Kisan Andolan किसान आंदोलन और आदिवासी समुदायों के उद्देश्य समान हैं The Objective of the Farmers Movement and Tribal Communities are Similar 

“हिंदुस्तान का अर्थ मुट्ठी भर राजागण न होकर करोड़ों किसान हैं, जिनके सहारे राजा और अन्य सभी जी रहे हैं। किसान किसी के तलवार बल के बस में न तो कभी हुए हैं और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते, न किसी की तलवार से वे डरते हैं। वे मौत को हमेशा अपना तकिया बनाकर सोने वाली महान प्रजा है। उन्होंने मौत का डर छोड़ दिया है, इसलिए सबका दर छोड़ दिया है।”1 महात्मा गांधी

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किसान आंदोलन का परिचय: Introduction of Farmers Movement

गांधी जी ने 1908 में ही ‘हिंद स्वराज’ में अपने विचार व्यक्त करते हुए किसानों को आत्महत्या युक्त समुदाय के रूप में देखा था और उसे सत्याग्रह का परंपरागत प्रयोग कर्ता के रूप में देखा था। किसानों का यह सत्याग्रह आज तक समाप्त नहीं हुआ है। आज भी भारतीय किसान अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहा हैं। किसानों का यह आंदोलन kisan andolan भारत में पिछले कुछ वर्षों से चल रहे किसान आंदोलनों Kisan Andolan की अगली कड़ी है। यह kisan andolan आंदोलन आने वाले समय में किसानों की आवाज को और बल प्रदान करेगा।

सवाल यह है कि आदिवासी समुदायों के लिए इस kisan andolan आंदोलन के क्या मायने हैं? क्या आदिवासी किसान स्वयं को इस आंदोलन से जोड़ पा रहे हैं? या भविष्य में जोड़ पाएंगे? क्या किसान आंदोलन kisan andolan की प्रमुख मांगे आदिवासी किसानों के हित समान है? आदि अनेक बिंदुओं पर प्रस्तुत आलेख में चर्चा करने का प्रयास किया गया है।

किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि: Background of Farmers Movement 

किसान आंदोलन kisan andolan की पृष्ठभूमि बहुत व्यापक, विस्तृत एवं ऐतिहासिक है। वर्ष 1858 से लेकर वर्ष 2014 की अवधि में सेकडों आंदोलन हुए हैं। इन विभिन्न kisan andolan आंदोलनों में किसानों की मांगे स्थानीयकृत, असंबद्ध और कुछ विशेष शिकायत तक ही सीमित रही थी। इन आंदोलनों में भारतीय किसानों का व्यापक दृष्टिकोण हमारे समक्ष नहीं आ पाया था किंतु 2014 के बाद के किसान आंदोलन Kisan Andolan की आवाज अधिक सशक्त, संगठित और व्यापक भारतीय दृष्टिकोण को लेकर उभरे हैं। 2014 के बाद विभिन्न क्षेत्रों में छुटपुट किसान आंदोलन kisan andolan होते रहे हैं। लेकिन 2020-21 में अखिल भारतीय स्तर पर तीन कृषि कानून के विरोध में एक सशक्त आंदोलन उभरा था। इस Kisan Andolan आंदोलन में संपूर्ण भारत के 32 से अधिक किसान संगठनों ने संयुक्त मोर्चा बनाकर आंदोलन kisan aandolan किया था। सरकार द्वारा लाए गए तीन कृषि कानून, जिनका विरोध किसानों ने सशक्त रूप से किया था।

  1. कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून- 2020
  2. कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन कृषि सेवा पर कारार कानून- 2020
  3. आवश्यक वस्तुएँ संशोधन अधिनियम-2020

इस kisan Andolan आंदोलन में इन तीनों कानून को निरस्त करना तथा केंद्र सरकार द्वारा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागू करने जैसी प्रमुख मांगे शामिल थी।

इस आंदोलन की सफलता यह रही की सरकार द्वारा इन तीनों कानून को वापस लेते हुए किसानों की अनेक मांगों पर सहमति व्यक्त की गई।

वास्तविकता यह रही की सरकार ने 2021 के आंदोलन को बंद करवाने हेतु जो आश्वासन दिए थे,  वे आश्वासन पूरे नहीं हो पाए। फलत: आज संपूर्ण भारत Kisan Andolan किसान आंदोलन की आवाज से गूंजने लगा है।

वर्तमान Kisan Andolan किसान आंदोलन में कुल 50 से भी अधिक कृषि संगठनों ने संयुक्त मोर्चा बनाया है।

आदिवासी आजीविका में कृषि की भूमिका: Role of the Agricultural in the Tribal Livelihood

विश्व की भौगोलिक, सामाजिक एवं आर्थिक दशाएँ कृषि कार्य को प्रभावित करती हैं। परिणामतः अनेक कृषि पद्धतियाँ विकसित हुई हैं। 

निर्वाह कृषि प्रणाली: Subsistence Farming System 

कृषि की प्रमुख प्रणालियों में हम निर्वाह कृषि और गहन निर्वाह कृषि के रूप को देख सकते हैं। जहां तक आदिवासियों का सवाल है। आदिवासी समाज प्राचीन काल से ही निर्वाह कृषि को ही महत्व देता रहा है। इसके कारण भी उनकी सामाजिक संरचना एवं जीवन निर्वाह पद्धतियों में खोजे जा सकते हैं। 

