आज हर कोई व्यक्ति 21वीं सदी 21vi sadi ke teen bhayanak sankat में और कमाने और कमाने के चक्र में फँसा हुआ है लेकिन यह नहीं सोच रहा है कि जब धरती की जलवायु ही अनुकूल न रही तो कमाकर भी क्या करोगे जब आपके जीवन के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो जाएगा।
आलेख का सार:
मित्रों यदि आप गूगल सर्च इंजन में देखेंगे कि लोग 21vi sadi के संदर्भ में क्या खोज रहे हैं, तो आप पाएंगे कि लोग 21वीं सदी का व्यापार क्या है? 21वीं सदी का ट्रेंड क्या है? 21वीं सदी का फैशन क्या है? 21वीं सदी में अधिक से अधिक धन कैसे कमाया जाए? आदि विषय पर जानकारी खोज रहें हैं किंतु विडंबना यह है कि कोई यह नहीं खोज रहा है कि 21वीं सदी की सबसे बड़ी पर्यावरण समस्याएँ क्या हैं? पृथ्वी के सामने कौन-सी चुनौतियाँ हैं? ये सवाल बहुत कम लोगों के विचार में आते हैं। इन सवालों के जवाब भी अधिकांश लोग खोज नहीं रहें हैं किंतु यह प्रश्न आज न केवल भारत बल्कि समस्त विश्व के सामने भयानक रूप लेकर खड़ा है। ऐसे ही अति महत्वपूर्ण और प्रासंगिक तीन संकट पर इस आलेख में विचार किया गया है।
परिचय: 21vi sadi ke teen bhayanak sankat
आज हम 21वीं सदी के तीसरे दशक में खड़े हैं और कुछ विद्वान, बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक और पर्यावरणविद यह सोच रहे हैं कि यह 21वीं सदी बेहतर होगी, सुख सुविधाएँ, सुरक्षा और संतोष का उच्च स्तर लेकर आएगी किंतु कुछ बुद्धिजीवी यह भी कह रहे हैं कि 20वीं सदी की दुःखद यादें युद्ध, भुखमरी, गरीबी, कुपोषण और असमानता की तुलना में 21वीं सदी में और भी विकट भयंकर समस्याएं उत्पन्न होगी। अधिकांश पर्यावरणविद यह कह रहे हैं कि पृथ्वी के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा। इस सदी के तीन भयानक चुनौतियों 21vi sadi ke teen bhayanak sankat पर इस आलेख में विचार किया गया है।
- धरती गर्म हो रही है।
- प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं।
- धरती बंजर हो रही है।
ये तीनों प्रश्न इतने प्रासंगिक है कि आज समस्त वैश्विक समुदाय को इन पर विचार विमर्श करने की आवश्यकता है किंतु हम देख रहे हैं कि इन पर्यावरणीय समस्याओं पर केवल संवेदना व्यक्त कर दी जाती है और सरकारों द्वारा दिखावा कर दिया जाता है तथा राजनीतिज्ञ द्वारा गाल बजा दिया जाता है।
आप यहाँ मैंग्रोव वन के संदर्भ में पढ़ सकते हैं
आलेख का उद्देश्य:
- पाठकों को वर्तमान पर्यावरणीय चुनौतियों से अवगत कराना।
- जो जलवायु चुनौतियों को जानते हैं, उन्हें पन: याद दिलाना कि कुछ करने का समय है।
- जलवायु परिवर्तन की स्थिति की जानकारी देना और इन चुनौतियों के संभावित परिणामों से अवगत कराना।
- पर्यावरण के संदर्भ में पाठकों की चेतना को सकारात्मक रूप में प्रभावित करना।
21वीं सदी में और गरम हो रही है धरती:
यह तथ्य तो प्रमाणिक है कि पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। सन 1995 में विभिन्न देश के करीब 2500 वैज्ञानिकों ने यह पता लगाया कि धरती का ताप 0.3 से 0.6 अंश तक बढ़ चुका है। परिणामत: समुद्र का जलस्तर 10 से 25 सेंटीमीटर की वृद्धि हो चुकी है और यह भी सत्य है कि 21वीं सदी के प्रथम दो दशकों में अधिकांश वर्ष गरम रहे हैं। धरती के बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन को लेकर हाल ही में 2024 की रिपोर्ट्स और सम्मेलनों से ज्ञात होता है कि धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। IPCC की रिपोर्ट के अनुसार “यदि वर्तमान परिस्थितियाँ बनी रहती हैं, तो ग्लोबल तापमान 1.5°C तक 2021-2040 के बीच पहुँच सकता है। उच्च उत्सर्जन परिदृश्य में यह सीमा 2037 से पहले ही पार हो सकती है। 