Adivasi आदिवासी समुदायों का पर्यावरण से अंतर्संबंध Interrelationship of tribal communities with the environment

आदिवासी समुदाय और पर्यावरण का परिचय: Introduction to Environment and Adivasi Communities

आदिवासी समुदाय और पर्यावरण Adivasi Community and Environment के बीच समान धर्मिता का संबंध होता है। आदिवासी समुदाय पर्यावरण को केवल संसाधनों का भंडार अथवा स्वयं को सुविधा संपन्न बनाने का माध्यम नहीं मानता है। पर्यावरण को वह अपने जीवन का अभिन्न अंग मानता है। पर्यावरण की हानि उसे अपने जीवन की हानि लगती है।

प्रस्तुत लेख में भारतीय समुदायों का परिचय भारतीय भौगोलिक विशेषताओं के अनुरूप देने का प्रयास किया गया है। क्योंकि आदिवासी समुदाय की जीवन शैली उनकी संस्कृति एवं जीवन मूल्य भौगोलिक विशेषताओं से प्रभावित होकर अपना विशिष्ट रूप धारण किए हुए हैं।

भारतीय आदिवासी समुदायों की विविधता और भेद:

मुद्राओं के वर्गीकरण के लिए कई मानदंड लागू किया जा सकते हैं। जैसे समुदायों के व्यक्तियों में भावात्मक एवं बौद्धिक चरित्र मानदंड, समुदाय का जनसंख्या आकार तथा उनके प्राकृतिक पर्यावरणीय विशेषताएं। इन सभी आधारों पर आदिवासी Adivasi समुदायों का वर्गीकरण किया जा सकता है।

डॉ बीएस गुहा द्वारा भारतीय आदिवासी समुदायों को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया गया है, “जनजातीय भारत को भौगोलिक आधार पर तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है, 1. उत्तर तथा उत्तर पूर्वी क्षेत्र 2. मध्य क्षेत्र 3. दक्षिण क्षेत्र।”1 गुहा द्वारा भारतीय आदिवासी समुदायों का विभाजन साधारण रूप से हुआ है। हालांकि भारतीय जनजातीय समाज का विभाजन एक कठिन कार्य है क्योंकि भारत में प्रति 50 किलोमीटर के अंतर पर एक नई जनजाति दृष्टिगोचर हो जाती है, जो पूर्व परिचित आदिवासी समुदाय से पूर्णतया भिन्न होती है।

उपर्युक्त मानदंड बौद्धिक चरित्र, व्यक्तिक अथवा निर्वयक्ति आंतरिक संबंध, भावात्मक एकात्मता तथा पर्यावरणीय विशिष्टता के आधार पर भारतीय जनजातीय समुदाय को 8 भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  1. पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी Adivasi समुदाय: इन समुदायों में गारो, खासी, जयंतिया, भोटिया, थारू,  चकमा,  लेपचा,  कुकी, नागा तथा मजो प्रमुख हैं।
  2. हिमालय तराई प्रदेशों के आदिवासी समुदाय:
  3. पश्चिमोत्तर भारत के आदिवासी समुदाय: मीणा और भील
  4. उच्च भूमि क्षेत्र के जनजातीय समुदाय: जो विंध्याचल पहाड़ियों के साथ-साथ उड़ीसा की महादेव पहाड़िया तथा राजमार्ग की पहाड़ियों तक विस्तृत है। इनमें में मुख्यतः मुंडा, हो, गोंड, संथाल, खारिया, भील, बैगा, पहाड़िया, बिरहोर, कबूतरा तथा मुरिया आदि समुदाय प्रमुख हैं।
  5. दक्षिण भारतीय आदिवासी समुदाय: इनमें टोडा, चेंचू, लंबाडा, सुगाली, कादर, कोटा, गोंड तथा कुबरा आदि प्रमुख समुदाय हैं।
  6. द्वीपीय भारत के आदिवासी Adivasi समुदाय: ये अधिकांश समुदाय विलुप्तप्राय हैं लेकिन इनका जीवन दर्शन भारतीय ज्ञान परंपरा का एक अभिन्न अंग है। इनमें चैंपियन, जारवा, ओंग, सेंटलिस्ट और ग्रेट अंडमानी आदि प्रमुख हैं।
  7. पठारी प्रदेशों में निवासित आदिवासी Adivasi समुदाय: यहाँ भी अधिकांश समुदाय रहते हैं,  किंतु ये समुदाय प्रमुखतः कृषि कार्य में जुड़ गए हैं। इन पर सर्वाधिक बाहरी प्रभाव दिखाई देता है।
  8. विमुक्त घुमंतू आदिवासी Adivasi समुदाय: इनमें बंजारे, बागरी, वडर, धेमला, लोहारी और  कुरुख आदि प्रमुख हैं।