निर्वाह कृषि प्रणाली के माध्यम से आदिवासी समाज वर्ष भर खाने हेतु अनाज का उत्पादन नहीं कर पाता है। इस कृषि प्रणाली से वर्ष भर की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित नहीं हो पाती है। भारत में इस कृषि प्रणाली को विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न नामों से जाना जाता है। पूर्वोत्तर भारत में ‘झूम’ मध्य भारत में ‘बेवार’ या ‘दहया’ आंध्र प्रदेश में ‘पोडु’ उत्तरी उड़ीसा में ‘कोमाश’ या ‘विगा’ आदि।

गहन कृषि प्रणाली: Stable Farming System 

समय के साथ आदिवासी समुदाय कृषि प्रणाली को सुधारते हुए तथा परिस्थितियों के अनुसार ढलने हेतु मजबूर हुआ। गहन कृषि प्रणाली की ओर उन्मुक्त हुआ किंतु वह इसे पूर्ण रूप से साध न सका क्योंकि गहन कृषि निर्वाह (स्थाई कृषि) हेतु आधुनिक साधनों की आवश्यकता थी। और उनकी आर्थिक स्थिति इन आवश्यकता पूर्ति की अनुमति नहीं दे पाती थी। अतः आदिवासियों की कृषि व्यवस्था पिछड़ती रही। 

“टेढ़े मेढ़े चौकोर आयताकार खेत। हर खेत का आकार दूसरे से अलग। इस जंगल में पहाड़ी ढलान पर थोड़े-थोड़े समतल में जहां जितनी जगह मिली जोड़ तोड़ कर बोने लायक बना लिया। कुछ खेतों की मिट्टी खुजी हुई थी तो कुछ में अभी भी घास पर जगह-जगह छोटे-छोटे गोबर के ढेर रखे थे। यानी जोतने की तैयारी कर ली गई थी …किसी-किसी खेत में मकई लहलहा रही थी तो किसी में धान के पौधे लग चुके हो।”2 

इस प्रकार आदिवासी कृषि प्रणाली में परिवर्तन हुआ। इस गहन निर्वाह कृषि को सफल स्तर पर नहीं पहुंचाया जा सका क्योंकि साधनों की अपर्याप्तता थी।

सरकार की ओर से कुछ सुविधाएँ एवं साधनों का हस्तांतरण के कदम उठाए गए हैं। जैसे अच्छे वह प्रदर्शनी हेतु खेती की स्थापना, विकसित कृषि यंत्रों, अच्छी खादों तथा बीजों का वितरण, ऋण सुविधा उपलब्ध कराना आदि। यदि इन सभी सुविधाओं का सही क्रियान्वयन हो जाता तो आज के आदिवासी समाज की क्रय शक्ति में कुछ वृद्धि आवश्यक हो जाती किंतु ऐसा होना नहीं था।

आदिवासी समुदायों की कृषि के संदर्भ में अनुसूचित क्षेत्र व अनुसूचित जनजाति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि- 

“अस्थाई कृषि जनजातीय जीवन से जुड़ी है, अतः यह केवल कृषि संसाधन के सुधारने की तकनीकी समस्या ही नहीं बल्कि यह भूमि की स्थिति तथा सामाजिक रीति-रिवाज परंपराओं तथा विश्वासों की मिली जुली समस्या है। सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता तथा योजनाओं को अधिक सफलता नहीं मिली जिसके कारण एक कुछ तो पूरी योजना का सुचारू रूप से क्रियान्वयन न किया जाना तथा दूसरे जनजातीय मानसिकता द्वारा समतल तथा बाहरी भूमि को स्वीकार न किया जाना।”3 

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आदिवासी समाज बाहरी व समतल भूमि को अपनाना नहीं चाहता। इस तथ्य से सहमत नहीं हुआ जा सकता क्योंकि आज का कोई व्यक्ति अथवा समाज यह नहीं चाहेगा कि समतल भूमि न मिले और मेरी आर्थिक स्थिति में सुधार न हो। हालांकि वास्तविक कारण योजनाओं का उचित क्रियान्वयन का अभाव था। 

कहना न होगा कि आदिवासी समाज की कृषि व्यवस्था आधुनिक कृषि व्यवस्था से पिछड़ती गई और जनजाति अपनी परंपरागत कृषि प्रणाली के अनुसार ही जीवन निर्वाह करता रहा। अर्थात वर्ष के कुछ महीनो में कृषि कार्य करना और कुछ महीनो में वन उत्पादन द्वारा अपनी जीविका चलाना यह जीवन प्रक्रिया चलती रही जो आज भी जारी है। भारत का आदिवासी समाज कृषि से अधिक वन उत्पादन पर निर्भर है। आदिवासी समाज की कृषि व्यवस्था ऐसी है कि उसमें मौसमी बेरोजगारी पाई जाती है। कुछ महीने इन समुदायों की सीमांत आए शून्य हो जाती है। फलत: यह समाज वन उत्पादन एवं संग्रह का कार्य करने लगता है। इसलिए आदिवासी समुदाय में कृषि व्यवस्था का समाधान होना अत्यंत आवश्यक है। इस दृष्टिकोण से देश में हो रहे कृषि आंदोलन आदिवासी समाज हेतु लाभदायक है।

