनियम खदानों से निकला रेडियो सक्रिय अपशिष्ट का निपटान जब कचरा तालाबों में किया जाता है, तब उस तालाब के साथ-साथ आसपास का संपूर्ण क्षेत्र प्रदूषित होता है।
जब वर्षा होती है, तब वे तालाब जल से भर जाते हैं और धीरे-धीरे भौम जल के रूप में परिवर्तित हो जाता है। भौम जल प्रदूषण का फैलाव भी धीमा होता है किंतु एक बार प्रदूषित हो जाने के बाद इसे शुद्ध करना बहुत ही खर्चीला होता है। यूरेनियम कचरा तालाब के जल, और भौम जल को प्रदूषित करता है। इस पर महुआ माजी अपने उपन्यास ‘मरंग गोडा नीलकंठ हुआ’ मैं लिखती हैं कि “आपका मतलब है कि यह खनिज यूरेनियम अपने साथ खतरनाक रेडियो धर्मी पदार्थों को बाहर लाते हैं? …. इसके पश्चात गिरने वाला बारिश का पानी रिसकर जमीन के अंदर जाता है, तो भूमिगत जल स्रोतों को दूषित करता है और कुछ बहाकर आसपास के तालाबों और नदी नालों के पानी को भी जहरीला बनता है।” महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. 2012, पृष्ठ-191
इन जल स्रोतों से किसान अपनी कृषि करता है और अनाज पैदा करता है, तब फसलें भी जहरीली हो जाती हैं और जब दूषित जल स्रोतों से सिंचाई की जाती है, तो मृदा प्रदूषण भी होता है। “इस रेडियोधर्मी पदार्थ से दूषित पानी को जब सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो उससे मिट्टी भी प्रदूषित होती है” महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. 2012, पृष्ठ-192
आदिवासी क्षेत्र से प्रवाहित होने वाली कोयलकरो, महानदी, हुगली जैसी नदियों के प्रदूषण का प्रमुख कारण उत्खनन से निर्मित अपशिष्ट का उचित निपटान न करना है।
यूरेनियम अपशिष्टों का निपटान उचित तरीके से नहीं होता है। इन अपशिष्टों को कचरा तालाबों में फेंक दिया जाता है। इस पर महुआ माजी अपने उपन्यास में लिखती हैं कि “इन कचरो को जब विशेष तालाबों में या डेमों में डालकर छोड़ दिया जाता है, तो उससे दूर-दूर तक पर्यावरण प्रदूषण होता है।” महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. 2012, पृष्ठ-193
इन अपशिष्टों में सर्वाधिक खतरनाक, जानलेवा यूरेनियम अपशिष्ट है। “जानते हो यूरेनियम प्रकृति में पाई जाने वाली सबसे भारी धातु तो है ही, यह एक ऐसा स्थिर रेडियोधर्मी तत्व भी है, जो धीरे-धीरे ऊर्जा की किरणों को बिखरते हुए नष्ट हो जाता है। नष्ट होने की यह अवधि हमारी कल्पना से भी ज्यादा लंबी है। प्राकृतिक यूरेनियम का अर्ध जीवन ही करीब साड़े चार खराब (बिलियन) वर्ष है।” महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. 2012, पृष्ठ-159
यूरेनियम का यह अपशिष्ट नष्ट होने के दौरान भी कई अनेक रेडियोधर्मी तत्वों को मुक्त करता रहता है। कहने का तात्पर्य यह है कि सभी अपशिष्टों में यूरेनियम अपशिष्ट सर्वाधिक खतरनाक है और वह आज के भारत में सर्वाधिक रूप इसी आदिवासी क्षेत्र में फैल रहा है।
इस रेडियोसक्रिय अपशिष्टों का प्रभाव न केवल मनुष्यों पर बल्कि जीव-जंतु, पेड़-पौधों पर भी नकारात्मक रूप से पड़ता है। “धीरे-धीरे बड़ी संख्या में जंगल के पेड़ पौधे नष्ट होने लगे। विकिरण से होने वाले प्रदूषण के कारण जीव-जंतुओं का नाश होने लगा। सभी प्राणी परेशान हो उठे।” महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. 2012, पृष्ठ-129
