1. शिक्षा, समानता और निजता के अधिकार का परिचय और महत्व:
मानवाधिकार मनुष्य को अपने जीवन और जीवन शैली को उन्नत बनाने की अनेक संभावनाओं को प्रस्तुत करते हैं। आदिवासी समुदायों के संदर्भ में ‘Manav Adhikar kya hai’ इस विषय पर लेख के भाग एक में मानवाधिकारों का परिचय एवं आदिवासी समुदायों के लिए उनके महत्व पर चर्चा करते हुए खाद्य सुरक्षा (भोजन का अधिकार) और स्वास्थ्य जीवन का अधिकार इन दो प्रमुख अधिकारों का आदिवासी समुदायों के संदर्भ में विश्लेषण किया गया है।
लेख का प्रस्तुत द्वितीय भाग में शिक्षा का अधिकार, आदिवासी समुदायों के जीवन में अतिक्रमणात्मक हस्तक्षेप तथा समानता का अधिकार इन तीन महत्वपूर्ण मानवाधिकारों पर विचार किया गया है। ये तीनों मानवाधिकार किसी व्यक्ति के जीवन में इतने आवश्यक हैं कि इन अधिकारों के अभाव में व्यक्ति अपने जीवन को गुणवत्ता पूर्ण नहीं बना सकता क्योंकि ये तीनों अधिकार जीवन की गुणवत्ता को बल प्रदान करते हैं। जब व्यक्ति को शिक्षा का अधिकार प्राप्त होता है तब उसके सामने जीवन जीने के अनेक विकल्प होते हैं क्योंकि शिक्षा व्यक्ति की तीसरी आँख होती है। आज के समय में शिक्षा के अभाव में व्यक्ति अपने जीवन को उन्नत बना ही नहीं सकता है। लेख के प्रस्तुत भाग में समानता के अधिकार पर भी विचार किया गया है। समाज में समानता का अधिकार सभी व्यक्तियों के समक्ष समान अवसर के विकल्प खोलता है। यदि यह अधिकार व्यक्ति को प्राप्त नहीं हुआ तो व्यक्ति के पास चाहे कितनी भी प्रतिभा क्यों न हो वह आगे बढ़ नहीं सकता। राष्ट्र के विकास में समान अवसर तथा राष्ट्रीय संसाधनों पर सबका अधिकार आज के समय की मांग है। प्रस्तुत लेख के इस भाग में एक और निजात के अधिकार पर विचार किया गया है।
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में उपर्युक्त तीनों अधिकारों की स्थिति विचारणीय है। आदिवासी समाज की गुणवतापूर्ण शिक्षा, समानता और निजता के अधिकारों का हनन हो रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा व्यवस्था की दयनीय स्थिति है। समानता के नाम पर इन्हें केवल सपने दिखाए गये हैं। इन्हीं के क्षेत्रों से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाता है लेकिन उन संसाधनों में इनका कोई अधिकार नहीं होता। आदिवासी समाज के जीवन में अतिक्रमणात्क हस्तक्षेप एक आम घटना हो गई है। अत: इनके निजता के अधिकार का भी हनन होता है। प्रस्तुत लेख में इन विभिन्न मुद्दों पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है।
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में मानवाधिकार क्या है? भाग 1 आप यहाँ पढ़ सकते हैं
2. सर्वसमावेशी शिक्षा का अधिकार और आदिवासी समुदाय:
शिक्षा मानवाधिकारों में मूलभूत अधिकार है। जीवन का विकास एवं गरिमापूर्ण जीवन जीने में शिक्षा का अत्यंत महत्व है। आज के समय शिक्षा के अभाव में मानव जीवन की कल्पना करना भी कठिन है। फलतः मानवाधिकार की सार्वभौम घोषणा में अनुच्छेद 26 (1) तथा भारतीय संविधान में अनु-21 (क) के अन्तर्गत शिक्षा को मौलिक मानवाधिकार घोषित किया गया है। सार्वभौम घोषणा अनु-26 (1) ‘‘शिक्षा कम से कम प्रारंभिक शिक्षा अनिवार्य होगी। टेक्निकल, यांत्रिक व पेशे संबंधी शिक्षा साधारण रूप से प्राप्त होगी और उच्चतर शिक्षा सभी को योग्यता के आधार पर समान रूप से उपलब्ध होगी।’’1
