आदिवासी समुदायों के संदर्भ में Manav Adhikar kya hai? भाग-3 स्वतंत्रता का अधिकार और आदिवासी समुदाय:

आदिवासी समुदायों के संदर्भ में Manav Adhikar kya hai मानवाधिकार क्या है? हम इस विषय पर इसके पहले दो भाग प्रकाशित कर चुके हैं। यह उसी विषय पर तीसरा भाग है। पहले दो भागों में हमने भोजन के अधिकार, स्वास्थ्य जीवन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, निजता का अधिकार और समानता के अधिकार पर विस्तार से प्रकाश डालने का प्रयास किया है। इस तीसरे भाग में स्वतंत्रता का अधिकार और आदिवासी समुदाय विषय पर विचार किया गया है।

1. Manav Adhikar kya hai स्वतंत्रता के अधिकार का परिचय:

स्वतंत्रता का अधिकार वह अधिकार है, जो मानव को अपने अन्य अधिकारों को प्राप्त करने तथा अपने अधिकारों के अनुसार जीवन जीने का अवसर प्रदान करता है। यह अधिकार व्यक्ति के सर्वांगीण विकास हेतु आवश्यक है। स्वतंत्रता का अधिकार ही हमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, बौद्धिक तथा सांस्कृतिक विकास करने और अपनी पहचान को विश्व समुदायों के समक्ष रखने का अवसर प्रदान करता है।
इस अधिकार का इतिहास बहुत लंबा है लेकिन 1948 में स्वतंत्रता के अधिकार को सार्वभौम घोषणापत्र में विशेष महत्व दिया गया। इसी सार्वभौम अधिकार को वैश्विक स्तर पर बहाली करने हेतु विश्व की सभी सराकारों द्वारा इस दिशा में कदम उठाएँ गये।

भारत में भी स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया किया गया है और संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत छः स्वतंत्रता के अधिकारों को शामिल किया गया है। लेकिन संविधान में प्रावधान कर देना और उसे वास्तविक धरातल पर उतारना दोनों में व्यापक अंतर है। केवल प्रावधान कर देने से अधिकारों की बहाली नहीं हो जाती है बल्कि उन अधिकारों को समाज में वास्तविक रूप से लागू करना और उसकी रक्षा भी करना आवश्यक होता है।

आज भारत में न केवल स्वतंत्रता का अधिकार बल्कि सारे मानवाधिकारों की स्थिति गंभीर रूप से संकटमय है। आज भारत में अनुच्छेद 19 में प्रदान की गई सारी स्वतंत्रताएँ अघोषित आपातकालीन स्थिति का सामाना कर रही हैं। ऐसी स्थिति में आदिवासी समुदायों के स्वतंत्रता के अधिकारों की स्थिति और भी दयनीय है। इन सभी स्थितियों का विश्लेषण प्रस्तुत शोध आलेख में किया गया है।

आप आदिवासी समुदायों के संदर्भ में भोजन का अधिकार और स्वास्थ्य का अधिकार भाग एक यहाँ पढ़ सकते हैं

2. स्वतंत्रता का अधिकार और आदिवासी समुदाय:

सभी मानवाधिकारों में स्वतंत्रता का अधिकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। स्वतंत्रता के अधिकार के अभाव में व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास करना असंभव होता है। स्वतंत्रता का अधिकार मनुष्य की प्रकृति में ही अंतर्निहित होता है। इस मानवाधिकार के संदर्भ में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा का प्रथम अनुच्छेद कहता है कि ‘‘सभी मनुष्यों को गौरव और अधिकारों के मामले में जन्मजात स्वतंत्रता और समानता प्राप्त है।’’मानव अपने जीवन को उन्नत एवं गरिमापूर्ण बनाने हेतु बाहरी प्रतिबंधों से मुक्त होने, उचित कार्य करने, नए विचार, सृजनात्मक कला, उत्पादन और जीवन की गुणवता बढ़ाने हेतु अनेक क्रियाएँ करता है।

परतंत्र व्यक्ति अथवा समाज कभी भी अपनी उन्नति नहीं कर सकता। अतः भारतीय संविधान में स्वतंत्रता को मौलिक अधिकार घोषित किया गया है। संविधान के अनुच्छेद-19 से 22 तक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लेख किया गया है। जिसका उद्धेश्य है कि कोई भी व्यक्ति अपने मन से इच्छानुसार कोई भी कार्य कर सके किन्तु दूसरों के अधिकारों का सम्मान करते हुए। 