रेडियोसक्रिय यूरेनियम के इस अपशिष्ट से उन खदानों में काम करने वाले मजदूरों के साथ-साथ आसपास के सभी आदिवासी एवं गैर-आदिवासी गांव के लोग भी नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहे हैं। उनके समक्ष गंभीर स्वास्थ्य एवं मानसिक बीमारियों का पहाड़ खड़ा हो गया है।
आदिवासी समुदायों को इतना ज्ञान नहीं है कि इन खदानों से यूरेनियम अपशिष्टों का परिणाम क्या और कहाँ तक हो सकता है। नीति निर्माता और सरकार अवश्य जानती है किंतु मौन हैं। वे राष्ट्रीय कंपनियों को नहीं कह सकते हैं कि एग्रीमेंट के अनुसार ही कार्य हो क्योंकि उन्होंने कई अरबो रुपए पहले ही लेकर अपना सर्वस्व समर्पित कर चुके हैं। किंतु पर्यावरण प्रदूषण केवल आदिवासियों की समस्या नहीं है। हालांकि आज सर्वाधिक प्रभावित यही समाज है। यह विश्व मानवता की समस्या है। प्रदूषण के और स्वास्थ्य पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले जितने भी कारक हैं, सभी प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से इस क्षेत्र में फैले हुये हैं।
इस क्षेत्र के आदिवासी लोग कहते हैं कि इस इलाके में ऐसे अस्वाभाविक शरीर वाले पूरी तरह अपंग बच्चों की संख्या तेजी से बड़ी है। हम जानना चाहते हैं कि जादूगोड़ा और आसपास ही ऐसा क्यों हो रहा है? अगर यूरेनियम खनन और कचरा तालाबों की इसमें कोई भूमिका नहीं है, तो फिर यह सब क्यों और कैसे हो रहा है?
यूरेनियम विकिरण से होने वाली बीमारियाँ:
आदिवासी समाज अपने वन्य उत्पादन तथा विस्थापन की समस्या का ही सामना नहीं कर रहा है बल्कि पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणामों से भी जूझ रहा है। यूरेनियम खदानों से प्रभावित इस क्षेत्र में अनेक नई-नई बीमारियों का होना इस प्रदूषण का परिणाम है। किंतु यह परंपरागत समाज मानता है कि “इस क्षेत्र में हो रही तमाम अजीबो गरीब बीमारियों की जड़ में कहीं न कहीं डाइनो का ही हाथ है।” महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. 2012, पृष्ठ-124
पिछले कुछ वर्षों में जादूगोड़ा के समीपवर्ती क्षेत्र में निवासित आदिवासी समाज नई-नई बीमारियों का सामना कर रहा है। यदि स्पष्ट शब्दों में कहा जाए, तो आज यह संपूर्ण क्षेत्र भयानक रूप से विषाक्त हो चुका है। भारत में सर्वाधिक प्रदूषण तथा प्रदूषण से प्रभावित लोग तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की बीमारियाँ, जिनके इलाज का अभी शोध भी नहीं हुआ है, इस क्षेत्र में फैल रही हैं।
अपंग अपाहिज शिशु जन्म, मंदबुद्धि शिशु का जन्म, विकलांगता, अपाहिज बूढ़े, टी.बी थैलेसेमिया, थायराइड, दमा, कैंसर, स्केलिटन रिफॉर्मेटिस, त्वचा के रोग, पेट में उभरी बड़ी गांठ (आबूर्द), छोटे आकार के सिर वाले शिशु (माइक्रोकैथेली) बड़े आकार के सिर वाले बच्चे (मेगा केथेली), अपने नित्य कर्मों से निपटने की शुद्ध नहीं (डाउन सिंड्रोम), बांझपन आदि अनेक बीमारियों के नाम लिए जा सकते हैं। जादूगोड़ा का यूरेनियम प्रभावित क्षेत्र आज इन तमाम बीमारियों से ग्रस्त है।
यदि हम इन बीमारियों के प्रमुख कारणों पर विचार करें, तो स्पष्ट होता है कि इस क्षेत्र में यूरेनियम से होनेवाला विकिरण प्रमुख कारण है। महुआ माजी लिखती हैं कि “इन बीमारियों की असली वजह यूरेनियम से होने वाला विकिरण है।” महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. 2012, पृष्ठ-161