किसान आंदोलन और आदिवासी उद्देश्यों का अंतर्संबंध: Interrelationship of Farmers Movement and Tribal Objectives 

भारत में किसान चाहे कोई भी हो, वह सवर्ण हो, दलित हो, आदिवासी हो, अल्पसंख्यक हो या फिर महिला ही क्यों न हो। सबके हित एक दूसरे से मेल खाते हैं क्योंकि आजीविका का प्रमुख साधन कृषि है। भारत में कृषि करना एक कठिन कार्य है।

“नेशनल अकाउंट्स डाटा के अनुसार “कृषि अपने बुरे दौर से गुजर रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष औसतन 15168 किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं। इनमें से लगभग 72% ऐसे छोटे किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टर से भी कम जमीन है।”4 

यही नहीं स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट भी किसान आत्महत्या के संदर्भ में चिंता व्यक्त करते हुए कुछ सुझाव सरकार के समक्ष रखती है।

“किसानों की आत्महत्या की रोकथाम: पिछले कुछ सालों में बड़ी संख्या में किसानों ने आत्महत्या की है. आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, केरल, पंजाब, राजस्थान, उड़ीसा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों से आत्महत्या के मामले सामने आए हैं। NCF ने प्राथमिकता के आधार पर किसान आत्महत्या की समस्या का समाधान करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है।”5 

भारतीय किसानों (आदिवासी और अन्य वर्गों) की प्रमुख समस्याएँ समान हैं: Major Problems of Indian Farmers 

कहा जाता है कि भारत में कृषि करना मानसून से जुआ खेलने के समान है क्योंकि भारत की अधिकतर कृषि मानसून पर आधारित है और मानसून की अनिश्चितता भारतीय किसानों को अनेक समस्याओं से तथा चुनौतियों से घेर लेती है।

  • भारतीय किसानों के पास कृषि क्षेत्र में निवेश करने हेतु पर्याप्त पूंजी का अभाव है।
  • संस्थागत ऋण सुविधा की स्थिति भयानक रूप से दयनीय है।
  • पिछले कुछ वर्षों में खाद, बीज, कीटनाशक, डीजल जैसी सभी कृषि आगत कारकों की कीमतों में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है।
  • मानसून पर आधारित कृषि के कारण कहीं अतिवृष्टि, कहीं अनावृष्टि, कहीं-कहीं बाढ़, कहीं मृदा अपरदन, कहीं भूस्खलन, तो कहीं पर्यावरण, प्रकृति के प्रदूषण से उत्पन्न नए-नए कट प्रजातियों का फसलों पर आक्रमण।
  • आदिवासी क्षेत्रों में वन्य प्राणियों का आक्रमण।
  • सिंचाई सुविधाओं की कमी है।
  • आधुनिक उपकरणों तथा तकनीकियों का अभाव।
  • अपर्याप्त पोषक तत्वों के कारण फसल की गुणवत्ता एवं उत्पादकता में कमी।

कृषि के विभिन्न संकट पर विचार करते हुए स्वामीनाथन आयोग स्पष्ट करता है कि-

“कृषि संकट के प्रमुख कारण हैं: भूमि सुधार में अधूरा एजेंडा, पानी की मात्रा और गुणवत्ता, प्रौद्योगिकी थकान, संस्थागत ऋण की पहुंच, पर्याप्तता और समयबद्धता, और सुनिश्चित और लाभकारी विपणन के अवसर। प्रतिकूल मौसम संबंधी कारक इन समस्याओं को बढ़ाते हैं। किसानों को बुनियादी संसाधनों पर सुनिश्चित पहुंच और नियंत्रण की आवश्यकता है, जिसमें भूमि, जल, जैव संसाधन, ऋण और बीमा, प्रौद्योगिकी और ज्ञान प्रबंधन और बाजार शामिल हैं।”6  

आदि असंख्य समस्याओं एवं चुनौतियों का सामना करते हुए किसान किसी न किसी तरह फसलों का उत्पादन करता है। जब फसलों उत्पादन हो जाता है फिर एक नई विपणन व्यवस्था की समस्या खड़ी हो जाती है।

मानवाधिकारों का परिचय और ऐतिहासिक संदर्भ आप यहाँ पढ़ सकते हैं

भारतीय कृषि क्षेत्र (ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों) में विपणन व्यवस्था का अभाव: Lack of Marketing System in Indian Agriculture Sector 

विपणन वह व्यवस्था है अथवा प्रक्रिया है, जिसमें देश भर में उत्पादित कृषि उत्पादों का संग्रह, भंडारण, प्रसंस्करण, परिवहन, पैकिंग, वर्गीकरण और वितरण आदि किया जाता है। जिसमें राज्य की प्रधान भूमिका होती है किंतु भारतीय कृषि क्षेत्र में इन सुविधाओं का अभाव है। आदिवासी क्षेत्र में तो यह समस्या और भी गंभीर है।