आदिवासी समुदायों के संदर्भ में संविधान द्वारा प्रदत स्वतंत्रता के अधिकारों की व्यावहारिक स्थिति का विश्लेषण निम्नलिखित परिच्छेदों में किया गया है।

2.1 विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आदिवासी समुदाय:

अभिव्यक्ति का अधिकार एक ऐसा अधिकार है, जिसके तहत मनुष्य अपनी भावनाओं, विचारों तथा सृजनात्मकता को अभिव्यक्त करता है। इसी अधिकार के माध्यम से वह अपने अधिकारों की मांग भी कर सकता है। यदि अभिव्यक्ति का ही अधिकार न हो तो अपने प्रति होते अन्याय अत्याचार तथा अपने अधिकारों के हनन को हम कैसे अभिव्यक्त कर पाते? अतः अभिव्यक्ति का अधिकार अति आवश्यक है।
भारत में सभी को अभिव्यक्ति का अधिकार है फिर भी कुछ ऐसे समुदाय या व्यक्ति हैं, जिन्हें यह अधिकार आज भी प्राप्त नहीं हुआ है। यदि यह अधिकार प्राप्त हो भी गया तब भी उनकी आवाज लक्षित सुमदाय या लक्षित सरकार या व्यक्ति तक संप्रेषित नहीं हो पाती। इस विडंबना का चित्रण वाहरू सोनवणे की ‘स्टेज’ कविता में हुआ है।

‘‘हमने अपनी शंका फुसफुसायी

वे कान खडे कर सुनते रहे

फिर ठंडी सॉस भरी

और हमारे ही कान पकड़

हमे ही डांटा

माफी मागो वर्ना ………।’’2

आदिवासी समाज के जीवन संघर्ष, उनकी संस्कृति पर मंडराते बादल खोती हुई अस्मिता, उनके जल, जंगल, भूमि के अधिकारों का आज हनन हो रहा है। वे संघर्ष भी कर रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज एक विशेष वर्ग द्वारा दबा दी जाती है। उन्हें आवाज उठाने योग्य नहीं समझा जाता और जो आदिवासियों का शोषण करता है, वही वर्ग आदिवासी विकास या आदिवासी मुक्ति का नारा लगाता है। वह किसी आदिवासियों को नेतृत्व करने या अपनी बात रखने का अवसर नहीं देता है।

‘‘मुद्दा तुम्हारा है

मंच भी तुम्हारा ही

लेकिन

अगुआ बनने की

कभी कोशिश मत करना

तुम्हे अपने समाज का

अगुआ बनने का

हक नहीं है।’’3

आदिवासी समाज आज ही नहीं बल्कि प्राचीन काल से अपनी आवाज उठाता आ रहा है किन्तु आज तक भी उनकी आवाज़ को उतना महत्वपूर्ण नहीं माना जा रहा है, जितना उन लोगों की आवाज़ को महत्व दिया जाता है जो समय बे समय न्यायालय खुलवा लेते हैं। आदिवासी अपनी सभ्यता संस्कृति की रक्षा हेतु स्वर तो बुलंद कर ही रहा है किन्तु वह पर्यावरण के मुद्दे को भी सबके समक्ष रख रहा है क्योंकि यदि पर्यावरण का अवनयन हुआ तो न ही मानव सभ्यता का अस्तित्व बचेगा और न ही आदिवासी समाज का। अतः आदिवासियों के स्वर को महत्व देना आज के विश्व की आवश्यकता है।अभिव्यक्ति के अधिकार में प्रेस की स्वतंत्रता भी निहित है। प्रेस लोकतंत्र का चैथा स्तंभ है। प्रेस का मुख्य उत्तरदायित्व है कि वह लोकतंत्र में घटित घटनाओं को जनता तक पहुचाएँ, समाज में जनजाग्रति फैलाएँ तथा समाज में होते अन्याय अत्याचार के विरूद्ध आवाज़ उठाएँ। आदिवासी समाज को इस प्रिंट मीडिया पर भी आपत्ति है। प्रिंट मीडिया द्वारा अभिव्यक्ति के नाम पर आदिवासी समाज के निजता के अधिकार का हनन किया जाता है। निर्मला पुतुल की कविता कहती है कि 