आदिवासी समुदाय यह समझ नहीं पा रहे हैं कि वास्तविक कारण क्या है? यूरेनियम उत्खनन से निकले हुए अपशिष्टों से प्रभावित इस समाज में विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ फैल रही हैं।
इन बीमारियों में विकलांगता, मंदबुद्धि का होना, अपाहिज शिशु का जन्म, कैंसर जैसी असाध्याय बीमारियाँ आदि असाध्य बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है और ऐसे में स्वास्थ्य जैसी सुविधाओं के अभाव के कारण स्थिति और भी गंभीर हो रही है। सीसा और आर्सेनिक जैसे घातक पदार्थ लोगों और पशुओं द्वारा ग्रहण किया गया तो वह अधिकांश हड्डियों में जमा हो जाता है। सीसा रक्त की लाल कोशिकाओं की ऑक्सीजन लाने, ले जाने की क्षमता को प्रभावित करता है और उनका जीवन काल कम कर देता है। यूरेनियम के नकारात्मक परिणामों के कारण बूढ़े लोगों को टी.बी का होना, अपाहिज, थायराइड, दमा, कैंसर, त्वचा के रोग, बांझपन जैसी अनेक बीमारियाँ आज इस क्षेत्र में भयानक रूप से फैल चुकी हैं।
एक कविता में यूरेनियम अपशिष्ट से निर्मित बीमारियों का चित्रण हुआ है-
“डगमगाते कद रखते,
बड़े-बड़े पेट लिए
नंग-धड़ंग शिशु।
हाथ पांव की उंगलियों की
बदलती संख्या
और परिवर्तित क्रम।
टेढ़ी-मेढ़ी टहनियां सा ढांचा लिए
धूल मिट्टी में
सिसकते विकलांग
नंगा नाच मौत का।”
राठोड पुंडलिक, जंगल के अंधियारे से…, अनंग प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019 पृष्ठ संख्या 55
आदिवासी और ग़ैर-आदिवासी लोगों द्वारा विरोध और सरकार तथा UCL की प्रतिक्रिया:
इस क्षेत्र के आदिवासी गैर-आदिवासी लोगों ने ‘झारखंडी ऑर्गेनाइजेशन अगेंस्ट रेडिएशन’ के बैनर तले कचरा तालाबों की मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन करते रहें हैं।
बीमारी और बदहाली से परेशान आदिवासियों ने जब-जब आंदोलन छेड़ा, उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया। जादूगोड़ा की समस्या है रेडियोधर्मी विकिरण और (UCL) प्रशासन एवं आदिवासियों की सोच और धारणा का अलग-अलग होना। UCL प्रशासन कोरा झूट परोसते हुए कहता है कि यहाँ खतरनाक किस्म की विकिरण जैसी कोई बात नहीं है।
UCL के तीसरे निर्माणाधीन कचरा तालाब के खिलाफ 1996 के गणतंत्र दिवस को आंदोलन की पहली चिंगारी उस समय फूटी जब प्रबंधन ने ‘चाटिकोचा’ गांव के कुछ मकानों को ध्वस्त करने का ठोस संकेत दिया। इसके लिए 1990 में ही 109 एकड़ जमीन का सरकार ने अधिग्रहण किया था लेकिन आदिवासी इस क्षेत्र में अवस्थित अपनी बस्तियों को छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन 28 जनवरी 1996 को बाकायदा बुलडोजर चलाकर ऐसे घरों को गिरा दिया गया। ‘चाटिकोचा’ के आदिवासियों ने आंदोलन तेज कर दिया और यहाँ निर्माणाधीन तालाब का काम रोकने के लिए प्रबंधन को बाध्य कर दिया। बीच में यहाँ चर्चित कार्यकर्ता मेधा पाटकर भी आई।
वर्ष 1997, 5 मई को UCL प्रबंधन, नागरिक प्रशासन और जनप्रतिनिधियों के बीच त्रिपक्षीय समझौता हुआ। इस समझौते के तहत विस्थापित आदिवासियों का पुनर्वास संबंधी विभिन्न मांगों को स्वीकार की गयी और स्वास्थ्य सर्वेक्षण की मांग को भी स्वीकार किया गया।