किसी तरह किसानअपनी फसल को बाजार तक पहुंचता है लेकिन वहाँ भी उनके साथ धोखा होते रहता है। किसानों को बाजार तथा राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय बाजारों में प्रचलित उनके उत्पादन के मूल्य का ज्ञान नहीं होता है। इस सूचना के अभाव का फायदा उठाकर निजी व्यापारियों और दलालों के द्वारा किसानों को विभिन्न तरीकों से लूटा जाता है। 

इस तरह की समस्याएँ समस्त भारतीय किसानों की तो है ही लेकिन आदिवासी समाज इन समस्याओं से और भी गंभीर रूप से घिरा हुआ है। उन्हें भी बाजार भावों का ज्ञान नहीं होता है। अपने कृषि उत्पादन तथा वन उत्पाद तथा हस्तकलाओं की बहुमूल्य वस्तुएँ औने-पौने भाव में बेच दी जाती है। वे हिसाब, गिनती अथवा बाजार की चालाकियों से अवगत नहीं होते हैं। मधुकर सिंह द्वारा रचित ‘बाजत अनहद ढोल’ उपन्यास  का एक पात्र  कहता है कि-

“हमारे लोगों के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि यह गिनती एकदम नहीं जानते। अगर बाट सही-सही उनके पास हैं, तब भी उन्हें ठग लेना बहुत आसान है।”7 

भारतीय किसान की दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसानों के उत्पादन तथा आदिवासियों के कृषि उत्पादन एवं वन उत्पादन की कीमतें हमेशा बाजार भाव से तथा कंपनियों के दामों से कम ही होती है। 

ऐसा इसलिए है क्योंकि किसान अपने उत्पादन की कीमत स्वयं तय नहीं कर पाता। उसे अपने उत्पादन को सरकार द्वारा तय की गई कीमतों अथवा बाजार के दलालों द्वारा तय की गई कीमतों पर अपनी फसल बेचने हेतु मजबूर होना पड़ता है। 

कहना ना होगा कि सरकार की ग्रामीण विपणन व्यवस्था और बाजार नियमन विधियों का भारतीय किसान कुछ हद तक किंचित ही सही लाभ तो उठा पता है किंतु आदिवासी समाज इस प्रकार की व्यवस्था से अछूते ही रहे हैं। 

भारतीय ग्रामीण और आदिवासी बहुल क्षेत्र में न तो बाजार नियमन है और नहीं सड़कों, रेल मार्ग, भंडार गृहों, गोदामों, शीत गृहों और प्रसंस्करण इकाइयों के रूप में भौतिक आधारभूत संरचनाएँ।

यदि इन सारी सुविधाओं की आपूर्ति ग्रामीण किसान समुदाय तथा आदिवासी समुदायों तक कर दी जाए, उचित मूल्य निर्धारण कर दिया जाए तथा किसानों को निवेश हेतु सहायता प्रदान की जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का ही नहीं बल्कि आदिवासी अर्थव्यवस्था का भी सकारात्मक योगदान होगा। 

ग्रामीण समुदायों को वैकल्पिक रोजगार के अवसर प्रदान किया जाना आवश्यक है किंतु यह सब नहीं हो पा रहा है। इन क्षेत्रों में निजी व्यापारियों, बिचौलियों, साहूकारों, ग्रामीण राजनीतिज्ञों का वर्चस्व बना हुआ है और इनके द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से समस्त किसान समुदाय और आदिवासी समुदाय शोषित हैं।

विपणन व्यवस्था की इन सारी कठिनाइयों से गुजरते हुए किसान जब अपनी फसल विक्रय करता है तब उसे उचित कीमत नहीं मिल पाती है।

जो भी कीमत उसे मिलती है, उसमें फसल उत्पादन में जो आगत जैसे बीज, खाद, कीटनाशक, डीजल आदि कारकों पर व्यय किया गया था वह भी निकल नहीं पाता है। ऐसी स्थिति में विचारणीय मुद्दा है कि उसे पूरे वर्ष काम करने की मजदूरी कितनी मिली होगी। साधारण सा उत्तर है केवल मात्र शून्य।

इसलिए स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की आवश्यकता है।

अतः कहना न होगा कि कृषि व्यवसाय के संदर्भ में किसान आंदोलन Kisan Andolan Farmers Movement की माँगें आज प्रासंगिक हैं।

भारतीय किसानों (आदिवासी और अन्य वर्गों) में व्याप्त ऋणग्रस्तता: Indebtedness among Indian Farmers 

ऋणग्रस्तता भारतीय किसानों की प्रमुख समस्या है और आदिवासी समुदाय में यह समस्या और गंभीर रूप से व्याप्त है। इतनी व्याप्त है कि आदिवासी समुदाय की सीमांत आय शून्य हो जाती है। परिणाम स्वरुप कुछ समूह मौसमी बेरोजगार, कुछ समूह अनिश्चित बेरोजगार और कुछ समूह पूर्णतया बेरोजगार होते हैं। 

किसान आत्महत्या के मूल में ऋणग्रस्तता एक प्रमुख कारण है। अपने आय के साधनों का अनिश्चितकालीन समाप्ति के कारण भारतीय किसान ऋण लेता है और एक बार यदि किसान ऋणग्रस्तता में फस जाता है, तो यह चक्र ऐसा घूमता है कि किसानों का उस चक्र से बाहर निकलना असंभव हो जाता है।

ऋणग्रस्तता के इस चक्र का चित्रण प्रभावकारी रूप से हजारीलाल मीणा की लघु कथा ‘विरासत’ में हुआ है-

“कर्जा लेकर क्या करोगे बाबा।

कर्ज चुकाता हूं बाबूजी।

कर जा चुकाता है। फिर हमारी रकम कैसे लौटाओगे?