‘‘ये वे लोग हैं जो खींचते हैं

हमारी नंगी-अधनंगी तस्वीरें

और संस्कृति के नाम पर

करते है हमारी मिट्टी का सौदा

उतार रहे हैं बहस में हमारे ही कपड़े।’’4

मीडिया द्वारा आदिवासियों का इस प्रकार सांस्कृतिक खिलवाड़ अभिव्यक्ति के अधिकार तथा सांस्कृतिक अस्मिता के अधिकार दोनों का हनन है। अभिव्यक्ति का अधिकार युक्तियुक्त प्रतिबंधित है। वह उस सीमा तक स्वीकार्य है जिस सीमा तक वह दूसरों के अधिकारों का हनन न कर सके।

2. 2 शांति पूर्ण सम्मेलन की स्वतंत्रता और आदिवासी समुदाय:

अपने विचार भाव तथा अपनी विचारधाराओं का प्रचार प्रसार करने हेतु या अपने अधिकारों की मांग करने हेतु कोई समुदाय शातिपूर्ण सम्मेलन आयोजित कर सकता है। सम्मेलन में विचार-विमर्श, वाद-विवाद-संवाद कर सकता है। जुलूस या प्रदर्शन का आयोजन भी कर सकता है।
आदिवासी समाज को भी यह अधिकार प्राप्त है किन्तु समस्या तब उत्पन्न होती है, जब शांतिपूर्ण सम्मेलन रैली के समय राजनीति एवं पुलिस गठजोड़ के फलस्वरूप अकारण लाठी चार्ज करवा दी जाती है। हिंसा के नाम पर जेल भेज दिया जाता है। शांतिपूर्ण सम्मेलन में असामाजिक तत्वों को सम्मिलित करवाकर पूरे आन्दोलन को हिसंक रूप दे दिया जाता है। यह सब उन लोगों के इशारों पर होता है जो आदिवासियों का शोषण करते हैं।

आदिवासी मुद्दे उनके सवाल तथा उनके अधिकारों के संदर्भ में सभाएँ, सम्मेलन संगोष्टियाँ होती रहती हैं किन्तु समाधान नहीं निकल पाता। यही परिपाटी बन गई कि आयोजन करों और आदिवासियों के साथ सांस्कृतिक खिलवाड़ के साथ सभा समाप्त कर दो। यही तो होता रहा है।

संविधान द्वारा प्राप्त शांतिपूर्ण सभा, सम्मेलन करने का अधिकार तो मिला है किन्तु इन सम्मेलनों, सभाओं का परिणाम कुछ नहीं निकलता है। शोषक समाज शोषक ही बना रहता है और शोषितों को यह ज्ञात भी नहीं होता है कि इस सभा के आयोजन का कारण क्या है। वह तो मौन मन, सूखा तन, अधखुले वस्त्र में इन्हीं सम्मेलन में सहभागियों की जूठी थाली साफ करता रहता है।

2. 3 देश में निर्बाध भ्रमण का अधिकार और आदिवासी समुदाय:

भारतीय संविधान द्वारा भ्रमण का अधिकार प्राप्त है। व्यक्ति अपनी संतुष्टि हेतु देश में निर्बाध भ्रमण कर सकता है। यदि व्यक्ति के भ्रमण में बाधा उत्पन्न किया जाता है, तो वह व्यक्ति न्यायालय से अपना अधिकार मांग सकता है।
आदिवासी समाज के लिए इस भ्रमण के अधिकार का क्या औचित्य है? इस पर विचार करना आवश्यक है। आदिवासी समाज की आर्थिक स्थिति ऐसी होती है कि वे कहीं आनंद प्राप्त करने या सौदर्यानूभूति हेतु प्रवास नहीं कर सकते किन्तु वे भी भ्रमण करते है और उनकी यात्रा पैदल ही होती है। उनकी यह यात्रा अपनी भूख मिटाने, अपने परिवार के पालन पोषण तथा अपने अस्तित्व को बनाएँ रखने हेतु होती है। जब वे जंगल में प्राप्त अनायास संसाधान, फूल, पत्ते जड़ी बुट्टी, मधु, तरसगुटी आदि का संग्रह करने हेतु जंगलों में भटकते रहते है, तब भी उनका जीवन खतरों से खाली नहीं रहता। जंगली जानवर, हिसक प्राणी का खतरा हमेशा बना रहता है। किन्तु सबसे भयावह विडंबना पूर्ण स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब आदिवासी महिलाओं को इन जंगलों से उठा लिया जाता है। उनका बलात्कार कर दिया जाता है। 

