आदिवासी समुदायों के संदर्भ में “Manav Adhikar kya hai” केवल आदर्श सपने? प्रत्येक चेतन प्राणी अपने जीवन एवं अपनी आत्मरक्षा हेतु स्वतंत्र है। वह अपनी जीवन शैली को पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के अनुरूप परिवर्तित कर सकता है। इन चेतन प्राणियों में मनुष्य भी है, मनुष्य अपनी आत्मरक्षा एवं आत्म गौरव बनाए रखने हेतु अपनी जीवन प्रक्रिया अथवा जीवन पद्धतियों को सुधार सकता है।
मनुष्य को जन्म से ही कुछ प्राकृतिक अधिकार प्राप्त होते हैं तथा कुछ अधिकार मानव अपने जीवन स्तर को ऊपर उठाने हेतु निश्चित करते हैं। किंतु प्रथम विश्व युद्ध तथा द्वितीय विश्व युद्ध में बड़े पैमाने पर प्राकृतिक और मानव अधिकारों का हनन हुआ। प्राकृतिक नियमों तथा मनुष्यता की गरिमा का उल्लंघन हुआ। फलत: विश्व के अनेक देशों द्वारा साझा विचार मंथन के दौरान निर्णय लिया गया कि मानव के अपने प्राकृतिक अधिकार होते हैं, जिनका हनन किसी भी स्थिति में न हो। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 10 सितंबर 1948 को सार्वभौमिक घोषणा पत्र प्रस्तुत करते हुए यह घोषणा की कि सभी नागरिक जन्म से समान है।
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित मानवाधिकार घोषणा पत्र में कुल 30 अनुच्छेद हैं। जिनमें अनेक अधिकारों को स्पष्ट किया गया है। वर्तमान में आदिवासी समुदायों की स्थिति का अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि इन मानवाधिकारों से यह समाज अभी भी बहुत दूर है।
मध्य एशिया के नागरिक, अफ्रीका के कुछ देशों एवं दक्षिण मध्य एशिया के देशों में हमें अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। जहाँ मानवाधिकारों का बड़े पैमाने पर हनन हो रहा है। विडंबना यह है कि आज विश्व स्तर पर मानव अधिकारों से सर्वाधिक वंचित आदिवासी समाज है। चाहे वह विश्व के किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में निवास कर रहा हो। आज आदिवासी समाज यह अनुभव कर रहा है कि उनकी स्वतंत्रता को छीन लिया गया है तथा उनके परंपरागत संसाधनों पर किसी दूसरे द्वारा नियंत्रित स्थापित कर लिया गया है। वे अपने प्राकृतिक एवं मानव अधिकारों से वंचित हो रहे हैं।
घोषणा पत्र में कुल 30 अनुच्छेदों में अनेक अधिकार प्रदान किए गए हैं किंतु यदि हम भारतीय आदिवासी समाज की बात करें तो उनके संदर्भ में अधिकांश अनुच्छेदों का उल्लंघन हो रहा है। अप्रत्यक्ष रूप से इन सभी अनुच्छेदों का उल्लंघन हो रहा है। लेकिन प्रत्यक्ष रूप से अनुच्छेद-1, अनुच्छेद-4, अनुच्छेद-9, अनुच्छेद-12, अनुच्छेद-17, अनुच्छेद-22, अनुच्छेद-23, अनुच्छेद-25 और अनुच्छेद-26 का सीधे तौर पर आदिवासी समुदायों के संदर्भ में उलझन हो रहा है। इन अनुच्छेदों में प्रदान किए गए अधिकारों से अभी भारतीय आदिवासी समाज कोसों दूर है। यह भारतीय लोकतंत्र हेतु शर्मनाक स्थिति को स्पष्ट करता है।
उपर्युक्त अनुच्छेदों में प्रदान किए गए अधिकारों के उल्लंघन के अनेक संदर्भ आज हम भारत में देख सकते हैं। इन अधिकारों में असमानता, सामाजिक असुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा कुपोषण, बाल श्रम, जबरन काम, अनुचित जीवन स्तर, गुलामी, मनमाने ढंग से जीवन में हस्तक्षेप, पोषण स्तर का अभाव, महिलाओं का मानसिक शारीरिक शोषण आदि अनेक उदाहरणों का विश्लेषण प्रस्तुत शोध-आलेख में करने का प्रयास किया गया है।