बाबूजी कर्जा लेकर।

यह कैसे?”8 

यह चक्र ऐसा है कि एक का ऋण चुकाने हेतु दूसरे से ऋण लेना, दूसरे का चुकाने हेतु तीसरे से लेना इस प्रकार सदा चलता रहता है और किसान इस चक्र में हमेशा हमेशा के लिए पिसता रहता है।

जब फसल कटती है तब सारी फसल सेठ साहूकारों का ऋण चुकाने में चट हो जाती है। “टू मन का तीन साल में बारह मन लौटाया जबो से काटिए नरखे, बाकिए है। और मांग करते ग्यारह मन तुम और देओ।”9 

फसल चट हो जाने पर पूरा वर्ष उन्हें या तो कर्ज लेकर जीवन यापन करना पड़ता है और आदिवासी समुदायों को वनोपज पर निर्भर रहना पड़ता है या जीविका की खोज में प्रवास करने को विवश हो जाना पड़ता है।

भारतीय किसानों (आदिवासी और अन्य सभी वर्गों) में ऋण लेने की दो प्रकार की व्यवस्थाएँ हैं: There are two types of Loan taking systems among Farmers 

1. गैर-संस्थागत ऋण व्यवस्था

2. सरकारी उपाय अथवा ऋण का संस्थागत प्रबंध

1. गैर-संस्थागत ऋण व्यवस्था: Non Institutional Loan भारतीय समाज में गैर संस्थागत कर्ज व्यवस्था प्राचीन काल से प्रचलित है। इस व्यवस्था को साहूकार अथवा महाजनी प्रथा भी कहा जाता है। इस व्यवस्था को मोटे तौर पर चार श्रेणियां में विभक्त किया जा सकता है।

कृषक साहूकार या महाजन:

  • कृषक साहूकार अथवा महाजन उन्हें कहते हैं, जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि कार्य होता है परंतु वह धनी होने के कारण कृषि के साथ-साथ व्यवसाय के रूप में धन उधार देने का कार्य करते हैं। यदि इनका कर्ज नहीं चुकाया गया तो वे देनदार किसानों के बैल, बकरी अथवा भैंस जैसे पालतू पशुओं को ले लेते हैं।

व्यावसायिक साहूकार:

  • इसका मुख्य व्यवसाय ही होता है धन उधार देना। इनका कर्ज यदि नहीं चुकाया गया तो वे किसानों के पास जो चल, अचल संपत्ति होती है उसे जप्त कर लेते हैं। इस व्यावसायिक साहूकार ऋण व्यवस्था तले आदिवासी समाज बहुत ही गहरे तल तक दबा हुआ है।
  • “सूदखोर महाजन कर्ज के झूठे सच्चे कागज हिंदू और मुसलमान के नाम से बनाकर रख छोड़ते हैं और झगड़ा करके उसे सच्चे झूठ कर्ज में उन गरीबों के घर का माल असबाब वह गाय, बैल, भैंस, बकरी वगैरा और जो भी सामान होता है। उसे कर्ज में वसूल कर लेते हैं।”10 
  • व्यापारी ठेकेदार:
  • व्यापारी एवं ठेकेदार भी किसानों को अनेक उद्देश्यों से कर्ज देते हैं। यह कर्ज मुख्यतः स्वास्थ्य समस्याओं के समय, प्रसव के समय, अंतिम संस्कार के समय, पर्व-त्यौहार तथा कृषि रोपाई के समय दिया जाता है। क्योंकि किसान के पास फसल वर्ष में केवल एक या दो बार ही आती है। बाकी समय में उनके पास धन नहीं होता है। आदिवासी समुदायों के पास तो इस तरह के भी कोई  आय के साधन नहीं होते हैं।
  • इसलिए ऐसे पर्व-त्यौहार एवं जीवन की समस्याओं के समय इन्हें कर्ज लेना पड़ता है।
  • ठेकेदार इसलिए कर्ज देते हैं क्योंकि उन्हें सस्ते मजदूर की आवश्यकता होती है। 

मित्र एवं रिश्तेदार:

  • भारतीय किसान अपनी समस्याओं तथा संकट के समय अपने मित्र एवं रिश्तेदारों से कर्ज लेते हैं। आदिवासी समाज घने वनों, जंगलों में रहते हैं।  वे शहरी समाज से अथवा आधारभूत अवसंरचनाओं से भी दूर रहते हैं। इसलिए संकट के समय मित्र एवं रिश्तेदारों से कर्ज लेते हैं। मित्र एवं रिश्तेदार यथा संभव उन्हें सहायता करते हैं तथा अपनी क्षमता के अनुसार कर्ज देते हैं। 
  • भगवान दास मोरवाल द्वारा रचित ‘काला पहाड़’ उपन्यास में सालेमी अपने मित्र मनीराम को बीमारी के समय सहायता करता है। 
  • “कुछ पैइसा ले जा। इतना कहते हुए सलेमीन कुर्ते की जेब से 50 का नोट निकाला तथा मनीराम की ओर बढ़ा दिया।”11 