आदिवासियों का यह शोषण केवल वन प्रान्तरों में ही नहीं बल्कि देश में सभी स्थानों पर जारी है। मध्य भारत के आदिवासी अपनी रोजी-रोटी हेतु असम का प्रवास करते हैं। कुछ युवा युवती, भारत के विभिन्न क्षेत्रों से दिल्ली जैसे महानगरों में जीविका की तलाश में आते हैं  किन्तु वहाँ जो उनके साथ होता है। यह मानवाधिकार ही नहीं बल्कि संविधान एवं मानव सभ्यता को ही शर्मसार कर देता है। एक बार अगर आदिवासी युवती इन महानगरों में पहुच गयी फिर वह जीवन भर लौट नहीं पाती है। उनके साथ क्या होता है यह भी ज्ञात नहीं होता। निर्मला पुतुल इसी भाव को अपनी कविता में व्यक्त करती है।

‘‘कहा हो तुम माया? कहा हो?

कहीं हो भी सही सलामत या

दिल्ली निगल गई तुम्हें?

मुझे याद है छः सात वर्ष पहले जब तुम

आई थी

और रो पड़ी थी ……. भोगे हुए कष्ट सुनाकर

उस वक्त पेट में तुम्हारे

पल रहा था किसी

का बच्चा भी।’’5

भ्रमण का अधिकार तो प्राप्त हुआ किन्तु यह भ्रमण सुरक्षात्मक नहीं है। लेकिन पेट महा पापी जो करवाता है भ्रमण। और बना देता है बिस्तर। बना देता है वेश्याएँ अनगिनत को।

manav Adhikar kya hai आदिवासी

2. 4 निवास की स्वतंत्रता (आवास का अधिकार) और आदिवासी समुदाय :

मानवाधिकारों में रोटी, कपड़ा, मकान को मानव के मूलभूत अधिकारों का दर्जा दिया गया है। इनके बिना मानव का जीवन संभव नहीं है। किन्तु आदिवासी समाज रोटी, कपडा एवं आवास हेतु भी दर-दर भटक रहा है। और जहाँ वे सदियों से रहते आए हैं, वहाँ उनकी बस्ती उजड़ गई है। वहाँ अब बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का अधिकार है या किसी खदानों का दूषित जल या यूरेनियम से रेड़ियों सक्रिय पदार्थ का राज है। अतः आदिवासी विस्थापण की एक भयानक समस्या से जुझ रहे हैं। विस्थापित आदिवासियों की बस्ती का छोटा सा चित्र वाहरू सोनवणे की कविता में देखे।

‘‘एक बस्ती

जहाँ ‘पाले’ बिछाई जाती हैं

पेट भरने खातिर, रह जाता है पेट

उन्हें जहाँ

बिछानी ही पड़ती है ‘पाल’

वहीं पालमाडी बस्ती।’’6

इन विस्थापित आदिवासियों का आवास का अधिकार कहाँ गया?  किसने छिन लिया इनका घर और ये पीड़ित जन कहाँ जाए क्या करें?
अनुच्छेद 19 में प्राप्त छः अधिकारों में यह भी अधिकार प्राप्त है कि नागरिक को पूर्ण देश में कहीं भी बस जाने एवं वृत्ति अपनाने का अधिकार प्राप्त है। आदिवासी समाज वन प्रान्तरों में बसा हुआ है। फिर उनका विस्थापन क्यो यदि कहें कि विकास हेतु संसाधनों का दोहन आवश्यक है। तब भी आदिवासियों की ही बलि क्यों? यदि कहें कि उनके क्षेत्र में ही संसाधन हैं, अन्यत्र नहीं। तो उनका पुनःस्थापन उचित ढ़ंग से क्यो नहीं होता?