उपर्युक्त सभी समुदायों Adivasi में व्यापक विभिन्नताएं एवं विविधताएं विद्यमान हैं किंतु पर्यावरणीय दृष्टिकोण से इन सारे समुदायों में एक समान दृष्टिकोण दृष्टिगोचर होता है। 

इन सभी समुदायों की भाषा, संस्कृति, जीवन शैली, विचारधारा एवं दार्शनिक ज्ञान परंपराओं में व्यापक अंतर है किंतु विचारणीय तथ्य यह है कि व्यापक विभिन्नता में भी एकता के भाव तथा प्रकृति के संदर्भ में समान अवधारणाएं दृष्टिगोचर होती हैं।

जब हम इन समुदायों में विभिन्नता को समझते हुए एकता की खोज करते हैं तब हमें एक समान दार्शनिक आधार प्राप्त होता है। इन समुदायों पर व्यापक रूप से वैदिक संस्कृति, सभ्यता एवं ज्ञान परंपरा का प्रभाव दिखाई देता है तथा कुछ ज्ञान परंपराएं विशिष्ट हैं। जो हमारी समझ को अंतत:  उसी एक सर्वशक्तिमान सत्ता के समक्ष खड़ा कर देती हैं।

आदिवासी Adivasi समुदाय प्राचीन समय से प्रकृति के साथ सामंजस्य पूर्ण तथा सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखा है। 

आदिवासी जीवन शैली और प्रकृति से उनका जुड़ाव:

वह अपने जीवन शैली एवं मानवीय गतिविधियों को इस प्रकार प्रबंध किया हुआ है जिससे पर्यावरण को कम से कम हनी पहुंचे। उनका जीवन शैली निर्वाह प्रधान है ना कि संग्रह प्रधान। इसीलिए वह वन संसाधनों पर न केवल मनुष्य बल्कि जीव जंतु सभी का अधिकार स्वीकार करते हैं किंतु जब बाहरी बहुराष्ट्रीय कंपनियां उनके वनों का अंधाधुंध दोहन करने लगते हैं तब वह पर्यावरण की रक्षा हेतु आवाज उठाते हैं यथा

“मां समान धरती और पिता समान आकाश

उनके लिए बाजार बाजरो चीज हैं

जिसे वे भेद या चमकते मोतियों की तरह

खरीदने लूटने और बेच देते हैं।

एक दिन आएगा जब उनकी विशाल भूख

सारी धरती निगल लगी।”2

कहना ना होगा कि यदि हम पर्यावरण का अति दोहन करते रहे तो एक दिन प्रकृति पूर्ण मानव समाज को ही निगल लगी। आदिवासियों की यह भविष्यवाणी विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के रूप में आज हमारे समक्ष खड़ी हैं।

आदिवासी समाज एवं पर्यावरण पर भूमंडलीकरण का प्रभाव: 

भूमंडलीकरण की परिभाषा देते हुए मेल्कम वाटर्स  ने लिखा है कि 

‘‘एक ऐसी सामाजिक प्रक्रिया जिसमें सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाओं पर भूगोल के अवरोध पीछे हट जाते है और जिसमें लोग उत्तरोत्तर इस बात से भिज्ञ हो जाते हैं कि ये अवरोध दूर हो जाते हैं। इनके अनुसार वैश्वीकरण का अर्थ वृहत्तर सुसंबद्धता और सीमाओं को तोड़ना है।‘’3

वैश्वीकरण का यह दौर तथा आदिवासी Adivasi समाज की स्थिति दोनों विरोधाभासी है। वैश्वीकरण के जितने लाभ, गुण एवं सकारात्मकता के लक्षण हैं वे सभी मुख्य धारा, पूँजीपति वर्ग, विकसित देशों के हितों की रक्षा करते हैं। वैश्वीकर उन लोगों के लिए वरदान साबित हो रहा है। दूसरी और वेश्वीकरण के जितने दोष एवं नकारात्मक लक्षण है उनसे सर्वाधिक प्रभावित आदिवासी समाज, गरीब, ग्रामीण तथा मजदूर हुआ है।