आदिवासी समाज के ऐतिहासिक विकास पर यदि हम दृष्टि डाले तो उनका इतिहास हमेशा बाहरी समाज से संघर्षमय रहा है। आर्यों का भारत आगमन से लेकर समकालीन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के अतिक्रमण तक उनका संघर्ष बाहरी हस्तक्षेपो के विरूद्ध हो रहा है। लेकिन विचारणीय तथ्य यह है कि वर्तमान समय आदिवासी समाज के समक्ष ऐसी चुनौतियों को लेकर खडा है। जिनके परिणाम स्वरूप यह समाज अपनी अस्मिता, अपने लक्षण, अपनी संस्कृति तथा अपने मानवाधिकारों की रक्षा हेतु संघर्ष कर रहा है।
समाज के किसी एक समूह के मानवाधिकारों का हनन होता है और सरकार इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास करने में असफल हो जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि ‘‘यदि उन में से किसी एक के अधिकारों या हितों की अन्य द्वारा अनदेखी होती है, तो ऐसा करना प्रकारान्तर से उस विशिष्ट समूह को राष्ट्र से बाहर मान लेना है।’’1 अब सवाल उठता है कि आदिवासी समहों के अधिकारों का हनन हो रहा है तो क्या आदिवासी समाज को यह व्यवस्था राष्ट्र से बाहर का मानती है? यह एक विचरणीय प्रश्न है।
आदिवासी कविताओं में चित्रित मानवाधिकार पर यदि हम विचार करे तो दृष्टिगोचर होता है कि सन 1948 की सार्वभौम घोषणा एवं भारतीय संविधान द्वारा प्राप्त सभी अधिकारों का कहीं न कहीं हनन हो रहा है। भोजन के अधिकार से लेकर रोजग़ार तथा गरिमामय जीवन तक सारे अधिकारों से आदिवासी समाज कोसों दूर है।
1. भोजन का अधिकार (खाद्य सुरक्षा) और आदिवासी समुदाय:
मनुष्य प्रकृति से ही स्वतंत्र है वह अपने जीवन, आत्मरक्षा हेतु विशेष जीवन यापन पद्धति अपना सकता है। भोजन का अधिकार एक ऐसा अधिकार है जिसके बिना मनुष्य ही नहीं बल्कि कोई भी चेतन प्राणी जीवित नहीं रह सकता। अतः भोजन का अधिकार एक प्राकृतिक अधिकार है जिसका हनन किसी भी स्थिति में नहीं किया जा सकता। संपूर्ण भारत में भूख से पीड़ित आदिवासी समाज अपनी खाद्य सुरक्षा हेतु संघर्ष कर रहा है।
खाद्य सुरक्षा का अधिकार एक मानवाधिकार है यह अधिकार सार्वभौम घोषणा या भारतीय संविधान में प्रत्यक्षतः शामिल नहीं है किन्तु उच्चतम न्यायलय के विभिन्न निर्णयों से स्पष्ट किया जात है कि अनु-21 के अन्तर्गत जीवन के अधिकार में खाद्य सुरक्षा अधिकार भी अन्तर्निहित है। अतः राज्य का उत्तरदायित्व है कि वह ऐसी नीति बनाएँ जिनसे जीविका के समुचित साधन प्राप्त करने का अधिकार सबको प्राप्त हो, राज्य नगरिकों का उचित पोषाहार तथा जीवन सुधारने का प्रयास करे।
मानवाधिकार की सार्वभौम घोषणा की अनुच्छेद 3 के अुनसार ‘‘प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वाधीनता और वैयाक्तिक सुरक्षा का अधिकार है।’’2 किन्तु आदिवासी समाज जीवन के इस अधिकार को प्राप्त करने हेतु संघर्ष कर रहा है।