सरदार सरोवर से विस्थापित आदिवासी, मध्य भारत के आदिवासी, अंदमान द्वीप तथा नीलगिरि पर्वतों के आदिवासी इन सबके घर रोज़गार छिन लिए गए और इनका पुनस्थापन नहीं हो पाया। यह समाज अभी भी अपनी जीविका हेतु भटक रहा है। यह विस्थापित समुदाय अपनी रोजी रोटी हेतु अन्य क्षेत्रों अथवा नगरों की ओर प्रवास करता है किन्तु महानगरों में इनके निवास की स्थिति सोचनीय होती है। ये लोग झुग्गी झोपडियों में रहते हैं। किसी भी प्रकार की मूलभूत सुविधाएँ इन्हें प्राप्त नहीं होती हैं।

आदिवासी समाज आज के दौर में कहीं भी सुरक्षित नहीं है। वन प्रान्तरों में जहाँ विस्थापन नहीं हुआ है, वहाँ भी आदिवासी आवास के अधिकारों (पक्के मकान) से कोसों दूर हैं। घास-फूस के घर बरसात में जल का टपकना, शीतकाल में घर में से ही तारों एवं चंदा मामा के दर्शन करना तथा ग्रीष्म काल में धूप के ऐसे चिन्ह घर में कि अपने घर में ही कई तारे हो। ये सभी नजारे आदिवासियों के घर में होते है।सरकार के समाज कल्याण मंत्रालय, शहरी आवास मंत्रालय द्वारा कई योजनाएँ चलाई जा रही हैं। गरीब परिवारों को पक्के मकान बनाकर देना, स्वच्छ पेयजल सुविधा, मुफ्त बिजली तथा अन्य आधारभूत सुविधानओं की ढेर सारी योजनाएँ कागजों में चल रही हैं। सरकारी फाइलों में ही आवास का अधिकार पूर्ण रूप पा रहा है। 

सरकार का दावा है कि इंदिरा आवास योजना के तहत करोडों परिवारों को पक्के आवास की सुविधा दी गई है किन्तु आदिवासी क्षेत्र में इस योजना की वास्तविकता कवयित्री के ही शब्दों में देखे।

‘‘इंदिरा-आवास के लिए बहुत दौड भाग की

पंचायत सेवक को मूर्गा भी दिया

प्रधान को भी दिया पच्चास टक्का

पर अभी तक कुछ नहीं हुआ

पूरा डेढ़ साल हो गया।’7

इस प्रकार भारत में आदिवासियों का आवास के अधिकार की स्थिति है। अधिकारों का प्रावधान करने और अधिकारों को व्यावहारिक रूप से लागू अथवा धरातल पर उतारने में काफी अन्तर होता है।

2. 5 व्यवसाय अथवा वृत्ति अपनाने की स्वतंत्रता और आदिवासी समुदाय:

भारत के सभी नागरिकों को इस बात की स्वतंत्रता है कि वे अपनी आजीविका के लिए कोई भी पेशा, व्यापार या कारोबार अपना सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने मन पसंद रोजगार का चयन कर सकता है।
मानवाधिकार घोषणा पत्र अनुच्छे 23 (1) में कहा गया है कि “प्रत्येक व्यक्ति को काम करने, इच्छानुसार रोजगार के चुनाव व सुविधाजनक परिस्थितियों को प्राप्त करने व बेकारी से संरक्षण पाने का हक है।’’किन्तु यह अधिकार भी आज अनेक समुदायों को प्राप्त नहीं है। आदिवासी पुरूष एवं महिलाओं को जबरन किसी अनुचित अथवा ना पसंद कार्यों में ढकेला जाता है। वनो, जंगलों में अनेक योजनाओं में कार्यरत आदिवासी या मनरेगा में कार्यरत आदिवासी महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार होते हैं। अधिकारी अपनी मन पसंद लडकियों को ऐसी जगह काम करवाता है जो निर्जन हो जहाँ उनसे छेडखानी की जा सके। लडकियों का वेतन रोककर मजदूरी लेने हेतु घर पर बुलाते हैं। इस प्रकार के व्यवहारों से इस अधिकार का हनन होता है।

आदिवासियों के समक्ष राजनीति एवं पूँजीपति वर्ग के गठजोड से ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं कि वह न चाहकर भी उस कार्य मंजबूरन करता रहता है। शहरों में घरेलू कामगार की स्थिति अथवा आदिवासी क्षेत्र से उचित रोजगार के बहाने से लाकर देह व्यापार करने पर मजबूर किया जाता है। एक विशेष सर्वेक्षण के अनुसार दिल्ली में घरेलू कामगार महिलाओं की संख्या चालिस लाख है। इन महिलाओं को रोजगार का आश्वासन देकर आदिवासी क्षेत्रों से लाया जाता है। जिनका शोषण एक विशेष एजेन्सी के तहत होता है।