संयुक्त राष्ट्र की इस घोषणा के बाद भारत के संविधान में अनुच्छेद-21(क) तथा अनुच्छेद-46 में शिक्षा का प्रावधान किया गया है। अनुच्छेद-46 के अनुसार ‘‘राज्य कमजोर तबके के लोगों विशोषकर अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के शैक्षाण्कि तथा आर्थिक हितों का विशेष ध्यानपूर्वक उन्नयन करेगा और उन्हें सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से बचाएगा।’’2 इन सवैधानिक प्राबधानों का लाभ कम या अधिक किन्तु हुआ आवश्य है। आज जो आदिवासी साहित्य लिखा जा रहा है यह इन प्रावधानों का ही परिणाम है किन्तु कहना न होगा कि पिछले स्तर वर्षों में जिस प्रकार लाभ होना आवश्यक था वह नहीं हो पाया है।
आदिवासी समाज शिक्षा की दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुआ है। ‘‘2001 की जनगणना के अनुसार आदिवासी साक्षरता दर 24% है जो राष्ट्रीय साक्षरता दर 64.8% से बहुत नीचे है।’’3 यही स्थिति 2011 की जनगणना में भी रही। राष्ट्रीय साक्षरता दर 74.04% की तुलना में बहुत नीचे।
शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने हेतु संविधान संशोधन किए जाने के करीब साठ वर्ष पश्चात सरकार ने 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों को मुक्त व अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने हेतु ऐतिहासिक कानून लागू किया। संविधान संशोधन अधिनियम और ‘नया शिक्षा का अधिकार अधिनियम’ अब लागू हो चुके हैं। अर्थात अब राज्य सरकारें एवं स्थानीय निकायों के लिए यह सुनिश्चित करना बाद्यकारी होगा कि हर बच्चा नज़दीकी स्कूल में शिक्षा प्राप्त करें। संविधान संशोधन के समय यह कहा गया था कि इस कदम से उन क्षेत्रों को अधिक लाभ प्राप्त होगा जहाँ अभी तक शिक्षा के मामले में लापरवाही बरती जा रही है। क्योंकि आज भी 17000 गांव ऐसे हैं (इनमें आदिवासी गांवों के आकडे अप्रमाणित होने की संभावना है) जहाँ एक कीलोमीटर के दायरे में स्कूल नहीं हैं और जहाँ भी स्कूल हैं उनकी स्थिति दयनीय है। इन दयनीय स्कूलों में आदिवासी क्षेत्र की स्कूल सर्वाधिक हैं। जहाँ किसी भी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है। ‘‘जनजातीय क्षेत्रों के अधिकांश स्कूल, जहाँ जनजातीय भाषा का माध्यम है, के पास मात्र भवन का तुच्छ ढॉचा है, शिक्षा कर्मियों का अभाव और शिक्षण सामग्रियों की कमी है।’’4 आदिवासी क्षेत्रों में स्कूलों की यह दयनीय स्थिति और आदिवासी परिवार की आर्थिक सामाजिक स्थिति दोनों का सम्मिलित प्रभाव शिक्षा के अधिकार का इस प्रकार कमर तोडता है कि वह आदिवासी समाज को कभी प्राप्त ही नहीं हो पाती।
आइए हम शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों पर सरकार के प्रयासों का विश्लेषण पुनः शुरू करते है। शिक्षा के अधिकार के कानून में महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं जिन्हें समुचित रूप से क्रियान्वयन किए जाने पर आदिवासी समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। शिक्षा के अधिकार के प्रमुख प्रावधानों के बाद यदि हम भारतीय आदिवासी क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था पर दृष्टि डाले तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है कि उन क्षेत्र में आज भी वहीं स्थिति है जो संविधान संशोधन के पूर्व थी।