2100 तक यह वृद्धि 3.3°C से 5.7°C तक पहुँच सकती है”1 धरती के तापमान वृद्धि का परिणाम यह हुआ है कि आज पृथ्वी की समग्र जलवायु नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रही है जो भविष्य के लिए चिंता का विषय है। पार्थिव ऊष्मन के कुछ प्रभाव को हम अभी भी ठीक कर सकते हैं यदि समग्र विश्व समुदाय इस पर गंभीर रूप से कार्य करे तो किंतु कुछ प्रभाव ऐसी स्थिति में पहुँच चुके है जिसे अब मानव समुदाय रोक नहीं सकता जैसे हिमावरण का पिघलने। IPCC की रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल वार्मिग के व्यापक प्रभाव पड़ रहे हैं जैसे “समुद्री जल स्तर में वृद्धि, ग्लेशियरों का पिघलना, और जैव विविधता का नुकसान अब ऐसे चरण पर पहुँच गया है जहाँ कुछ प्रभाव अपरिवर्तनीय हैं।”2
अब कहना न होगा कि इस सामान्य ताप परिवर्तन से पृथ्वी पर वर्षा का स्वरूप और प्रक्रिया बदल जाती है और कहीं सूखा तो कहीं अधिक वर्षा, कहीं बाढ़ तो कहीं भूस्खलन आदि प्राकृतिक आपदाएँ बारंबार आती रहती हैं।
हाल की कुछ रिपोर्ट कहती हैं कि वर्षा की घटनाओं में तीव्र हुई है scroll.in पर प्रकाशित रिपोर्ट में भारत के वर्षा स्वरूप के संदर्भ में बताया गया कि “2024 का मानसून सत्र पिछले पांच वर्षों में सबसे अधिक अत्यधिक वर्षा घटनाओं वाला रहा। इस दौरान 2,600 से अधिक “अत्यधिक भारी वर्षा” (204 मिमी से अधिक) और 470 से अधिक “बहुत भारी वर्षा” (115-204 मिमी) घटनाएं दर्ज की गईं।”3
कम समय में अत्यधिक वर्षा होना बाढ़ का कारण बनती है जो हाल के वर्षों में देखा गया है। कहना न होगा कि भारतीय मानसून का स्वरूप ही बदल गया है। जहाँ वर्षा कम होती थी वहाँ अधिक और जहाँ अधिक वर्षा होती थी वहाँ आज कम वर्षा हो रही है। यह परिवर्तन आनेवाले समय में व्यापक बदलाव ला सकता है जो सकारात्मक कम और नकारात्मक अधिक होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि “कुछ क्षेत्रों में “अत्यधिक बारिश” तो अन्य जगहों पर सूखे जैसी स्थिति देखी गई। उदाहरण के लिए, 158 जिलों में अधिक वर्षा हुई जबकि 167 जिलों में बारिश की कमी रही ।”4
पृथ्वी के गर्म होने का बहुत ही ठोस प्रमाण यह है कि हिमनदियों का पिघलना। इस तथ्य को देखकर वैज्ञानिक चिंतित हैं कि पिछले 100 वर्षों की अवधि में दुनिया के सभी हिमनदों का आकार पिघलने से घट गया है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सी हसनैन के अनुसार हिंदूकुश हिमालय के हिमनद भूमंडलीय ताप वृद्धि के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। यही कारण है कि इतने सामान्य तापमान वृद्धि के बावजूद गंगोत्री ग्लेशियर 80 किलोमीटर तक सिकुड़ गया है। छोटे-छोटे हिमनद जैसे पिंडारी, दुकरियानी आदि तो एकदम समाप्त हो चुके हैं। हिमालय के किन्नौर जिले में नारदू हिमनद अब मात्र 2 किलोमीटर लंबा रह गया है।
NASA की एक रिपोर्ट में भविष्य के अनुमानों का आकलन करते हुए कहा गया कि “ETH ज्यूरिख और अन्य संस्थानों द्वारा किए गए अध्ययन में 200,000 से अधिक ग्लेशियरों के लिए प्रक्षेपण किया गया। यदि वैश्विक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रहती है, तो ग्लेशियरों का 40% तक द्रव्यमान 2100 तक खत्म हो सकता है। उच्च उत्सर्जन के परिदृश्य में यह नुकसान 54% तक बढ़ सकता है। यह मुख्य रूप से यूरोपीय आल्प्स और अन्य पर्वतीय क्षेत्रों को प्रभावित करेगा।” 5
भारत भी इस संकट से घिरा हुआ है। हालिया रिपोर्ट कहती हैं कि “हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों में 2011 से 2024 के बीच झीलों का आकार 33.7% तक बढ़ा है। उत्तराखंड, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, और अरुणाचल प्रदेश में ग्लेशियर झीलों का क्षेत्र 40% तक बढ़ गया है, जिससे ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (GLOF) का खतरा बढ़ गया है। अगर ये झीलें फटती हैं, तो निचले इलाकों में बड़ी तबाही मच सकती है।”6