2. सरकारी उपाय अथवा ऋण का संस्थागत प्रबंध: Government measures or Institutional arrangement of Debt  

भारतीय किसानों और अन्य सीमांत समुदायों में व्याप्त गैर-संस्थागत ऋण व्यवस्था से उन्हें बाहर निकालने हेतु सरकार द्वारा संस्थागत प्रबंध किए गए हैं।

वैकल्पिक उपयोग में कृषकों, दलितों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, शोषितों तथा समाज के निम्न वर्गों, कारीगरों, छोटे व्यापारियों और प्राकृतिक उत्पादन संग्रह कर्ताओं को ग्रामीण साहूकारों, महाजनों, ठेकेदारों, भू-स्वामियों के शोषण से मुक्ति दिलाने हेतु, कृषि कार्यकलापों के संचालन हेतु पर्याप्त एवं सस्ती ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध कराने तथा समाज के सीमांत वर्ग के जीवन स्तर को ऊपर उठने के उद्देश्य से देश में सहकारी ऋण संसाधनों का विकास किया गया। 

देश में इन संस्थाओं का त्रिस्तरीय संगठन है। ग्रामीण स्तर पर ‘प्राथमिक सहकारी समितियाँ, जिला स्तर पर ‘सहकारी बैंक’ तथा राज्य स्तर पर ‘राज्य सहकारी बैंक’ कार्य कर रहे हैं। जो अल्पकालिक और मध्यकालीन सुविधा ऋण प्रदान करते हैं।

इसके अलावा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की भी स्थापना की गई है क्योंकि व्यावसायिक बैंकों की नीतियाँ इस प्रकार नहीं बनाई गई थी कि कृषि एवं पिछड़े क्षेत्रों में पर्याप्त ऋण सुविधा उपलब्ध हो सके।

संस्थागत ऋण के प्रकार:

  1. प्रत्यक्ष कृषि ऋण में फसल ऋण, पान-बीड़ी हेतु ऋण, डंगर बाड़ी हेतु ऋण, लघु सिंचाई योजना संबंधी ऋण, भूमि सुधार हेतु ऋण, पशु क्रय हेतु ऋण, गोबर गैस हेतु रन, पशुपालन हेतु ऋण आदि। 
  2. अप्रत्यक्ष कृषि ऋण में ग्रामीण लघु व्यवसाय हेतु ऋण जैसे अनेक प्रकार गिनाए जा सकते हैं।”12 

संस्थागत ऋण व्यवस्था की वास्तविकता: Reality of Institutional Lending System 

उपयुक्त वर्णित सभी ऋण व्यवस्थाओं को पढ़कर मन हर्षित हो जाता है किंतु वास्तविकता ऐसी नहीं है। 

इन नीतियों एवं ऋण व्यवस्थाओं का क्रियान्वयन का सवाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इन नीतियों का क्रियान्वयन कागजों, फाइलों तथा नीति निर्माता के काल्पनिक संसार में ही हो जाता है।

संस्थागत ऋण देने की प्रक्रिया का वास्तविक रूप का उद्घाटन तेजिंदर द्वारा रचित उपन्यास ‘कला पादरी’ में हुआ है। 

“मान लीजिए कि एक किसान जिसके पास डेढ़ एकड़ जमीन है, और वह हमारे बैंक से विश्व बैंक योजना के तहत ऋण लेकर अपने खेत में एक कुआँ खुदवान चाहता है और फिर उस पर डीजल पंप लगवाना चाहता है। तो इसके लिए उसे सबसे पहले कुछ कागज इकट्ठे करने पड़ते हैं। जमीन का नक्शा, खसरा-खतौनी और ऋण पुस्तिका और नोड्यूस सर्टिफिकेट। जमीन का नक्शा, खसरा-खतौनी और ऋण पुस्तिका बनाकर देना पटवारी का काम है और नोड्यूस सर्टिफिकेट का अर्थ है अपने ब्लॉक के सभी बैंकों का एक चक्कर काटना…और कहना कि साहब यह लिखकर दे दो कि हमारे ऊपर आपके बैंक का कोई कर्ज नहीं है और बैंक वाले साहब बड़ी हिकारत के साथ कहे कि आज नहीं कल आना…. आपको एक जगह से ऋण लेना है, आपके पूरे गांव में इस बात का ढिंढोरा पीटना पड़े कि मैं कहीं का देनदार नहीं हूं और नगाड़े की हर आवाज पर मोहर लगाने के लिए आपको अपनी जेब में हाथ डालना पड़े जहाँ सिवाय एक तरह की फफूँद के और कुछ न बच्चा हो। फिर बैंक से जो लंबा चौड़ा आवेदन पत्र मिलता है उसे भी ग्राम सेवक ही भरता है।…नाम, पता, कुल, रकबा, वार्षिक आय, परिवार के सदस्यों की कुल संख्या, परिवार नियोजन के लिए ऑपरेशन करवाया है कि नहीं, फार्म प्लान, कास्त का वर्तमान तरीका और कुआँ खुदवाने और डीजल पंप लगवाने के बाद काश्त के तरीके में परिवर्तन, गारंटी लेने वाले के नाम और पते और अंत में यह शपथ…. मैं बैंक का पूरा पैसा ब्याज निर्धारित समय पर वापस जमा करा दूंगा।…अगर पैसों का दुरुपयोग करता पाया गया तो ए मालिक। बैंक को पूरा हक बनता है कि वह मेरी जमीन और डीजल पंप को कुर्क कर दें और मेरे कुए को वापस मिट्टी और पत्थरों से पाट दे। हस्ताक्षर।”13  