शिक्षा व्यवस्था सुधारने हेतु आदिवासी क्षेत्रों में कई आवासीय स्कूल बने हैं किन्तु उनमें आदिवासियों को प्रवेश नहीं मिल पाता और आदिवासी शिक्षा हेतु सरकार द्वारा एकलव्य आवासीय विद्यालय की व्यवस्था भी की गई है किन्तु उन विद्यालयों की हालत भी ठीक नहीं है। रामदयाल मुंडा की कविता ‘तुमने स्कूल बनाया’ में शिक्षा की वास्तविक स्थिति का चित्रण हुआ है।
“तुमने स्कूल बनाया
गांव वालों की शिक्षा के लिए
पढ़ने वाले बैठे हैं
(किन्तु) मास्टर नहीं है, हे राजा
कितने दिन ऐसे चलेगा
तुम्हारा राज, हे राजा?”5
वास्तव में आदिवासी बच्चों को इन्सान के बच्चे ही नहीं समझा जाता, बच्चों से मानवीय व्यवहार भी नहीं किया जाता। शिक्षा व्यवस्था में भ्रष्टाचार का भी बोलबाला है और भ्रष्टाचार में सरकार के लोग ही सम्मिलित होते हैं। शिक्षा की इतनी दयनीय स्थिति से संविधान अथवा मानवाधिकार की घोषणा का क्या औचिल्य है? हमारे संविधान में तो यहाँ तक कहाँ गया है कि ‘‘अनुच्छेद 350 (क) प्रत्येक राज्य और उस राज्य के अन्तर्गत प्रत्येक स्थानीय सभी भाषाई अल्पसंख्यक के समूह के बच्चों को उनकी मात्रभाषा में शिक्षा की पर्याप्त सुविधा जुटाएगी।’’6 पर्याप्त सुविधाएँ और मातृभाषा में शिक्षा कितने अच्छे प्रावधान हैं किन्तु वास्तविकता उतनी ही बदत्तर है। शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार है यह भी केवल प्रावधानों की बात है। फलतः शिक्षा के विशेषज्ञ शिक्षा के मौलिक अधिकार पर संदेह प्रकट करते हैं।
आदिवासी शिक्षा का निम्न स्तर के प्रमुख कारण सरकारी योजनाओं के उचित क्रियान्वयन का अभाव, भ्रष्टाचार, शिक्षकों का अभाव, आधारभूत संरचनाओं का अभाव तथा नौकरशाही की उदासीनता, मुख्यधारा की संकीर्ण मानसिकता, संचार का अभाव तथा शिक्षा व्यवस्था के प्रचार प्रसार का अभाव आदि प्रमुख हैं। किन्तु सरकारी समितियों एवं नौकरशाही अफसरों द्वारा बताए जानेवाले कारण कुछ और हैं। उनका मानना है कि आदिवासी अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाने में उत्साही नहीं हैं। उनकी आर्थिक स्थिति प्रकृति प्रेम तथा आदिवासी अपनी प्रकृति से बाहर नहीं आना चाहते आदि किन्तु इन कारणों में केवल आर्थिक स्थिति का कारण प्रामाणिक हैं अन्य सारे कारण अपने द्वारा किए गए भ्रष्टाचार को छुपाने हेतु है।
आर्थिक स्थिति से शिक्षा पर पड़ते प्रभाव का चित्रण आदिल्य कुमार माण्डी की कविता में हुआ है।
‘‘जहाँ लोगों को दो वक्त
खाने के लिए ही सोचना पड़ता है
वहाँ कोई क्या जाने
शिक्षा किस बला का नाम है।’’7
महान आदिवासी विचारक विशेषज्ञ और चिन्तक एल्विन ने 1963 में कहा था कि ‘‘एक जनजातीय परिवार के लिए अपने बच्चों को स्कूल भेजना आवश्यक रूप से आर्थिक स्थिति पर निर्भर करता है। इससे इसके जीवनयापन के संघर्ष तथा पारम्परिक श्रमविभाजन की योजना गड़बड़ा जाती है। बहुत से माँ-बाप ऐसी स्थिति में नहीं होते कि अपने बच्चे को स्कूल भेज सके।’’8 आदिवासी अभिभावक अपने बच्चों को पढ़ाना आवश्य चाहते हैं किन्तु उनकी आर्थिक स्थिति उन्हें यह अनुमति नहीं देती फिर भी कुछ अभिभावक आर्थिक स्थिति का किसी भी स्थिति में सामना करते हुए अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं। इसी कारण आज कई आदिवासी समुदाय के लोग शिक्षा ग्रहण किए हैं।
इन तमाम कठिन परिस्थितियों का सामना करते-करते आदिवासी समुदाय से कोई एक विद्यार्थी उच्च शिक्षा तक पहुँच पाता है किन्तु उच्च शिक्षा में भी उसका मन नहीं लगता। उन्हें हमेशा घर-परिवार की चिन्ता सताते रहती है क्योंकि घर की परिस्थिति ही कुछ ऐसी होती है।
