वैश्वीकरण का यह दौर तथा आदिवासी समाज की स्थिति दोनों विरोधाभासी हैं। वैश्वीकरण के जितने लाभ, गुण एवं सकारात्मकता के लक्षण हैं, वे सभी मुख्य धारा, पूँजीपति वर्ग, विकसित देशों के हितों की रक्षा करते हैं। वैश्वीकरण उस वर्ग के लिए वरदान साबित हो रहा है, जो पूँजी के बल पर केवल अपनी उन्नति चाहता है और किसी भी सीमा तक जाकर प्राकृतिक संपदा को लूट लेना चाहता है। दूसरी vaishvikaran ke prabhav के जितने दोष एवं नकारात्मक लक्षण हैं, उनसे सर्वाधिक प्रभावित आदिवासी समाज, गरीब, ग्रामीण तथा मजदूर हुआ है।
वैश्वीकरण का परिचय:
अभय कुमार दुबे द्वारा संपादित पुस्तक भारत का भूमंडलीकरण में भूमंडलीकरण को बिंदुवार रूप से स्पष्ट किया गया है।
‘‘आधुनिक भूमंडलीकरण का प्रहला और प्रधान अर्थ है, एक विश्व-अर्थतंत्र और विश्व बाजार का निर्माण जिससे प्रत्येक राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को अनिवार्य तौर से जुड़ना होगा।’’
“‘दुनिया की राजनीति को इसी अर्थतंत्र और बाजार की जरूरतों के हिसाब से संचालित करने की परियोजना।’’
‘‘कंप्यूटर इंटरनेट और संचार के अन्य माध्यमों के जरिए दुनिया में राष्ट्रों, समुदायों, संस्कृतियों और व्यक्तियों के बीच फासलों का कम से कम होते चले जाना।’’
‘‘उपग्रहीय टेलीविज़न की मदद से एक भूमंडलीय संस्कृति की रचना करना।’’1
विश्व के किसी भी कोने में उत्पादित वस्तु, विचार तथा भावों को संपूर्ण विश्व में प्रसारण करने की संम्भावन वैश्वीकरण में हमेशा बनी रहती है। वैश्वीकरण का सबसे प्रधान माध्यम है, सूचना संचार के साधन जिसके माध्यम से विश्व एक परिधि में आने लगता है।
वैश्वीकरण में व्यापार, वित्त, एवं श्रम का अन्तर्राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है। राष्ट्र की सरकारों का बाजार, उत्पादन प्रक्रिया तथा अन्य विषयों में कम हस्तक्षेप होता है। अर्थात यह वैश्वीकरण पूर्णतः बाजार तथा पूँजी को केन्द्र में लेकर चलता है। एक व्यापक समरूप बाज़ार में अधिक से अधिक लाभ कमाना तथा अपनी उन्नति को शिखर पर पहुचाना मुख्य उद्धेश्य होता है। वैश्वीकरण में किसी एक देश की समस्या संपूर्ण विश्व की समस्या बनती है। उस समस्या का समाधान विश्व के सारे देशों द्वारा सम्मिलित रूप से किया जाता है। फलतः प्रभावित देश को अनेक सहायताएँ मिलती हैं।
वैश्वीकरण का आदिवासी समुदायों पर प्रभाव: vaishvikaran ke prabhav
वैश्वीकरण का जब हम आदिवासी समुदायों के संदर्भ में विचार करते है तो यह अवधारणा आदिवासी समाज के लिए आज तक नकारात्मक ही रही है। वैश्वीकरण के संदर्भ में विकिपीडिया में लिखा गया है कि “यह प्रक्रिया आर्थिक, तकनीकी, सामाजिक और राजनीतिक ताकतों का एक संयोजन है।”2 अभय कुमार जी ने कहा है कि यह अवधारणा बाज़ार और पूँजी के द्वारा अपनी केवल मात्र अपनी उन्नति के संदर्भ में विचार करती है। अर्थात वैश्विक स्तर पर जो भी संसाधन हैं उन्हें अपने हितों की पूर्ति हेतु उपयोग करना वैश्वीकरण की प्रमुख प्रवृति है। और आदिवासी समाज प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध क्षेत्रों में रहते हैं, ऐसे में आदिवासी समाज को पूँजीवादी मानसिकता और बाजारवादी दृष्टिकोण समाप्त करना चाहता है।