कुछ अध्ययनों से यह भी ज्ञात हुआ है कि कुछ हिमनदों के सिकुड़ने की दर प्रतिवर्ष 40 किलोमीटर तक है। हिंदूकुश हिमालय के मध्य एशियाई भाग में 77000 वर्ग किलोमीटर, भारतीय भाग में 40000 वर्ग किलोमीटर, नेपाल के क्षेत्र में 7500 वर्ग किलोमीटर और चीन में 56000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र सदा बर्फ से आच्छादित रहता है, जो दूर-दूर तक एक तिहाई विश्व के मौसम को प्रभावित करता है और यह एक निर्णायक तत्व भी है।
सवाल यह है कि क्या आधुनिक मानव को इन हिमनद क्षेत्र को समाप्त करने का अधिकार है? वैज्ञानिकों का मानना है कि यह हिमनद आज का नहीं बल्कि 10000 वर्ष पूर्व पृथ्वी पर आए मिनी अइस एज (लघु हिम युग) की देन है। यदि यह बर्फ की चादर एक बार लुप्त हो गई, तो इसे पुनः प्राप्त करना आधुनिक मानव की शक्ति के बाहर है।
इन हिमनदों को बचाने के संदर्भ में विश्व समुदाय क्या कर रहा है? यह भी एक विचारणीय तथ्य है। भारत की जीवन रेखा गंगा नदी का 60-70% पानी ‘गंगोत्री’ हिमनद से प्राप्त होता है। यही नहीं हिंदूकुश के हिमनदों से समीपवर्ती पांच देशों की कुल एक अरब आबादी यही से स्वच्छ जल प्राप्त करती है।
कहना न होगा कि यदि यही स्थिति चलती रही, तो 2050 तक सभी हिमनद पूरी तरह से पिघल चुके होंगे। तब दक्षिण व मध्य एशिया के विशाल भूभाग में नदियों के सूख जाने की भयानक स्थिति हमारे समक्ष खड़ी हो जाएगी। तब हम क्या करेंगे? कहाँ से बर्फ फिर से हिंदूकुश पर बिछाएंगे? क्या आज का मानव इस समस्या पर कुछ सोच रहा है? उत्तर है नहीं।
हिमनदों के पिघलने से मौसम के स्वरूप में परिवर्तन होता है, साथ ही साथ समुद्र के समीपवर्ती क्षेत्र एवं द्वीपीय देशों के समक्ष एक भयावह संकट खड़ा हो गया है क्योंकि हिमनद पिघलने से समुद्र जलस्तर में वृद्धि हो रही है और तटवर्ती क्षेत्र तथा द्वीपीय देश नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि “ग्लेशियर पिघलने के कारण समुद्र का स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है, जिससे द्वीप और तटीय क्षेत्र प्रभावित हो सकते हैं। साथ ही, ग्लेशियरों पर निर्भर जल स्रोतों में दीर्घकालिक कमी आ सकती है, जिससे अरबों लोग प्रभावित होंगे।”7
वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि समुद्र का जलस्तर एक मीटर भी बढ़ जाता है, तो उससे जापान का वह तटवर्ती क्षेत्र पूरी तरह से डूब जाएगा, जहाँ आज जापान के 50% उद्योग अवस्थित हैं। विश्व की दो तिहाई आबादी समुद्र तट के 60 किलोमीटर की सीमा में रहती है। इन क्षेत्रों की जनसंख्या में भी तेजी से वृद्धि हो रही है, ऐसी स्थिति में समुद्री तट जल में डूब जाने का वास्तविक अर्थ क्या है? यह समझाने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। अतः पृथ्वी के ताप में वृद्धि को रोकने हेतु एक संगठित प्रयास करने की आवश्यकता है।
आज यह तथ्य भी सिद्ध हो गया है कि पृथ्वी का तापमान वृद्धि और वायुमंडल में हरित गैसें की बढ़ती मात्रा में सीधा संबंध है। इस दिशा में दिसंबर 1997 में ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ जापान में जलवायु संधि की जा चुकी है और इस पर विश्व के अधिकांश देश हस्ताक्षर भी कर चुके हैं। इस संधि के तहत 2008 से 2012 की अवधि तक तीन प्रमुख हरित गैसों कार्बन डाइऑक्साइड, मेथेन और नाइट्रस ऑक्साइड को 1990 के उत्सर्जन स्तर से 5% की औसत कमी लाने का प्रावधान था।