इस क्षेत्र के आदिवासी एवं आदिवासी कार्यकर्ता UCL प्रबंधन द्वारा किए जाने वाले सुरक्षात्मक प्रयत्नों को अपर्याप्त मानते हैं। तालाब के कचरे का नियंत्रित बहाव, नाले से बहकर कचरे के अंश का गुडरा नदी में गिरना समस्या के गंभीर पहलू हैं। रेडियो सक्रियता के मुख्य स्रोत इन नदियों तथा तालाबों में फेका गया कचरा ही है।
आदिवासी समुदायों के आंदोलन से उत्पन्न भारी दबाव के बाद प्रबंधन और बिहार सरकार ने इलाके में स्वास्थ्य सर्वेक्षण करने पर सहमति जताई थी। जिन बीमार लोगों का स्वास्थ्य जांच की गई उनमें से अधिकांश लोगों की बीमारी विकिरण के प्रभाव के कारण बताई जाती है लेकिन प्रबंधन या सरकार इसे अभी तक स्वीकार नहीं करते हैं।
‘यूरेनियम कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया’ के अध्यक्ष सह-प्रबंधक निदेशक कहते हैं कि हम रेडियोधर्मिता के स्तर की शक्ति से निगरानी रखते हैं और प्रबंधन भी करते हैं। हम इस प्रक्रिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित मानदंडों का पालन करते हैं। इसके लिए यहाँ प्रयोगशाला है। भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र ने भी अपनी स्वास्थ्य भौतिक इकाई खोल रखी है। उनका मानना है कि जानबूझकर निहित स्वार्थ के लिए कुछ लोग रेडियो सक्रियता की बातें बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं। लेकिन प्रबंधन के इस बयान में केवल झूट और स्वार्थ की मानसिकता का परिचय मिलता है।
UCN कहता है कि यहाँ स्थिति पूरी तरह नियंत्रित है। विकिरण के खतरों को बड़ा चढ़कर पेश करने के पीछे कुछ निहित स्वार्थी तत्वों का हाथ है। आदिवासी और विज्ञान एवं पर्यावरण के क्षेत्र में सक्रिय कई संस्थाएँ विकिरण के इन खतरों को वास्तविक मानती हैं। जादूगोड़ा आज इसी महान संकट में फंसा हुआ है।
निष्कर्ष:
आदिवासी समुदायों की आर्थिक स्थिति बहुत ही कमजोर होती है, जिसके कारण वे इन खतरनाक बीमारियों का सामना नहीं कर पाते हैं। उनके गांव में लगातार लोगों की मृत्यु होती रहती हैं। लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि यह मृत्यु क्यों हो रही हैं?
अतः इन सारी समस्याओं पर पुनर्विचार एवं व्यापक विश्लेषण की आवश्यकता है और एक साझे प्रयास की आवश्यकता है। भले ही मुआवजा लेकर कंपनी से कुछ लोगों का भला हुआ हो, पर इसके कारण हमारा वातावरण तो प्रदूषित होता ही रहेगा न!, हमारी आने वाली पीढ़ियाँ तो बीमार होती रहेगी न!, हमारी विकलांगता, हमारी असामयिक मौतें होती रहेगी। कंपनी चाहे कितना ही मुआवजा क्यों न दे दे, बीमारियों के इलाज की व्यवस्था कर दे, मगर हमारा स्वास्थ्य, हमारी स्वच्छ हवा जो हम गरीबों की एकमात्र पूँजी है, वह तो वापस नहीं ला सकती है न!, जब इन तमाम मुसीबतों की जड़ ये खदानें हैं, तो क्यों न इन्हें ही बंद करने की हम मांग करें अथवा कोई वैकल्पिक राह खोजें। जहरीले सांप को उसके बिल में रहने देना ही बुद्धिमानी है, बाहर लाना नहीं। यदि राष्ट्र विकास हेतु यह सब करना समय के अनुसार आवश्यक है, तो पीड़ित वर्ग के लिए योग्य व उचित विकल्प प्रदान करने की शर्त सर्वप्रथम प्राथमिक मुद्दों में होनी चाहिए। यह भी मुक्ति का एक अन्य मार्ग हो सकता है।