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वैश्वीकरण आज विश्व समाज को दो भागों में विभक्त कर दिया है। एक वर्ग वह है जो विश्व संसाधनों पर कब्जा करना चाहता है तथा अपने हितों की रक्षा कर अधिक से अधिक लाभ कमाना चाहता है हालांकि वैश्विक स्तर के निर्णयों में इनकी ही प्रधान भूमिका होती है। दूसरा वर्ग वह है, जो वैश्वीकरण प्रक्रिया से शोषित हो रहा है। इस वर्ग को यह ज्ञात भी नहीं होता कि वे जिनसे शोषित हैं वह कौन है? कहा रहता? कैसा है? क्योंक वैश्वीकरण की प्रक्रिया विश्व को एक परिधि में बांधना चाहती है। इसमें निर्णय कहीं ओर होते हैं तथा उन निर्णयों का प्रभाव कहीं ओर। फलतः आदिवासी समाज इन निर्णयों के प्रभाव से पीड़ित, शोषित एवं दमित हो रहा है। आदिवासी समाज शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी तथा विश्व में घटित होनेवाली नवीनतम घटना चक्रों से अनभिज्ञ होता है। वह वैश्वीकरण के मूल स्वभाव से तथा उसकी प्रकृति से तो अनभिज्ञ है ही किन्तु वह आज वैश्वीकरण के प्रभाव से अनभिज्ञ नहीं बल्कि उसका भूक्तभोगी भोगी भी है। वैश्वीकरण का वास्तविक चेहरा उसे दिखता तो नहीं है किन्तु प्रभावित आवश्य करता है। पुंड़लिक कि एक कविता ‘ड्रोसेरा’ में इसका चित्रण हुआ है।
‘‘हमारे अतीत से घुले मिले
इस वन में,
लगाता है, चक्कर कोई लगातार
आवाज उसकी
सुनाई देती है बार-बार
वह नहीं देता दिखाई, पर
धूम रहा बार-बार।’’3
यह वैश्वीकरण आदिवासी समाज को दिखता तो नहीं है लेकिन उन्हें नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है।
दरअसल बात यह है कि आदिवासी समाज हजारों वर्षों से प्राकृतिक संसाधन यथा वन, जंगल, पहाड़, नदियाँ, वन, झरने, प्रान्तर, वनस्पति, पेड़, पौधों एवं भूगर्भ में विद्यमान संसाधन आदि की रक्षा कर रहे हैं। उनके जीवन की प्रवृतियाँ एवं उनका जीवन जीने का तरीका ही ऐसा है कि उससे उपर्युक्त संसाधनों की अनायास रक्षा होती रहती है। इसके विपरित भूमंडलीकरण का यह, वह दौर है जब सारे प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंद दोहन कर लिया जाए कारण ऐसा सुनहरा समय हो सकता है कि उन्हें (कंपनियों को) दूबारा न मिल सके। यदि वैश्वीकरण का वास्तविक चेहरा जन-साधारण के समक्ष आने पर जनता विद्रोह कर देगी और यह सुनहरा समय उनके हाथ से फिसल न जाय। वे जानते हैं क्योंकि वे चालाक हैं। चालक व्यक्ति आनेवाले समय को भॉप लेता है। सन् 1989 में जो नई आर्थिक नीति देश में शुरू की गई थी। उसकी परिणति जनविरोधी वैश्वीकरण के रूप में अब सामने आने लगी है। फलतः सरकारें कुछ कदम न उठा ले इस आशंकावश बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ जितना हो सके उतना बेरहमी से इन प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में लगी हैं। प्राकृतिक संसाधन अधिकतर उन्हीं क्षेत्रों में हैं जहाँ आदिवासी समाज हजारों वर्षों से निवास करता आया है। साथ-साथ संसाधनों की रक्षा भी करता आया है। किन्तु वह कभी उन संसाधनों पर अपना मालिकाना हक जताने का दावा नहीं किया है किन्तु वैश्वीकरण के समय में पूँजीपतियों की गिद्द दृष्टि इन संसाधानों पर टीकी हुयी है। ऐसी स्थिति में आदिवासी समाज का भविष्य खतरे में पड़ जाता है।