आदिवासियों के मानवाधिकारों में प्रमुख शिक्षा का अधिकार की वास्तविक स्थिति सोचनीय है। अतः शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकता है। सर्वाधिक आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासी समुदायों में जाकर शिक्षा के महत्व को समझाने की जिस प्रकार सरकार द्वारा योजना चलायी जा रही है उन्हें व्यावहारिक रूप से लागू करने की।
अतः कहना न होगा कि शिक्षा व्यवस्था ही नहीं बल्कि भारत में आदिवासी मानवाधिकारों से भी उपेक्षित हैं। वे आधुनिक वैचारिकता से परे हैं। उन समुदायों के मानवाधिकारों का हनन न हो इसलिए सरकार के साथ साथ समाज सेवी संगठन तथा बुद्धिजीवियों की आपसी सहभागिता की एक सशक्त मुहिम खड़ी करने की आवश्यकता है। जिसके फलस्वरूप जनजातीय समाज अपने आत्मसम्मान को पा सके।
आदिवासी क्षेत्र में सदा हस्तक्षेप एवं अतिक्रमण का खतरा रहता है तथा नौकरशाही के अफसर स्वयं को दादाओं के दादा समझने लगते हैं। जिनमें पुलिस जनता की रक्षक ही आदिवासियों की भक्षक बन जाती है। मानवाधिकारों में यह भी निहित है कि ‘‘किसी को भी मनमाने ढ़ंग से गिरफ्तार, नजरबंद या देश निष्कासित नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 10 में इसके पश्चात आगे कहा गया है कि ‘‘किसी व्यक्ति की एकांतता, परिवार घर या प्रत्रव्यवहार के प्रति मनमाना हस्तक्षेप न किया जाएगा ……. ऐसे हस्तक्षेपों आक्षेपों के विरूद्ध प्रत्येक को कानूनी शिक्षा का अधिकार प्राप्त है।’’9 इस अधिकार का बड़े व्यापक स्तर पर हनन होता है। निर्मला पुतुल की कविता में चित्रण हुआ है कि
‘‘वह कौन सा जंगली जानवर था चुड़का सोरेन
जो जंगल की लकड़ी बीनने गई तुम्हारी बहन मुंगली को
उठाकर ले भागा’’10
यह अतिक्रमण केवल आदिवासी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि आदिवासी जीवन में भी होता है। खुले आम आदिवासियों की युवतियों को उठ लिया जाता है। यह मानवाधिकारों का हनन नहीं तो और क्या है?
आदिवासी क्षेत्रों में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ वहाँ के संसाधनों का दोहन अप्राकृतिक रूप से करती हैं। फलतः आदिवासियों का जीवन जिन जंगल, भूमि पर आधारित है। वह उनके जीवन का आधार है। उसकी खुले आम लूट होती है। जंगल बिहड़ बन जाता है। मिट्टी का ढेर बन जात है।
जब आदिवासी भूमि एवं जंगलों पर बाहरी लोगों का अतिक्रमण होता है, तो आदिवासियों की जीवन निर्वाह प्रक्रिया ही खतरे में पड़ जाती है उनका जीवन ही संकटमय हो जाता है।
इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं ठेकेदारों को पुलिस की सहायता मिलती है और पुलिस जो रक्षक है वही भक्षक बन जाती है। पूर्वोत्तर भारत में अप्सपा कानून की आड़ में पुलिस और सेना कितने अनुचित व्यवहार करती है। यह हमें अनेक अखबारों के माध्यम से ज्ञात होता है। इस हस्तक्षेप का विरोध यदि इरोम शर्मिला जैसी समाज सुधारिका करती है तो उन्हें कई वर्षों तक सलाखों के पीछे ड़ाल दिया जाता है। इरोम शर्मिला लिखती है कि
‘‘इन बेडियों से
आजाद करों मेरे पैरो को
जो काटो की चूडियों जैसी है
यही इल्जाम है न मुझपर
कि मैने लिया है जन्म एक परिंदे का।’’11