पृथ्वी पर लुप्त हो रही हैं असंख्य प्रजातियाँ:
पृथ्वी के पर्यावरण पर पड़ रहे उपभोक्तावादी, भोगवादी संस्कृति के दबाव के कारण आज पृथ्वी की अधिकांश प्रजातियाँ या तो लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने के कगार पर हैं।
पुरानी प्रजातियाँ समाप्त होती है और नई प्रजातियाँ सामने आती है। यह एक प्राकृतिक रूप से चलने वाली प्रक्रिया है पर आज ऐसा नहीं है क्योंकि आज मानव के उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के कारण प्रजातियों के लुप्त होने की दर तेजी से बढ़ रही है।
1995 में ग्लोबल एनवायरमेंट फैसिलिटी की ओर से कराए गए अध्ययन ग्लोबल बायोडायवर्सिटी असेसमेंट के अनुसार प्रजाति लुप्त होने की दर अब प्राकृतिक दर से 50 से 100 गुना तक बढ़ गई है। और इसके प्रमुख कारण हैं, बढ़ती जनसंख्या के लिए आवास, परिवहन, फ़ैक्ट्रियाँ, फसल मुहैया कराने के चक्कर में तमाम तरह की प्रजातियों के प्राकृतिक आवास को नष्ट करते जाना। “हालिया कई रिपोर्ट कहती हैं कि “वर्तमान में लगभग 10 लाख प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। भूमि उपयोग, वनों की कटाई, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन इसके प्रमुख कारण हैं। भूमि आधारित पर्यावरण का 75% और समुद्री पर्यावरण का दो-तिहाई हिस्सा मानव हस्तक्षेप के कारण प्रभावित हुआ है ।”8
अधिक फसल उत्पादन की मांग के कारण कुछ विशेष बहु उत्पादन देने वाली प्रजातियों की ही कृषि की जा रही है। फिर अन्य प्रजातियों का क्या हाल होगा? इसका परिणाम यह हुआ है कि अन्य तमाम प्रजातियों को हम अपनी भोगवादी मानसिकता के कारण खत्म कर रहे हैं। यदि भारत के बारे में कहा जाए तो 2005 तक यहाँ तीन चौथाई चावल सिर्फ 10 प्रजातियों से उपजाया जाने लगा जबकि यहाँ के विस्तृत भूभाग में 30000 प्रजातियाँ मौजूद रही हैं। इसी तरह इंडोनेशिया में 1975-90 के मध्य ही चावल की 1500 प्रजातियाँ समाप्त हो गई हैं।
स्थलीय और जलीय प्रजातियों की स्थिति भी सोचनीय है। प्रजाति विलुप्तीकरण आज विश्व में व्यापक रूप धारण कर चुका है। लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट 2024 के अनुसार “1970 से 2020 तक वैश्विक वन्यजीव आबादी में औसतन 73% की गिरावट आई है। यह गिरावट मुख्यतः प्राकृतिक आवासों की हानि, अत्यधिक शोषण, जलवायु परिवर्तन और आक्रामक प्रजातियों के कारण हुई है। सबसे अधिक गिरावट ताजे पानी की प्रजातियों में (85%) दर्ज की गई है, इसके बाद स्थलीय (69%) और समुद्री प्रजातियों (56%) का स्थान है। क्षेत्रीय दृष्टि से, लैटिन अमेरिका और कैरिबियन में 95% की गिरावट सबसे गंभीर है।”9 विद्वानों का मानना है कि प्रजाति विलुप्तीकरण की यही दर लगातार जारी रही तो आनेवालासंभावित परिणाम भयानक होगा जो वैश्विक खाद्य सुरक्षा और जलवायु में व्यापक परिवर्तन लाएगा। रिपोर्ट कहती है कि “अमेज़न वर्षावन और प्रवाल भित्तियों (कोरल रीफ) जैसे पर्यावरणीय तंत्र महत्वपूर्ण “टिपिंग पॉइंट्स” के करीब पहुंच रहे हैं। अगर यह सीमाएं पार हो जाती हैं, तो पर्यावरणीय संतुलन में स्थायी बदलाव हो सकते हैं, जिनका प्रभाव खाद्य सुरक्षा और वैश्विक जलवायु पर पड़ेगा।”10
कहना न होगा कि किसी प्रजाति का विकास विशिष्ट स्थिति की देन होती है और हर प्रजाति की अपनी कुछ विशेषताएं होती हैं जो अमूल्य होती हैं। कोई विशिष्ट प्रजाति अक्षम हो जाती है तो अन्य प्रजातियों के वंश सूत्रों अर्थात जिन का इस्तेमाल करके उस प्रजाति को पुनः सक्षम बनाने की जैव प्रौद्योगिकी का विकास कर लिया गया है लेकिन क्या यह उपाय पर्याप्त है? यह एक सवाल है क्योंकि इसके लिए आवश्यक कच्चे माल जैव-विविधता, विविध किस्म की जीन हमें कहाँ से उपलब्ध होंगी?