भारतीय आदिवासियों में भूख का इस प्रकार भयावह रूप सोचने पर मजबूर करता है हालॉकि संविधान के भाग-3 और भाग-4 में और अन्तर्राष्ट्रीय घोषणाएँ जिन्हें भारत ने अनुमोदित किया है। जिनमें भोजन के अधिकार को मानवाधिकार के रूप में स्वीकार किया गया है।
2001 में PUCAL (पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज) द्वारा जनहित याचिका दायर की गई थी। इस याचिका में चार कार्यवाहियों का निवेदन किया गया था जो खाद्य सुरक्षा, जनवितरण एवं परिवारों से अनुदानित खादद्ययान्न के संबंध में थी। इस पर 2002 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि राज्य सरकारे कुपोषण एवं भूख से मृत्यु रोकने हेतु जिम्मेदार हैं। इन प्रयासों के बाद भी आदिवासी समाज की वास्ताविकता में कोई परिवर्तन नहीं आया है। देश में बचपन आज भी भूखा है। भूख के कारण कुपोषण की समस्या भारत में गभीर रूप से व्याप्त है। आदिवासी कविता आदित्य कुमार मांडी इस भूखे बचपन पर कविता लिखते हुए चित्रित करते है कि भूख बच्चों के जीवन को किस प्रकार प्रभावित करती है।
‘‘देश का बचपन भूखा है
लोखों बच्चें नंगे बदन हैं
कुछ बचपन झोपडियों में
बिलकते हुए पलता है तो
कुछ बचपन फुटपाथों पर अनाथ है।’’3
भारत में खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में विशेष रूप से 21वीं सदी में विचार किया गया। 2001 में भोजन को मौलिक अधिकार घोषित किया गया। 2005 में रोजगार हेतु मनरेगा शुरू किया गया, 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाया गया और समाज में गरीबी रेखा से नीचे लोगों के लिए अनुदानित कुल अनाज वितरण का कार्यक्रम चलाया जा रहा है।
सरकार द्वारा उपर्युक्त इतने सारे प्रावधान एवं कानून बनाए गए इतनी बड़ी-बड़ी योजनाएँ लागू की जा रही है फिर भी आदिवासी कविताओं में भूख इतनी गंभीर रूप में क्यों चित्रित हो रही है यह एक विचारणीय प्रश्न है। जब हम इस प्रश्न पर विचार करते है तो भारतीय प्रशासन, भारतीय समाज तथा आदिवासी सामाजिक स्थिति के विभिन्न पहलु हमारे समक्ष उभरते हैं। आदिवासी समाज मुख्यधारा के समाज से दूर वनों जंगलों तथा उपेक्षित क्षेत्रों में अधिकतर निवास करते है। आदिवासी समाज परम्परागत रूप से विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित जीवन व्यतीत करते थे जो अनायास प्राप्त होते थे।
इन अनायास प्राप्त वनोपज पर आधारित जीवन था किन्तु आधुनिक काल में देश काल की परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ और आदिवासियों की खाद्य सुरक्षा संकट में आ गई। अतः आदिवासी आज अपने भोजन हेतु दर-दर भटक रहा है, वह अपना गांव क्षेत्र छोड़कर अन्य प्रदेशों में आजीविका के साधन खोजने हेतु जा रहा है। कहना न होगा की आदिवासी समाज की खाद्य सुरक्षा इस समय संकट में है। भूख एवं खाद्य सुरक्षा पर इस प्रकार के संकट के पीछे गंभीर कारण विद्यमान हैं। आदिवासीयों की अर्थव्यवस्था संग्रह प्रधान नहीं बल्कि निर्वाह प्रधान है। फलतः वर्ष के कुछ महीनों तक का ही खाद्य सामग्री का वे भंडारण कर पाते हैं। खाद्य सामग्री समाप्त होने पर उन्हें जंगल में शिकार अथवा वनोपज हेतु भ्रमण करना पड़ता है।
लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली का क्रियान्वयन दूर-दराज के वन प्रान्तरों में सुव्यवस्थित रूप से नहीं हो पाता वितरण हेतु नियुक्त अधिकारी गण मिल-बाटकर सारे धान्य को हडप लेते हैं और अवैध रूप से बिक्री कर दिया जात है। अतः सरकार की वितरण प्रणाली के पीछे जो उद्धेश्य था वह पूर्ण नहीं हो पा रहा है।
खाद्य सुरक्षा विधेयक के अन्तर्गत लक्षित समूह के निर्धारण का सरकार द्वारा जो भी मानदण्ड अपनाया जाय उसमें अधिकांश आदिवासी समाज सम्मिलित हो सकता है किन्तु प्रश्न यह है कि इस प्रणाली का क्रियान्वयन कितनी सफलतापूर्वक होगा इस पर संदेह के साथ विचार करना आवश्यक है। कहा गया था कि इस अधिनियम द्वारा देश में गरीबी, कुपोषण तथा जीवन स्तर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और ऐसा हुआ भी है पिछले कुछ वर्षों में भारत में कुछ प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से बाहर निकले हैं किन्तु यदि हम आदिवासी समाज पर विचार करते है तो ऐसा नहीं हो पाया है। इस खाद्य वितरण प्रणाली के अन्तर्गत ‘‘सस्ते दामों में गेहू, चावल तथा मोटे अनाजों का वितरण होता है। इसके अतिरिक्त इस कानून में अन्य सराहनीय प्रावधान भी किए गए हैं। जैसे स्तन पान करानेवाली माताओं को एक निश्चित अवाधि तक मुफ्त आहार, छः वर्ष से अधिक आयु तथा चौदह वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों को दोपहर का मुफ्त भोजन, कुपोषित बच्चों को अंगनबाड़ी के माध्यम से मुफ्त आहार, विपन्न व्यक्तियों को दिन में एक बार आहार, बेघर लोगों को सामुदायिक रसोई से आहार विपदा और आपातकाल के दौरान पीडित व्यक्तियों को तीन महीने तक दिन में दो बार निःशुल्क भोजन आदि।’’4
यदि ‘खाद्य सुरक्षा’ अधिनियम के सारे प्रावधानों का योग्य एवं उचित क्रियान्वयन होता है तो आदिवासी समाज में भूख की समस्या इतनी विकराल रूप धारण नहीं करती किन्तु ऐसा नहीं हो पा रहा है। आज तक किसी भी प्रकार की योजनाएँ आदिवासी क्षेत्र में सफल नहीं हो पायी हैं। जहाँ आगंनबाडी ही नहीं वहाँ आंगनबाड़ी के माध्यम से कहाँ भोजन प्राप्त होगा जहाँ कहीं भी स्कूल हैं। आदिवासी क्षेत्रों में तो स्कूलों की स्थिति अति दयनीय है।
आदिवासियों के समक्ष मुख्य समस्या आजीविका के अभाव के परिणामस्वरूप उपजी भूख की है। भूख आदिवासियों से वह सब कुछ करवाती है जो साधारणतः मुख्यधारा का समाज करने हेतु कई बार सोचेगा।
वैश्विक भूख सूचकांक में भारत की विचारणीय स्थिति है। भारत में सर्वाधिक भूख से पीडित आदिवासी समाज है तथा आदिवासी समाज में भी महिलाएँ सर्वाधिक पीडित हैं । आवश्यक भोजन एवं समुचित पोषण के अभाव में कई स्वास्थ्य समस्याएँ एवं आनेवाली पीडियों में कुपोषण के लक्षण विद्यमान होते हैं। भूखी महिलाएँ स्वस्थ्य शिशु को जन्म नहीं दे पाती तथा समुचित भोजन के अभाव में बच्चों का शारीरिक विकास नहीं हो पाता है। खाद्यान्न की अनुपलब्थता से कुपोषण की समस्या आदिवासी समाज में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर एक बडे हिस्से में गहराती जा रही है। जिस पर आज गंभीर विचार विमर्श की आवश्यकता है।
3. स्वस्थ्य जीवन का अधिकार और आदिवासी समुदाय:
आदिवासियों का स्वास्थ्य प्रकृति से ही अधिक बुरा नहीं होता है परन्तु लगातार संक्रमणशील बीमारियों से वे पीड़ित भी रहते है। मानवाधिकार की सार्वभौम घोषणा की अनुच्छेद-25 में कहा गया है कि ‘‘प्रत्येक व्यक्ति को अपने ऐसे जीवन स्तर को प्राप्त करने का अधिकार है ……… जिसके अंतर्गत ……….. चिकित्सा संबंधी सुविधाएँ आवश्यक सामाजिक सुविधाएँ सम्मिलित है। सभी की बेकारी, बीमारी, असमर्थता, वैधव्य, बुढ़ापे या अन्य किसी ऐसी परिस्थिति में …….. सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है।’’5
मूलभूत सवाल यह है कि यह स्वास्थ्य का अधिकार क्या आदिवासी समाज तक पहुच पाया है। क्या आदिवासी समाज जानता है कि सरकार द्वारा दी जा रही स्वास्थ्य सुविधाएँ उनका अधिकार है? इन सवालों का उत्तर संभवतः! नकारात्मक ही होगा।
देखा जाए तो जनजातीय समाज में अनेक बीमारियाँ व्याप्त हैं किन्तु सर्वाधिक मात्रा में संक्रामक रोग पाए जाते हैं फिर वह किसी भी क्षेत्र का आदिवासी समुदाय क्यो न हो। पीने योग्य पानी का अभाव इन बीमारियों का मुख्य कारण है।
प्रथमतः जल का अभाव है जल लाने हेतु माहिलाएँ कई कीलोमीटर की दूरी तय करती हैं और झरने या नदी से जल ले आती हैं। किन्तु नदियों की हालत भी खस्ता हो चुकी है कई औद्योगिक कम्पनियों का गंदा पानी तथा खदानों से निकला प्रदूषण नदियों में छोड़ा जाता है। एक कविता में इसका भी चित्रण हुआ है।
‘‘खदानों से निकला
दूषित जल हम पी रहे हैं,
असंख्य व्याधियाँ घेर रही
जन प्रवंचित मर रहे है।’’6
इस दूषित प्रदूषित अशुद्ध पानी से अनेक बीमारियाँ होती हैं और अधिकतर लोग चर्मरोग, कालरा, पेचिस, आतिसार, नहरूमा, कैंसर आदि बीमारियों के शिकार होते हैं। हिमालयी तराई प्रदेशों में घोंघा जैसी गले की बीमारियाँ व्याप्त हैं । पोषक तत्वों की कमी के कारण कई समुदाय क्षय रोग के शिकार हैं। सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवाओं की आपूर्ति का बखान किया जाता है कि स्वास्थ्य प्रोफाइल में सुधार हो रहा है लेकिन वास्तविकता कुछ अलग ही होती।
पिछले कुछ वर्षों में औद्योगिक प्रदेशों के समीपवर्ती क्षेत्रों में निवासित आदिवासी समाज नई-नई बीमारियों का सामना कर रहा है, यदि स्पष्ट कहा जाए तो आज छतीसगढ़, झाखंड, ओडिशा, दक्षिणी बिहार, पूर्वी मध्यप्रदेश का क्षेत्र प्रदूषित अद्भय जहर से विषाक्त हो चुका है। भारत में सर्वाधिक प्रदूषण से प्रभावित आदिवासी हैं तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की बीमारियाँ जिनके इलाज का अभी शोध भी नहीं हुआ है, फैल रही है। अपंग, अपाहिज शिशु जन्म मंद बुद्धि के शिशु जन्म, विकलांगता, अपाहिज बूढे, टी.बी, थैंलेसेमिया, थायरायड़, दमा, कैंसर, स्केलिरन, रिफामिटिस त्वचा के रोग, पेठ में उभरी बड़ी गाठ (आर्बूद) छोटे आकर के सिरवाले शिशु (माइक्रोकेथेली) बडे आकार के सिरवाले बच्चे (मेगा केथेली), अपने नित्यकर्म से निपटने की सुध नहीं (डाउन सिड्रम) बांझपन आदि अनेक बीमारियों के नाम लिए जा सकते हैं। आदिवासी समाज इतनी सारी बीमारियों से ग्रस्त है। पुंडलिक की कविता ‘उत्खनन का प्रभाव’ में उपर्युक्त वास्तविकता का चित्रण हुआ है।
‘‘डगमगाते कद रखते,
बड़े-बड़े पेट लिए
नंग-धडंग शिशु।