इरोम शर्मिला अतिक्रमणात्मक हस्तक्षेप का विरोध करने वाली समाज सेविका को कई वर्षों तक अमरण अनशन करना पड़ा। फिर भी यह अधिकार आदिवासी समाज को प्राप्त नहीं हो सका है। मणिपुर का मामला आज भी हमारे समक्ष खड़ा है।
अतिक्रमणात्मक हस्तक्षेप केवल पूर्वात्तर भारत में ही होता है ऐसा नहीं है बल्कि देश के सभी आदिवासी समुदायों में होता है। हॉलॉकि हस्तक्षेप के कारण एवं तरीके भिन्न-भिन्न होते हैं। अंदमान निकोबार द्वीपसमूह में निवासित जारवा, सेंटलीज जनजाति जो आज भी मानव सभ्यता से पृथकता रखती है। उनके जीवन में भी हस्तक्षेप हो रहा है तथा उनके अधिकारों का हनन होता है। आदिवासी क्षेत्र में डाकूओं की समस्या अमानवीय है। कुछ ताकतवर लोग गैर जिम्मेदार युवाओं को अपने पास रखते हैं ताकि समय आने पर उनका गलत इस्तेमाल करके अपना स्वार्थ साधा जा सके। ये डाकू खुले आम घुसपैठ करते हैं। आदिवासी गाँव में लूट-पात मचाते हैं मूर्गी, बकरी, गाय आदि को जबरन ले चलते है और हद तो तब हो जाती है जब वे आदिवासी महिलाओं को ही उठा ले जाते हैं। निर्मला पुतुल की कविता ‘तुम बॉसुरी बजाते रहे’ में इस अमानवीय घटना का चित्रण हुआ है।
‘‘कोई आया, कुछ उठा ले गया
तुम बॉसुरी बजाते रहे
मैं चुप रही
इस बार मैं चुप नहीं रहूँगी
छीन कर तोड दूँगी तुम्हारी बासुरी
कि देखों कि इस बार
वो मुझे उठाने आ रहे हैं।’’12
इन अमानवीय दुर्व्यवहारों की शिकार अधिकतर महिलाएँ होती हैं फिर वह किसी भी प्रकार का शोषण क्यों न हो। अतः आदिवासी महिलाएँ सर्वाधिक असुरक्षित हैं।
कानून व्यवस्था स्थिर बनाए रखनेवाले पुलिस आदिवासी क्षेत्रों में शांति तथा कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर माफिया तंत्र के समान कार्य करती है। किसी को जब चाहा पकड लिया इनकाउंटर में नक्सली घोषित कर दिया जाता है।
सयुक्त राष्ट्र विधि प्रवर्तन आधिकारियों की आचार संहिता में आठ अनुच्छेद दिए गए हैं जो पुलिस और पुलिस संगठन को मानवाधिकार के संदर्भ में उनके कार्यों और भूमिका को समझाने में मदद करते हैं। इन अनुच्छेदों में अनुच्छेद-5 में कहा गया है कि ‘‘कोई विधि प्रवर्तन अधिकारी यातना या अन्य क्रूर व अमानीय सजा को न तो निर्धारित करेगा और न सहन करेगा। कोई विधि प्रवर्तन अधिकारी ऐसी यातनाएँ और क्रूर अमानवीय सजा को न्याय संगत ठहराने के लिए असाधारण स्थितियों जैसे युद्ध, युद्ध की धमकी, राष्ट्रीय सुरक्षा की स्थिति, आन्तरकि राजनैतिक अस्थिरता या आपात-स्थिति आदि का भी आव्हान नहीं करेगा।’’13 आदिवासी क्षेत्र में पुलिस इन आठों अनुच्छेदों का उल्लंघन करती है और आदिवासी मानवाधिकारों की धज्जियाँ उड़ाती है।
पुलिस द्वारा मानवाधिकार हनन के कुछ कारण पुलिस की आन्तरिक व्यवस्था में भी छुपे हैं। पुलिस में व्याप्त अपसंस्कृति, असतोषजनक कार्यदशा, भर्ती व प्रशिक्षण का दोष, उच्चतम एवं निम्नतम पदों में दूरी, कार्य में हस्तक्षेप, साधनों की कमी इन सबके ऊपर इन्हें आदिवासी समाज खुली खेती दिखाई देता है। जहाँ कहीं भी जाओं और नंगा नाच करो न रोक और न कहीं टोक।
अब सवाल उठता है कि इस घुसपैठ के विरोध में अपनी आत्मरक्षा का अधिकार हमे है अथवा नहीं। यदि है तो वह क्या मानवाधिकार है। मनुष्य को अपने जीवन को हर आपदा से जीवन की रक्षा का अधिकार प्राप्त है। इसिलिए मनुष्य का अपना अधिकार है कि जब भी अपना जीवन भीषण संकट में हो, जहाँ जीवन की समाप्ति की आशंका हो, वहाँ हमे हर तरह से साम-दाम-दण्ड-भेद कीसी भी प्रकार से जीवन की रक्षा करने व आत्मरक्षा का अधिकार प्राप्त है। आज का भारतीय आदिवासी अपने जीवन एवं अस्तित्व बनाए रखने हेतु हर मोर्चे पर संघर्षरत है। फिर भी वह अपने अस्तित्व को बचाने में असफल सिद्ध हो रहा है। क्योंकि इन अधिकारों के हनन के पीछे एक शक्तिशाली एवं ताकतवर समुदाय की शक्ति कार्य कर रही है। सरकारे भी चाहे अनचाहे में उन्हें ही सहायता प्रदान करती है।