अतः कहना ना होगा कि भारत में किसानों तथा सीमांत वर्गों के संदर्भ में संस्थागत ऋण व्यवस्था में ऐसी-ऐसी कमियाँ है जिसके कारण इन प्रयासों का वास्तविक लाभ लक्षित समुदाय तक पहुँच नहीं पाता है। 

ये सारी नीतियाँ सरकारों को अपने भाषणों, एवं नीति पत्रों में दिखाने के लिए होती है।

Kisan andolan

भारतीय कृषि क्षेत्र को विकसित करने हेतु सरकार द्वारा अपनाई गयी नीतियाँ: Policies adopted by Government to Develop the Indian Agriculture sector 

भारतीय किसानों का जीवन स्तर ऊपर उठाने हेतु अनेक सरकारों ने अनेक दावे किये लेकिन सारे दावे खोखले एवं हवा-हवाई रहे हैं।

विभिन्न अयोगों द्वारा विभिन्न प्रकार की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई हैं। लेकिन उन अनुशंसाओं को धरातल पर लागू नहीं किया गया है। इन रिपोर्ट्स में स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट्स सर्वाधिक महत्वपूर्ण।

“एनसीएफ अनुशंसा करता है कि “कृषि” को संविधान की समवर्ती सूची में डाला जाए। 

कृषि में उत्पादकता में उच्च वृद्धि हासिल करने के लिए, एनसीएफ सिफारिश करता है: 

कृषि संबंधी बुनियादी ढाँचे विशेषकर सिंचाई, जल निकासी, भूमि विकास, जल संरक्षण, अनुसंधान विकास और सड़क कनेक्टिविटी आदि में सार्वजनिक निवेश में पर्याप्त वृद्धि। 

सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का पता लगाने की सुविधाओं से युक्त उन्नत मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं का एक राष्ट्रीय नेटवर्क। संरक्षण खेती को बढ़ावा देना, जिससे किसान परिवारों को मिट्टी के स्वास्थ्य, पानी की मात्रा और गुणवत्ता तथा जैव विविधता के संरक्षण और सुधार में मदद मिलेगी।”14 

सरकार इस रिपोर्ट को लागू करने के स्थान पर बड़े-बड़े दावे ठोकती रही है। 2022 तक किसानों की आय दुगनी करने का एक मजेदार दावा था।

सरकार द्वारा किसानों की आय बढ़ाने हेतु सात सूत्रीय कार्यक्रम अपनाया गया।

सरकार का साथ सूत्रीय कार्यक्रम: 

किसने की आय दुगनी हेतु सात सूत्रीय कार्यक्रम-

  1. प्रति बूँद अधिक फसल
  2. उच्च गुणवत्ता वाले बीज का प्रयोग
  3. गोदाम कोल्ड स्टोरेज का निर्माण
  4. खाद्य प्रसंस्करण के माध्यम से मूल्यवर्धन को बढ़ावा देना
  5. उपज के सही कीमत हेतु राष्ट्रीय कृषि बाजार के निर्माण पर बल
  6. सूखा, अग्नि, चक्रवात, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओला जैसी आपदाओं के लिए फसल बीमा 
  7. विभिन्न योजनाओं के माध्यम से डेयरी, पशुपालन, मधुमक्खी पालन, पोल्ट्री, मत्स्य पालन, आदि कृषि सहायक क्षेत्र का विकास पर बल
  • भारतीय किसान सम्मान निधि योजना, किसान क्रेडिट कार्ड, किसान कॉल सेंटर जैसे कई प्रयास किए गए हैं किंतु इन प्रयासों का तथा साथ सूत्रीय कार्यक्रम का लाभ किसानों तक उस स्तर पर नहीं पहुँच पाया जिस स्तर पर सरकार द्वारा कल्पना की गई थी। यदि सात सूत्रीय कार्यक्रम सफल होता और एम.एस.पी. कानून लागू कर दिया जाता तो आज किसान सड़क पर नहीं होते। 

किसान आंदोलन (आदिवासी और अन्य वर्गों) के समक्ष चुनौतियाँ: Challenges before Farmers Movement 

  • किसानों Kisan Andolan की सभी मांगे व्यावहारिक एवं उचित होने के बावजूद सरकार का रवैया किसानों के प्रति ठीक नहीं रहा है। सरकार किसान आंदोलन Kisan Andolan को दबाने हेतु दृढ़ता से पेश आ रही है। किसान आंदोलन Kisan Andolan की आवाज को दबाने हेतु विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।
  • कृषक संगठनों के नेताओं को राजनीतिक लोभ दिखाकर संयुक्त मोर्चा को Kisan Andolan कमजोर करने के प्रयास किए जा सकते हैं।
  • विभिन्न मांगों को सम्मिलित करके मुख्य मांग जो MSP कानून लागू कराने की है वही धूमिल पड़ जाने की संभावना।
  • विभिन्न प्रकार के समुदायों जैसे दलित, आदिवासी, महिला, अल्पसंख्यक आदि जो किसान है, इन सबको एक मंच पर लाना और साथ लेकर आगे बढ़ना।
  • आदि अनेक प्रकार की समस्याएं एवं चुनौतियां आज किसान आंदोलन Kisan Andolan के समक्ष खड़ी हैं।

किसान आंदोलन Kisan Andolan (आदिवासी और अन्य वर्गों) के समक्ष खड़ी चुनौतियों का समाधान: Solutions to the Challenges facing the Farmers Movement

  • आंदोलन को सुदृढ़ बनाने हेतु तथा सरकार तक अपनी आवाज पहुँचाने हेतु आदिवासी समुदायों और अन्य हितधारकों को किसान आंदोलन Kisan Andolan का समर्थन करने और सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता है।
  • जब-जब आदिवासी समुदाय अपनी मांग हेतु आंदोलन करते हैं तब-तब भारत के अन्य किसान भाई आदिवासी समुदायों का समर्थन करें।
  • आंदोलन की प्रमुख मांगों में आदिवासी समुदाय की प्रमुख समस्याओं को भी शामिल किया जाना चाहिए।

कहना न होगा की एकता, संगठन और संघर्ष लोकतंत्र में सामाजिक, आर्थिक विकास के मूल मंत्र हैं।

निष्कर्ष: Conclusion  

किसान आंदोलन Kisan Andolan और आदिवासी समुदायों के कृषि व्यवसाय के संदर्भ में समान हित निहित हैं। आदिवासी समुदायों की समस्याएँ कुछ और भी हैं। जैसे भूमि अधिग्रहण, विस्थापन, वन्य अधिकार आदि। फिर भी कृषि व्यवसाय के संदर्भ में एम.एस.पी. महंगाई, बेरोजगारी, ऋण व्यवस्था, बुनियादी कृषि अवसंरचना जैसी समस्याएँ सभी भारतीय किसानों की समान हैं।

अतः इन समान हितों के आधार पर आज Kisan Andolan के लिए संगठित होने की आवश्यकता है। अर्थात भारतीय किसानों को समृद्ध बनाने हेतु सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को सौ प्रतिशत व्यावहारिक रूप में लागू करवाना तथा वर्तमान राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के मानदंडों के अनुरूप एम.एस.पी. व्यवस्था की गारंटी प्राप्त करना। आदि प्रमुख ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।

भारत में मानवाधिकारों की ऐतिहासिक और वर्तमान स्थिति को आप यहाँ पढ़ सकते हैं

संदर्भ ग्रंथ:

  1. हिंद स्वराज 1908, संचार सौरभ पत्रिका, अगस्त 2018, पृष्ठ-25  https://rajbhasha.gov.in 
  2. महुआ माजी, मरंग गोडा नीलकंठ हुआ, रामकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्र.सं.2012 पृष्ठ-66
  3. नदीम हसनैन, जनजातीय भारत, जवाहर पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रिब्यूटर्स, दिल्ली, प्र.सं. 2006 पृष्ठ-163 
  4. संचार सौरभ पत्रिका, अगस्त 2018, पृष्ठ-25  https://rajbhasha.gov.in 
  5. स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट  https://agriwelfare.gov.in
  6. स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट  https://agriwelfare.gov.in
  7. मधुकर सिंह, बाजत अनहद ढोल, वाणी प्रकाशन दिल्ली, प्र.सं. 2005, पृष्ठ- 70 
  8. सं. रमणिका गुप्ता, आदिवासी स्वर और नई शताब्दी, वाणी प्रकाशन दिल्ली प्र.सं. 2005 पृष्ठ- 184
  9. मनमोहन पाठक, गगन घटा घहरानी, प्रकाशन संस्थान दिल्ली, प्र.सं. 1091, पृष्ठ 4 
  10. हरिराम मीणा, धूणी तपे तीर, साहित्य उपक्रम दिल्ली, प्र.सं. 2008, पृष्ठ-107
  11. भगवानदास मोरवाल, काला पहाड़, राधाकृष्णन पेपरबैग्स दिल्ली प्र.सं.1099, पृष्ठ-366
  12. कुरुक्षेत्र पत्रिका, जून 2011, पृष्ठ-11-13
  13. तेजिंदर, काला पादरी, नेशनल पब्लिकेशन हाउस दिल्ली, प्र.सं. 2002, पृष्ठ-12
  14. स्वामीनाथन आयोग रिपोर्ट  https://agriwelfare.gov.in

 

 

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