ग्रामीण क्षेत्रों से (विशेषकर आदिवासी महिलाएँ) जब शहरों में रोजगार की तलाश में निकलती है, तो उन्हें प्रथमतः किसी एजेंसी से संबंध स्थापित करना पड़ता है क्योंक काम पर रखनेवाले मालिक किसी एजेंसियों द्वारा ही कामगार महिला को स्वीकार करते हैं। एजेंसियाँ मालिकों एवं कामगार महिलाओं के बीच वेतन तय करती है अर्थात बिचौलिया की भूमिका निभाती हैं। विडंबना यह है कि मालिकों से तय किया गया वेतन तथा महिलाओं को दिये जानेवाले वास्तविक वेतन में काफी अन्तर होता है। श्रम शोषण का यह एक उदाहरण है किन्तु और भी घिनौने उदाहरण ऐसे भी हैं कि उन महिलाओं को घरेलू काम हेतु लाया जाता है और देह व्यापार धकेल दिया जाता है। इसे हम मानवाधिकारों का कौन सा अधिकार मानेगे यह एक विचारणीय मुद्दा है।

जिन महिलाओं को घरेलू काम प्राप्त हो गया उन्हें भी मानवीय सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। अनुचित वेतन तथा स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, काम के अधिक घंटे आदि कारणों से वे अस्वस्थ्यता का शिकार हो जाती हैं और कहीं रहस्यमय रूप से मृत्यु को प्राप्त हो जाती  हैं। 

‘‘कहीं हो भी सही सलामत या

दिल्ली निगल गई तुम्हें?’’9

यह एक भिन्न प्रकार की बंधुआ मजदूरी है और इस कार्य में अधिकांशतः महिलाएँ ही माहिलाओं का शोषण करती हैं। मालकिन का नौकरानी के साथ अमानवीय व्यवहार भी सोचनीय होता है। कहने का तात्पर्य यह नहीं कि इन महिलाओं में सभी महिलाएँ शोषित हैं। कुछ महिलाएँ शोषित होकर भी अपने जीवन स्तर को ऊपर उठा रही हैं और आगे बढ़ रही हैं किन्तु इन महिलाओं की संख्या अत्यंत न्यून है।

निष्कर्ष:

कहना न होगा कि आज आदिवासी समुदायों के समक्ष व्यापक चुनौतियाँ विद्यमान हैं। आदिवासी समुदायों के संदर्भ में स्वतंत्रता के सारे अधिकार या तो केवल संविधान में एक संभावित सपने के रूप में विद्यमान हैं। या फिर इन अधिकारों को विकलांग बना दिया गया है, जो आदिवासी समुदायों तक नहीं पहुँचते हैं। आज आदिवासी समुदायों की आवाज़ को कठोरता से दबा दिया जाता है। जब आदिवासी समुदायों द्वारा अपने अधिकारों की रक्षा हेतु कोई आंदोलन या संगठन खड़ा किया जाता हैं तब सरकार उनके संगठन और उनके आंदोलन को बर्बरता से खंडित कर देती है। हालाँकि आदिवासी समुदायों के आंदोलन न केवल उनके लिए बल्कि समस्त पर्यावरण हेतु महत्वपूर्ण होते हैं। आदिवासी समुदायों के पास पक्के घर नहीं होते हैं। जो भी होते हैं उन्हें भी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से छीन लेती हैं। उन्हें वनों से बेदखल किया जा रहा है। अत: आज आदिवासी समुदायों के समक्ष विस्थापन की समस्या विकराल बन कर उभरी है।

संदर्भ सूची:

  1. मानवाधिकार घोषणा पत्र 1948, www.un.org
  2. वाहरू सोनवणे, पहाड हिलने लगा है, शिल्पायन पब्लिकेशन दिल्ली, 2009, पृ-18
  3. सं.राणिका गुप्ता, कलम को तीर होने दो, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2015, पृ-271
  4. निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली, 2012,पृ-53
  5. निर्मला पुतुल, अपने घर की तलाश में, रमणिका फाउंडेशन दिल्ली, 2004, पृ-31
  6. वाहरू सोनवणे, पहाड हिलने लगा है, शिल्पायन पब्लिकेशन दिल्ली, 2009, पृ. 22
  7. निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली, 2012, पृ-43
  8. मानवाधिकार घोषणा पत्र 1948, www.un.org
  9. निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली, 2012, पृष्ट-31

 

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