कहना न होगा कि आदिवासी समाज में घुसपैठ के कारण गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार तथा निजता के अधिकार का हनन हो रहा है। आज सभ्य समाज को यह विचार करना आवश्यक है कि वे जिन आदर्श का बखान करते थकते नहीं हैं। क्या उनका आदर्श इसी प्रकार आदिवासियों की बहु बेटियों को खुली खेती समझने की अनुमति देता है? नहीं तो उन्हें भी आदिवासियों के संघर्ष में आदिवासियों का पक्ष लेना चाहिए।
वैश्विक स्तर पर मानवाधिकारों की अवधारणा और सार्वभौम घोषणा पत्र आप यहाँ से पढ़ सकते हैं
4. समानता का अधिकार और आदिवासी समुदाय:
मनुष्य प्रकृति से ही स्वच्छंद होता है। समानता का अधिकार एक ऐसा अधिकार है जिसमें सभी मनुष्यों को समान महत्व दिया जाता है। जब से मानवीय सभ्यता का विकास हुआ तब से लेकर ताकतवर समूह कमजोर वर्ग का शोषण करता आया है। चाहे फिर यह शोषण जाति, धर्म, पंथ, लिंग, रंगभेद, क्षेत्रीय आधार तथा भाषायी आधार पर ही क्यों न हो। आधुनिक काल में असमानता का यह स्तर दो सभ्यताओं के आधार पर भी होने लगा था।
मानव इतिहास में लिंग के आधार पर महिलाओं के साथ, रंग-भेद के आधार पर अश्वेत समुदायों के साथ, धर्म के आधार पर दलित समुदायों के साथ, क्षेत्र के आधार पर तथा सभ्यता के आधार पर वन प्रान्तरों में निवासित आदिवासियों के साथ असामानता का व्यवहार हुआ है।
मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा का अनुच्छेद-1 के अनुसार ‘‘सभी मनुष्यों को इस घोषणा में सन्निहित सभी अधिकारों और आजादियों को प्राप्त करने का अधिकार है और इस मामले में जाति, वर्ण, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीति या अन्य विचार प्रणाली किसी देश या समाज विशेष में जन्म, संपति या किसी प्रकार की अन्य मर्यादा आदि के कारण भेदभाव का विचार नहीं किया जाएगा।’’14 समानता का यह मानवीय अधिकार आज विश्व में पूर्ण समर्थन प्राप्त अधिकार है। इसी प्रावधान के कारण विश्व के अनेक देशों ने भी इस प्रावधान को स्वीकार किए है। तथा अपने नागरिकों को यह मानवाधिकार प्रदान किए हैं।
भारतीय संविधान में भी अनु 14 से 18 तक समानता का अधिकार प्रदान किया गया है। अनु 14 कहता है कि ‘‘कानून के समक्ष सभी समान है।’’ किन्तु जब हम आदिवासी समाज पर विचार करते हैं तो आदिवासियों के साथ असमान व्यवहार एवं अपनाजनक विचार भाव गैर-आदिवासी सभ्य समाज द्वारा किया जाता है।
वास्तव में आदिवासी समाज को मनुष्य माना ही नहीं जाता यह असमान व्यवहार आदिवासी समाज के मानवाधिकारों का उल्लंघन है। भारतीय संविधान ने अधिकार तो दिया किन्तु कानून या संविधान में प्रावधान कर देने मात्र से क्या इन सभ्य लोगों की कलुंषित मनोवृति को धोया जा सकता है? कतई नहीं क्योंकि सभ्य समाज के बुद्धिजीवी यह निश्चि कर बैठे हैं कि ये कितना भी पढ़-लिख ले किन्तु इन्सान नहीं बन सकते एक कविता।
“कसम खाई है हमने
तुम्हें आदि मानव बनाए रखने की
कलम तलवार और बंदूक
तीनों ही है हमारी मुट्टी में
तीर से क्या खाक मारोगे?