सन 1992 में पृथ्वी की जैव विविधता की रक्षा के लिए एक संधि की गई है। इस संधि पर विश्व के अधिकांश देश अनुमोदन कर चुके हैं और सैद्धांतिक तौर पर इसे अपने राष्ट्रीय कार्यक्रम का महत्वपूर्ण अंग बनाया है। फलत: कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं जैसे कि रिपोर्ट में कहा गया है “जैसे कि पूर्वी अफ्रीका के विरुंगा पर्वतों में पर्वतीय गोरिल्ला की आबादी में वृद्धि और मध्य यूरोप में बाइसन की संख्या में सुधार।”11 किंतु यह सुधार पर्याप्त नहीं है। हमें अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों को तेज और प्रभावी बनाने की आवश्यकता है। जिसके लिए ठोस नीतियों व निवेश को बढ़ावा देना होगा ताकि जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन के संकटों को हल किया जा सके।
21vi sadi में धरती हो रही है बंजर:
21वीं सदी में और एक भयानक संकट हमारे समक्ष खड़ा हो गया है कि कृषि योग्य भूमि तेजी से सिकुड़ती जा रही है। भूमिक्षरण के आंकड़े बताते हैं कि कृषि योग्य भूमि का 16% भूमि परती अथवा बंजर हो चुकी है। और प्रतिवर्ष 50 से 60 लाख हेक्टर कृषि भूमि बंजर होती जा रही है। कृषि योग्य भूमि कहीं जल भराव, तो कहीं लवणीकरण के कारण कम होती जा रही है।
कृषि योग्य उपजाऊ भूमि का रेगिस्तान में बदलते की स्थिति अफ्रीका एशिया लैटिन अमेरिकी देशों में प्रमुख समस्या बन गई है। अफ्रीका के तो 36 देश पहले से ही सूखे और रेगिस्तान से त्रस्त हैं। वर्तमान भूमि क्षरण का लगभग 20% तो हरित क्रांति के बाद पिछले 10 सालों में हुआ है। एक रिपोर्टों के अनुसार भारत में “लगभग 32% भूमि किसी न किसी रूप में अवक्रमित (degraded) हो चुकी है। इसके प्रमुख कारणों में हवा और पानी के कटाव, शहरीकरण, खनन, तथा जलभराव और खारापन वृद्धि शामिल हैं।”12
एशिया में 18% जमीन रेगिस्तान में परिवर्तित हो चुकी है। इनमें से एक चौथाई जमीन तो गलत तरीकों से की जा रही कृषि क्रियाओं के कारण हुई है। यूरोप की भी एक तिहाई जमीन में रेगिस्तान का विकास हो चुका है।
अब सोचिए कि एक और बढ़ती जनसंख्या के कारण अधिक खाद्यान्न की आवश्यकता है और दूसरी ओर कृषि योग्य भूमि रेगिस्तान में परिवर्तित हो रही है क्या यह छोटा संकट है?