वैश्वीकरण आज विश्व समाज को दो भागों में विभक्त कर दिया है, एक वर्ग वह है जो विश्व संसाधनों पर कब्जा करना चाहता है तथा अपने हितों की रक्षा कर अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहता है हॉलाकि वैश्विक स्तर के निर्णयों में इनकी ही प्रधान भूमिका होती है। दूसरा वर्ग वह है जो वैश्वीकरण प्रक्रिया से शोषित हो रहा है। इस वर्ग को यह ज्ञात भी नहीं होता कि वे जिनसे शोषित हैं वह कौन है? कहा रहता? कैसा है? क्योंक वैश्वीकरण की प्रक्रिया विश्व को एक परिधि में बांधना चाहती है। इसमें निर्णय कहीं ओर होते हैं तथा उन निर्णयों का प्रभाव कहीं ओर। फलतः आदिवासी Adivasi समाज इन निर्णयों के प्रभाव से पीड़ित, शोषित एवं दमित हो रहा है। आदिवासी समाज शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी तथा विश्व में घटित होनेवाली नवीनतम घटना चक्रों से अनभिज्ञ होता है। वह वैश्वीकरण के मूल स्वभाव से तथा उसकी प्रकृति से तो अनभिज्ञ है ही किन्तु वह आज वैश्वीकरण के प्रभाव से अनाभिज्ञ नहीं बल्कि उसका भूक्तभोगी भोगी भी है। वैश्वीकरण का वास्तविक चेहरा उसे दिखता तो नहीं है किन्तु प्रभावित आवश्य करता है। पुंड़लिक कि एक कविता ‘ड्रोसेरा’ में इसका चित्रण हुआ है।

‘‘हमारे अतीत से धुले  मिले

इस वन में,

लगाता है चक्कर कोई लगातार

आवाज उसकी

सुनाई देती है बार-बार

वह नहीं देता दिखाई पर

धूम रहा बार-बार।’’4

यह वैश्वीकरण आदिवासी Adivasi समाज को दिखता तो नहीं है लेकिन उन्हें नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है।

आदिवासी समाज पर वैश्वीकरण का प्रभाव जीवन के सभी पहलुओं पर नकारात्मक रूप से पड़ रहा है चाहे वह सामाजिक क्षेत्र हो, राजनीतिक क्षेत्र हो, सांस्कृतिक हो या आर्थिक, साहित्यिक सभी क्षेत्र वैश्वीकरण से प्रभावित हैं। सवाल उठता है कि ऐसा कौन सा कारण है कि यह समाज सर्वाधिक प्रभावित है। वैश्वीकरण की नकारात्मकता का सर्वाधिक प्रभाव आदिवासियों पर ही क्यों पड़ता है? इन सवालों पर यदि हम विचार करें तो हमें आदिवासी Adivasi समाज का जीवन, उनकी अवस्थिति तथा उनके सांस्कृतिक मूल्यों को जानना आवश्यक है। तत्पश्चात वैश्वीकरण की मूल प्रवृत्ति एवं उसके वास्तविक रूप को पहचानना आवश्यक है। यदि इन दोनों कारकों की पहचान हो जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि वास्तव में ऐसा क्यों होता है।

दरअसल बात यह है कि आदिवासी Adivasi समाज हजारों वर्षों से प्राकृतिक संसाधन यथा वन, जंगल, पहाड़, नदियाँ, वन, झरने प्रान्तर, वनस्पति, पेड, पौधों एवं भूगर्भ में विद्यमान संसाधन आदि के रक्षक रहे हैं। उनके जीवन की प्रवृतियाँ एवं उनका जीवन जीने का तरीका ही ऐसा है कि उससे उपर्युक्त संसाधनों की अनायास रक्षा होती रहती है। इसके विपरित भूमंडलीकरण का यह वह दौर है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंद दोहन कर लिया जाए कारण ऐसा सुनहरा समय हो सकता है उन्हें (कंपनियों को) दूबारा न मिल सके। यदि वैश्वीकरण का वास्तविक चेहरा जन-साधारण के समक्ष आने पर जनता विद्रोह कर देगी और यह सुनहरा समय उनके हाथ से फिसल न जाय। वे जानते हैं क्योंकि वे चालाक हैं चालक व्यक्ति आनेवाले समय को भॉप लेता है। सन् 1989 में जो नई आर्थिक नीति देश में शुरू की गई थी उसकी परिणति जनंविरोधी वैश्वीकरण के रूप में अब सामने आने लगी है। फलतः सरकारे कुछ कदम न उठा ले इस आशंकावश बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जितना हो सके उतना बेरहमी से इन प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में लगी हैं। प्राकृतिक संसाधन अधिकतर उन्हीं क्षेत्रों में हैं जहाँ आदिवासी समाज हजारों वर्षों से निवास करता आया है। साथ-साथ संसाधनों की रक्षा भी करता आया है किन्तु वह कभी उन संसाधनों पर अपना मालिकाना हक जताने का दावा नहीं किया है। किन्तु वैश्वीकरण के समय में पूँजीपतियों की गिद्द दृष्टि इन संसाधानों पर टीकी हुयी है। ऐसी स्थिति में आदिवासी समाज का भविष्य खतरे में पड़ जाता है।