हाथ-पाँव की उँगलियों की
बदलती संख्या
और परिवर्तित क्रम।
टेढ़ी-मेढ़ी टहनियों सा ढ़ॉचा लिए
धूल मिट्टी में
घिसटते विकलांग
नंगा नाच मौत का।’’7
यह समस्या उस क्षेत्र में केवल आदिवासियों की ही नहीं बल्कि सभी लोगों की है। जनजातियों में चिकित्सा की अपनी एक प्राचीन पद्धति है। जिसे ‘आयु ज्ञान’ (आयुष ज्ञान) कहते है। प्रत्येक समुदाय में एक व्यक्ति आवश्य ऐसा होता है जो आयुज्ञान को जानता है, समझता है और उसी के अनुसार इलाज भी करता है। जैसे किसी की हड्डी टूट गई तो चीरे हुए बॉस की पट्टियाँ बांधकर कुछ आयुर्वेदिक लेप लगा देता है। हड्डी के ऊपर जख्मी मास हेतु जोग का उपयोग किया जाता है। उसी प्रकार सिंदवार के तेल से दर्द की दवा बनाना …….. पलाश वृक्ष की छाल से बवासीर का उपचार करना। ये सारी वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित चिकित्सकीय विधियाँ हैं। जो आदिवासी समाज में प्रचलित हैं किन्तु भारतीय सरकार द्वारा इन पद्धतियों के विकास हेतु उचित प्रयास नहीं हुआ है।
सरकार भी स्वास्थ्य एवं चिकित्सा की दिशा में सुविधाएँ देने हेतु अनेक प्रयास कर रही है। क्योंकि स्वास्थ्य अधिकार एक मौलिक मानवाधिकार है। अतः सरकार का यह उत्तरदायित्व है कि वह लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाओं की आपूर्ति करे। सरकार की सवैधानिक जिम्मेदारी है कि वह स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन में मिलावट, दवाएँ तथा जहरिले पदार्थ, चिकित्सा व्यवस्था, जन्म-मृत्यु संबंधी आकडे, मानसिक असमर्थता और पागलपन जैसे स्वास्थ्य संबंधी गंभीर मुद्दों को निर्देशित व नियमित करें। ‘केन्द्रीय सरकार केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण परिषद’ की सहायता से विस्तृत नीतियाँ एवं योजनाएँ बनाती है एवं राज्य सरकारों को वितीय एवं तकनीकी सहायता प्रदान करती है।
जहाँ तक आदिवासी क्षेत्र की बात है, इन क्षेत्रों में स्वास्थ्य आधारित अवसंरचनाओं का अभाव है और जो भी कुछ है वह नही के बराबर है। इन क्षेत्रों में प्रत्येक लाख लोगों पर 0.16 के लगभग अस्पताल हैं और इन चिकित्सा केन्द्रों में आवश्यक जॉच सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। इन केंन्द्रों में डॉक्टरों की कमी तथा नर्स की तो नियुक्ति ही नहीं होती है और डॉक्टर महीनों में कुछ ही दिन अपने काम पर आता है और जब काम करता है तो मरीज एवं उनके रिस्तेदारों से अमानवीय व्यवहार करने लगता है। इन तमाम समस्याओं के कारण सरकार का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता है।
अस्वास्थता का सर्वाधिक प्रभाव महिलाओं पर पड़ता है और आदिवासी महिलाओं की स्थिति विशेषः चिंताजनक है। निरक्षरता, निर्धनता, कुपोषण, निम्न जीवन स्तर, प्रदूषण, स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में वे अनेक बीमारियों से जूझ रही हैं। वे पुरूषों से अधिक श्रम करती हैं फलतः अल्पपोषण स्तर के कारण रक्ताल्पता से ग्रस्त होती हैं। रक्ताभाव की स्थिति लौह अभाव के कारण होती है। सरकार द्वारा इन समस्याओं के समाधान हेतु ‘समेकित बाल विकास परियोजना’ में मातृत्व स्वास्थ्य कार्यक्रम, प्रजनन पथ संक्रमण तथा यौन संबंधी संक्रमण, मातृत्व वंदना योजना आदि योजनाएँ चलाई जा रही हैं। लेकिन इन योजनाओं का प्रावधान तो कर दिया गया है किन्तु इन कार्यक्रमों के क्रियान्वय के संबंध में कोई व्यवस्था नहीं की गई है। फलतः सभी योजनाएँ असफल हो रही हैं। इस असफलता का कारण है सही दृष्टिकोण का अभाव, कार्यकर्ताओं तथा कर्मचारियों की समस्याएँ, उपर्याप्त संचार व्यवस्था, दवा वितरण संबंधी नियम, सुविधाओं एवं योजनाओं से संबंधित प्रचार-प्रसार का अभाव आदि। इन सभी बाधाओं के निराकरण के पश्चात ही आदिवासी समाज अपने स्वास्थ्य संबंधी मानवाधिकार को प्राप्त कर पाएगा तथा अपने जीवन को गरिमापूर्ण बना सकेगा।
भारत में मानवाधिकारों की ऐतिहासिक और वर्तमान स्थिति आप यहाँ पढ़ सकते हैं
निष्कर्ष:
आदिवासी समुदायों के संदर्भ में Manav Adhikar kya hai इस प्रश्न का उत्तर कुछ हद तक इस लेख में दिया गया है और आनेवाले भागों में इसी प्रश्न के उत्तर को विस्तार दिया जाएगा। कहना न होगा कि आज भारत में आदिवासी समुदायों की स्थिति गंभीर एवं सोचनीय है। संपूर्ण भारत में 500 से अधिक आदिवासी समुदाय अनादि काल से रहते आ रहे हैं। उनके प्राकृतिक अधिकारों एवं मानव अधिकारों का उल्लंघन आज जिस प्रकार से हो रहा है, इस प्रकार का उल्लंघन कभी नहीं हुआ था। हालांकि आदिवासी समुदाय बाहरी गैर-आदिवासी समुदायों से प्राचीन काल से लड़ता आया है। किंतु उनके अपने प्राकृतिक एवं मानव अधिकार सुरक्षित रहे थे। वर्तमान समय में उनके सारे अधिकार छीन लिए गए हैं। वे अपने प्राकृतिक एवं मानव अधिकारों को प्राप्त करने में असफल हो रहे हैं।
भोजन का अधिकार, स्वस्थ जीवन का अधिकार, सर्व समावेशी शिक्षा का अधिकार, उनके जीवन में मनमाना हस्तक्षेप, समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार जिसमें विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण सम्मेलन की स्वतंत्रता, देश में भ्रमण का अधिकार, निवास की स्वतंत्रता, व्यवसाय अथवा वृत्ति अपने की स्वतंत्रता, मानव तस्करी, गरिमा पूर्ण जीवन जीने का अधिकार आदि विभिन्न अधिकारों की स्थिति आदिवासी समुदायों के संदर्भ में गंभीर रूप से सोचनीय है। आदिवासी समुदाय इन मूलभूत अधिकारों को स्वतंत्रता के 75 वर्षों के पश्चात भी उसे रूप में प्राप्त नहीं कर सका है, जिस रूप में प्राप्त किया जा सकता था। इस स्थिति के अनेक कारण हैं जिनका उल्लेख प्रस्तुत शोध आलेख में हुआ है। अतः हमें और सरकारों को तथा सरकारी संगठनों एवं गैर सरकारी संगठनों को एक साथ मिलकर इस दिशा में कार्य करने की आवश्यकता है।
संदर्भ सूची:
- नंदकिशोर आचार्य, मानवाधिकार की संस्कृति, वाग्देवी प्रकाशन बिकानेर , प्र. सं. 2010, पृ.64
- उर्मिला जैन, मानवाधिकार और हम, परमेश्वरी प्रकाशन नयी दिल्ली, प्र. सं. 2014, पृ. 96
- आदित्य कुमार मांडी,पहाड पर हूल फूल ,प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, 2015, पृ-95
- www.Livehindustan.com
- www.un.org
- राठोड पुंडलिक, जंगल के अंधियारे से…- अनंग प्रकाशन नयी दिल्ली, 2019, पृ. 70
- राठोड पुंडलिक, जंगल के अंधियारे से…., अनंग प्रकाशन नयी दिल्ली, 2019, पृ.55