कहना न होगा कि कृषि के क्षेत्र में जितनी भी वैज्ञानिक शोध हुए हैं, दुर्भाग्य से वे सारे शोध संधारणीय उत्पादन का भरोसा नहीं देते हैं। जिन विधियों का शोध हुआ है, उन कृषि विधियों को अपनाने पश्चात कुछ समय बाद वे ही विधियाँ अधिक निवेश की मांग करने लगती हैं और कम उत्पादन प्रदान करने लगती हैं।
अधिक उत्पादन की आवश्यकता अधिक जनसंख्या से जुड़ा हुआ महान संकट है। सन 1804 में जो विश्व आबादी एक अरब मात्र थी, वह 1998 में 6 अरब हो गई और अगले 50 वर्षों में यह 10 अरब से ऊपर होने जा रही है।
इतनी बड़ी जनसंख्या को खिलाने के लिए कहाँ से आएगी उपजाऊ कृषि? भूमि कहाँ से प्राप्त करेंगे हम? कृषि के लिए पर्याप्त जल और कैसे बची रह पाएगी कृषि योग्य जलवायु?
आदि विभिन्न चुनौतियाँ और भयानक संकट आज हमारे समक्ष खड़े हैं किंतु हम इन संकट के संदर्भ में सोचना ही नहीं चाहते हैं क्योंकि हम उपभोक्तावादी बन गए हैं। हमें बस केवल संसाधनों की लूट करनी है। धन कमाना है और पृथ्वी का भोग करना है। इसी पर हमारी बुद्धि घूम रही है किंतु जब पृथ्वी ही नहीं रहेगी, पृथ्वी पर कृषि योग्य भूमि ही नहीं रहेगी तो मानव खाएगा क्या और जिंदा कैसा रहेगा। इस पर आज कोई सरकार गंभीर रूप से विचार नहीं कर रही है।
निष्कर्ष:
21vi sadi ke teen bhayanak sankat कहना न होगा कि 21वीं सदी 21vi sadi में विश्व समुदाय ऐसी-ऐसी भयानक चुनौतियों के मुहाने खड़ा है, जिनका सामना इतिहास में मानव सभ्यता ने कभी नहीं किया था। आज हमारे समक्ष ग्लोबल वार्मिंग के फलस्वरूप उपजी अनेक चुनौतियाँ हैं। हिमनद पिघल रहे हैं जिनसे समुद्री जल स्तर में वृद्धि हो रही है। तटीय समुदायों पर संकट मंडरा रहा है और द्वीपीय देश डूबने के संभावित संकट से चिंतित हैं। आज विश्व की असंख्य प्रजातियों का विलुप्तीकरण भविष्य में व्यापक संकट खड़ा कर सकता है। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप वर्षा स्वरूप में परिवर्तन के कारण उपजाऊ भूमि को रेगिस्तान में परिवर्तित हो रही है। जो विश्व समुदाय के समक्ष खाद्य सुरक्षा का अक्षय संकट खड़ा कर सकता है। अत: हमें सतत् कृषि तंत्र आधारित अनुकूलन और स्वच्छ ऊर्जा की और तेज़ी से बढ़ने की आवश्यकता है। इसके लिए अंतराष्ट्रीय सहयोग, पर्याप्त वित्तीय सहायता और विश्व समुदाय की ईमानदारी पूर्ण प्रयासों की आवश्यकता है।
संदर्भ:
- https://www.ipcc.ch/synthesis-report/
- https://www.ipcc.ch/synthesis-report/
- https://scroll.in/latest/1074661/2024-monsoon-saw-highest-number-of-heavy-rainfall-events-in-five-years-says-report
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- https://www.nasa.gov/science-research/earth-science/nasa-funded-study-half-of-glaciers-vanish-with-1-5-degrees-of-warming/
- https://www.abplive.com/states/up-uk/danger-of-glacier-lakes-increases-in-five-states-including-uttarakhand-size-increased-by-40-percent-ann-2817002
- https://www.nasa.gov/science-research/earth-science/nasa-funded-study-half-of-glaciers-vanish-with-1-5-degrees-of-warming/
- https://hindi.downtoearth.org.in/wildlife-biodiversity/global-ecosystem-assessment-report-released-64351
- https://www.worldwildlife.org/blogs/nature-breaking/posts/living-planet-report-reveals-catastrophic-wildlife-decline
- https://www.worldwildlife.org/blogs/nature-breaking/posts/living-planet-report-reveals-catastrophic-https://www.worldwildlife.org/blogs/nature-breaking/posts/living-planet-report-reveals-catastrophic-wildlife-decline
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- https://www.livehindustan.com/national/story-32-percent-india-s-land-is-degraded-2739969.html