बनने नहीं देगे हम
इस संसार में मानव तुम्हें ………..।”15
कहने का तात्पर्य यह है कि मानवाधिकारों का प्रावधान करना तथा मानवाधिकारों का व्यवाहारिक रूप में बहाली, दोनों में व्यापक अन्तर होता है। संविधान ने अधिकार तो प्रदान किया किन्तु समाज की मनोवृत्ति अभी भी जस की तस बनी हुयी है।
समानता के अधिकार का सर्वाधिक हनन स्त्रियों के संदर्भ में होता है। महिलाएँ दोहरे शोषण की शिकार हैं। आदिवासी महिलाओं के प्रति सोच एवं मनोवृति विशेष रूप से विचारणीय है। आदिवासी महिला बाहरी समाज हेतु एक खुली खेती है। जिसे बाहरी सांड जब चाहे चर जाए। पुरूषों की विकृत मानसिकता आज भी बदली नहीं है। आदिवासी महिलाओं का विभिन्न प्रकार से शोषण जारी है। दूसरी तरफ कई आदिवासी समुदायों में महिलाओं को वह अधिकार या सम्मान प्राप्त नहीं है , जो पुरूषों को दिया जाता है।
बाहरी लोगों की आदिवासियों के प्रति मानसिकता तो नीच है ही किन्तु आदिवासी महिला अपने ही समाज में शोषित है। उसका अस्तित्व पुरूषों के समान नहीं है जिसका एक संदर्भ
‘‘क्या हूँ मैं तुम्हारे लिए
एक तकिया
कि कहीं से थका-माँदा आया
और सिर टिका दिया।’’16
महिला मानवाधिकारों की स्थिति आदिवासी पुरूष के मानवाधिकारों से भी दयनीय है। हॉलॉकि घर ग्रहस्थी में सर्वाधिक श्रम महिलाएँ ही करती हैं। अपने परिवार बच्चों के लिए वह कठिन-से-कठिन चुनौतियों को स्वीकार करती है। स्वयं भूखी किन्तु पति एवं बच्चों के भूख की चिन्ता स्वयं अस्वस्थ्य किन्तु परिवार के स्वास्थ्य हेतु भटकती वह श्रम मूर्ति अनेक अधिकारों से वंचित है।
5. निष्कर्ष:
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में Manav adhikar kya hai इस प्रश्न पर विचार करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि आदिवासी समुदायों के अधिकार केवल सार्वभौम घोषणा पत्र एवं संविधान में ही विकसित हो रहें हैं। वे अधिकार अभी तक धरातल पर नहीं उतर पाए हैं या उन्हें धरातल पर लागू नहीं होने दिया जा रहा है। अधिकारों की घोषणा करना और उन अधिकारों को व्यावहारिकता में लागू करना दोनों में व्यापक अंतर होता है। आदिवासी क्षेत्रों में प्रशासनिक व्यवस्था का व्यापक भ्रष्टाचार शिक्षा की गुणवत्ता को निम्नस्तर पर ले आया है। वहाँ शिक्षा, शिक्षा के अधिकार की बहाली हेतु नहीं है बल्कि सरकारी संसाधनों का मिलबाटकर सफाया करने के लिए है। प्रशासनिक मशीनरी तथा राजनेताओं की बंदरबाँट में आदिवासी समुदायों के अधिकारों का हनन होता है। समानता के अधिकार का भी यही हाल है। कहने का तात्पर्य यह है कि आदिवासी समाज देश के विकास में सर्वाधिक भूमिका निभाया है। हजारों वर्षों से प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने के पश्चात भी आज सर्वाधिक बलि उन्हीं की दी जा रही हैं। आदिवासी समुदायों की बलि भी ऐसी दी जा रही है कि उस प्रक्रिया में उनके निजता के अधिकार का भी हनन हो रहा है। अत: आज विश्व समुदाय और बुद्धिजीवियों को सोचना आवश्यक है कि कब तक आदिवासी समाज अपना सब कुछ खोता रहेगा।
संदर्भ सूची:
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