औपनिवेशिक काल में मात्र एक इस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा इन संसाधनों का दोहन किया गया था तब भी आदिवासी समाज अनेक आन्दोलन एवं संघर्ष के कई रूपों को जारी रखा था किन्तु इतिहासकारों ने उनके साथ पक्षपात का व्यवहार किया। उनके संघर्ष को इतिहास में स्थान नहीं मिला और इस समय भी वहीं स्थिति विद्यमान है। इस समय एक ही कम्पनी नहीं बल्कि सैकड़ों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की एक साथ घुसपैठ हो चूकी है।

                       ‘‘धॅस रहे हैं

                        घने  पेड़ों और झुरमुटों में

                     लहूलुहान और भौंचक्के

                      बेदखल होते हुए

                          हमारी पुश्तैनी जमीनों से।’’5

इस घुसपैठ में आदिवासी Adivasi समाज का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। फलतः आदिवासी समाज अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु संघर्ष करता आया है और उसका संघर्ष आज भी जारी है। आदिवासी Adivasi समाज जो बाधक बन रहा है इन पूँजीपतियों के संसाधन लुटों मोर्चे पर इसलिए बहुराष्ट्रीय निगमों, उनके मॉड़ल को माननेवाले देशी पूँजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबाट में लगे राजनेता, प्रशासकों व बिचौलियों को यह सूट करता है कि जो लोग प्राकृतिक संसाधनों के खिलाफ आवाज उठाए उन्हें समाप्त किया जाय तथा अपना रास्ता साफ किया जाय। अतः ये चालाक धूर्त तरह-तरह के हथकंड़े अपनाकार आदिवासियों के अस्तित्व को मिटाना चाहते हैं। कवि हरिराम मीणा इस चालबाजी को अपनी कविता में उतारते है।

‘‘शायद पचा नहीं सकते मुझे जीवित

तभी तो

चबाते रहे खोखली हड्डियों को

सूखे मॉस को चूसते रहे

पीते रहे जमे हुए लहू को

जलाते रहे

खाल बाल नाखुनों को

यह सोचकर कि, न बचे कोई सबूत

तुम्हारी चालाक व सधी हुयी यात्रा के

पथ पर।’’6

अतः यह जो संघर्ष है वह जल, जंगल, जमीन के तथा पर्यावरण के लिए लढ़नेवाले राष्ट्रभक्तों एवं पूँजी नायक देशी-विदेशी लुटेरे पूँजीपतियों के बीच है और इस संघर्ष में सर्वसंसाधन संपन्न आधुनिक हाथियार तथा तकनीकी से लेस लुटेरा वर्ग राष्ट्रभक्तों पर भारी पड़ रहा है। इस गंभीर और निर्णायक समय पर आज सभी को विचार करने की आवश्यकता है। विचार इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि इस संघर्ष में राजनीतिक निर्णय, पूजी नायक राजनेताओं के माध्यम से लूटेरा वर्ग बड़े-बड़े निर्णय लेने लगाता है और उसमें बिकाऊ मीडिया उन निर्णयों के लाभ-ही-लाभ समाज के समक्ष दिखाते रहते है अतः साधारण जनता इन निर्णयों के पीछे छुपी वास्तविक मंशा को समझ नहीं पाती है। इस दृष्टि से आदिवासी समाज पर इस वैश्वीकरण का प्रभाव जीवन के हर पहलुओं पर पड़ा है।

हमें वन और वन्यजीवों का संरक्षण क्यों करना चाहिए

आदिवासी एवं पर्यावरण संरक्षण संबंधी पहले:

  • आदिवासी Adivasi उत्पाद एवं उत्पाद विपणन योजना
  • वैधानिक प्रावधान अनुच्छेद 243 डी अनुच्छेद 3 30 तथा अनुच्छेद 332
  • आदिवासी Adivasi स्वरोजगार योजना
  • स्थानीय पर्यावरण योजना
  • पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय रोड मैप
  • प्रधानमंत्री जनजाति आदिवासी न्याय महा अभियान योजना

जैसी अनेक योजनाएं आदिवासी Adivasi एवं पर्यावरण संरक्षण संवर्धन हेतु विभिन्न सरकारों द्वारा लागू की गई है किंतु इन योजनाओं एवं पहलुओं का वास्तविक रूप में संतोषजनक परिणाम नहीं मिल पाता है।

पर्यावरणीय संरक्षण में जनजातीय ज्ञान की भूमिका: 

आदिवासी Adivasi समुदाय पर्यावरण के संदर्भ में रचाव और बचाव में विश्वास रखते हैं। वह किसी भी स्थिति में पर्यावरण हनी को स्वीकार नहीं करते हैं। 

उनके परंपरागत ज्ञान तथा जीवन शैली पर्यावरण अनुकूल है। वह कहते हैं कि “जब हम जंगलों पर नदियों पर जलाशयों पर पूरे गांव के समूह का अधिकार होता है तो कोई कैसे उसका उल्लंघन कर सकता है।”7

वन उपज एवं वनों उत्पादन पर भी वह समस्त जीव जंतुओं का अधिकार स्वीकार करते हैं जैसे आदिवासी महिला जंगल में फल तोड़ते समय रहती है कि “सर फल तुम लोग ही खाओगे या पशु पक्षियों के लिए भी कुछ छोड़ोगे?” 8

कहना ना होगा कि आदिवासी परंपरागत ज्ञान प्रगतिशील एवं संधारणीय पर्यावरण को बनाए रखने हेतु आवश्यक है। आदिवासी समुदायों का यह परंपरागत ज्ञान प्राकृतिक संतुलन एवं पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।

पर्यावरण संरक्षण की चुनौतियां: 

आदिवासी समुदाय हजारों वर्षों से प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा करता आया है किंतु वर्तमान समय में उनके समक्ष अनेक चुनौतियां खड़ी हैं। स्थिति इतनी दयनीय हो चली है कि पर्यावरण संरक्षण तो दूर की बात है वह अपना जीवन भी नहीं बचा पा रहा है। जल जंगल जमीन पर राष्ट्रीय एवं बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अधिकार होता जा रहा है। इन कंपनियों द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है। अतः आदिवासी समुदाय विस्थापित हो रहे हैं विस्थापन के साथ कई अनेक अपनी संस्कृति जीवन शैली रीति रिवाज परंपराओं एवं अपने जीवन मूल्यों को आज वे खोने के कगार पर खड़े हैं।

अतः इन सारी चुनौतियों का समाधान करने की आवश्यकता है। साथ ही साथ आदिवासी समुदाय की प्राचीन ज्ञान परंपरा को धरोहर के रूप में संरक्षण एवं संवर्धन करने की भी आवश्यकता है।

भद्रा अभयारण्य में वन्यजीवों का व्यवहार

निष्कर्ष: 

संपूर्ण भारत में फैला आदिवासी समुदाय अपने आप में विविधता पूर्ण है। भौगोलिकता के आधार पर उन्हें आठ प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है आदिवासी समाज की सामाजिक सांस्कृतिक परंपराएं व्यापक रूप से समृद्ध हैं तथा उनके जीवन मूल्य जीवन शैली पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में प्रगतिशील एवं संधारणीय है। सरकार द्वारा उनकी संस्कृति एवं जीवन दृष्टि की रक्षा एवं संवर्धन हेतु अनेक कदम उठाए गए हैं किंतु परिणाम संतोषजनक नहीं है। अतः आदिवासी समाज की विचार शैली एवं पर्यावरण के संदर्भ में उनके दृष्टिकोण को नीति निर्माण प्रक्रिया में शामिल करने की तथा इस दृष्टिकोण से कदम उठाने की आवश्यकता है। 

Hello world!

February 16, 2024 by tribalenvironmental.com

संदर्भ ग्रंथ:

  1. बी. एस गुहा, भारतीय समाज की संरचना, हौज़ख़ास विलेज दिल्ली प्र. सं. 1999 पृष्ट- 16
  2. हरिराम मीना, आदिवासी दुनिया, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, प्र. सं. 2013 पृष्ट-178
  3. बदलते समय में लेख- वितर्क पुस्तिका (पत्रिका), आवास विकास, प्र.सं. 2013 पृष्ट-8
  4. जंगल के अंधियारे से…- राठोड पुंडलिक, अनंग प्रकाशन नयी दिल्ली, 2019 पृ. 170
  5. सुबह के इंतजार में – हरिराम मीणा, शिल्पायन प्रकाशन नयी दिल्ली, 2006
  6. सुबह के इंतजार में – हरिराम मीणा, शिल्पायन प्रकाशन नयी दिल्ली, 2006
  7. महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र. सं. 2012 पृष्ट-136
  8. महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र. सं. 2012 पृष्ट-290

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