औपनिवेशिक काल में मात्र एक इस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा इन संसाधनों का दोहन किया गया था, तब भी आदिवासी समाज अनेक आन्दोलन एवं संघर्ष के कई रूपों को जारी रखा था किन्तु इतिहासकारों ने उनके साथ पक्षपात का व्यवहार किया। उनके संघर्ष को इतिहास में स्थान नहीं मिला और इस समय भी वहीं स्थिति विद्यमान है। इस समय एक ही कम्पनी नहीं बल्कि सैकड़ों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की एक साथ घुसपैठ हो चूकी है।
‘‘धॅस रहे हैं
घने पेड़ों और झुरमुटों में
लहूलुहान और भौंचक्के
बेदखल होते हुए
हमारी पुश्तैनी जमीनों से।’’4
इस घुसपैठ में आदिवासी समाज का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। फलतः आदिवासी समाज अपने अस्तित्व की रक्षा हेतु संघर्ष करता आया है और उसका संघर्ष आज भी जारी है। आदिवासी समाज जो बाधक बन रहा है। इन पूँजीपतियों के संसाधन लुटों मोर्चे पर इसलिए बहुराष्ट्रीय निगमों, उनके मॉड़ल को माननेवाले देशी पूँजीपतियों और प्राकृतिक संसाधनों की बंदरबाट में लगे राजनेता, प्रशासकों व बिचौलियों को यह सूट करता है कि जो लोग प्राकृतिक संसाधनों के खिलाफ आवाज उठाए उन्हें समाप्त किया जाय तथा अपना रास्ता साफ किया जाय। अतः ये चालाक धूर्त तरह-तरह के हथकंड़े अपनाकार आदिवासियों के अस्तित्व को मिटाना चाहते हैं। कवि हरिराम मीणा इस चालबाजी को अपनी कविता में उतारते है।
‘‘शायद पचा नहीं सकते मुझे जीवित
तभी तो
चबाते रहे खोखली हड्डियों को
सूखे मॉस को चूसते रहे
पीते रहे जमे हुए लहू को
जलाते रहे
खाल बाल नाखुनों को
यह सोचकर कि, न बचे कोई सबूत
तुम्हारी चालाक व सधी हुयी यात्रा के
पथ पर।’’5
अतः यह जो संघर्ष है, वह जल, जंगल, जमीन के तथा पर्यावरण के लिए लढ़नेवाले राष्ट्रभक्तों एवं पूँजी नायक देशी-विदेशी लुटेरे पूँजीपतियों के बीच है और इस संघर्ष में सर्वसंसाधन संपन्न आधुनिक हाथियार तथा तकनीकी से लेस लुटेरा वर्ग राष्ट्रभक्तों पर भारी पड़ रहा है। इस गंभीर और निर्णायक समय पर आज सभी को विचार करने की आवश्यकता है। विचार इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि इस संघर्ष में राजनीतिक निर्णय, पूँजीवादी वर्ग राजनेताओं के माध्यम से लूटेरा वर्ग बड़े-बड़े निर्णय लेने लगाता है और उसमें बिकाऊ मीडिया उन निर्णयों के लाभ-ही-लाभ समाज के समक्ष दिखाते रहते हैं। अतः साधारण जनता इन निर्णयों के पीछे छुपी वास्तविक मंशा को समझ नहीं पाती है। इस दृष्टि से आदिवासी समाज पर इस वैश्वीकरण का प्रभाव जीवन के हर पहलुओं पर पड़ा है।
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वैश्वीकरण का आदिवासी समुदायों पर सामाजिक प्रभाव:
आदिवासी समाज पर वैश्वीकरण के सामाजिक प्रभाव पर जब हम विचार विमर्श, विश्लेषण करते हैं, तो स्पष्ट होता है कि अन्य मुख्य धारा पर वैश्वीकरण के प्रभाव की तुलना में आदिवासियों पर इसका न्यून प्रभाव पड़ा है। लेकिन यह केवल सामाजिक प्रभाव के संदर्भ में है न कि आर्थिक या सांस्कृतिक प्रभाव के संदर्भ में।
आदिवासी समाज संपूर्ण भारत के सभी क्षेत्रों में विद्यमान है किन्तु ये समुदाय भौगोलिक, पर्यावरणीय एवं प्रजातीय आधार पर भिन्न-भिन्न हैं। सामाजिक संरचना समाज की एक मौलिक संरचना है, जिसमें रीति-रिवाज, जनता, कानून, धर्म तथा नैतिकता और शिक्षा प्रमुख नियंत्रण के माध्यम होते हैं। आदिवासी समाज की सामाजिक स्थिति प्राचीन काल से विशिष्ट रही है जिसपर बाहरी प्रभाव बहुत कम पड़ा है किन्तु वैश्वीकरण के दौर में यह प्रभाव और तेजी से बढ़ रहा है।
आदिवासी समाज में गाँव का मुखिया प्रमुख निर्णय कर्ता तथा न्यायकर्ता होता है किन्तु वैश्वीकरण ने उसे बिकाऊ बना दिया है। वह अपने गांव को गिरवी भी रखने को तैयार है।
‘‘कैसा बिकाऊ है
तुम्हारी बस्ती का प्रधान
जो सिर्फ एक बोतल विदेशी दारू में
रख देता है
पूरे गांव को गिरवी।’’6
आदिवासी समाज का मुखिया सामाजिक नियंत्रण एवं उन्नति का कर्णधार होता है किन्तु वह वैश्वीकरण के प्रभाव में अपने कर्तव्य एवं नैतिकता को भूल गया है।
आदिवासी समाज के विभिन्न आदर्श आज दम तोड़ने लगे हैं। सामाजिक समता, न्याय प्रियता, प्रक्रति प्रेम, बलिदानी प्रवृति, ईमानदारी तथा सह-अस्तित्व आदि सभी जीवन मूल्यों पर वैश्वीकरण का प्रभाव पड़ा है। आज आदिवासी समाज के भीतर ही ऐसे लोग हैं, जो अपने ही समाज की बहु-बेटियों का सौदा करने लगे हैं। यहाँ तक कि महिलाएँ भी कुछ ऐसी हैं, जो युवतियों को दिल्ली भेजती है।
‘‘अपने ही बीच की उन कई-कई ऊँची सैण्डिल वाली
स्टेला कुजूर को भी
जो तुम्हारी भोली-भाली बहनों की आँखों में
सुनहरी जिंदगी का ख्वाब दिखाकर
कर रही है कच्चे मॉल की तरह सप्लाई।’’7
कहना न होगा कि आदिवासी समाज के नैतिक मूल्य भी वैश्वीकरण की बाढ़ में बह चूके हैं।
वैश्वीकरण के फलस्वरूप समाज में भ्रुण हत्या, दहेज हत्या, महिलाओं को जिन्दा जलाना, दूसरों के हक छीनना, पूँजीपतियों की लालची नीतियाँ, भेदभाव, हिंसा, नफरत, हत्या, अकेलापन, लूट आदि व्याप्त हैं। अर्थात वैश्वीकरण की मानसिकता किसी भी तत्व, बात, दर्शन या कोई भी कारक क्यो न हो, वह सबको अपने फायदे एवं अपने हितों के अनुरूप देखती है। वैश्वीकरण की मानसिकता पत्नी, पुत्र यहाँ तक कि माता-पिता को भी नफा-घाटा की दृष्टि से देखती है। वह सबको एक वस्तु मानकर आगे बढ़ती है। यदि माता-पिता के पास धन संपति है, तब तो वह दिखावा वाला देखभाल करते हैं। किन्तु माता-पिता उसे पढ़ाने हेतु संपूर्ण संपति को समाप्त कर चुके हैं और बुढ़ापे में वे खाली हाथ हैं। ऐसी स्थिति में यह वैश्वीकरण की मानसिकता उन्हें आवश्य वृद्धाश्रम का रास्ता दिखाती है।
वैश्वीकरण संचार के माध्यमों द्वारा आदिवासियों के घर में घुस चुका है और इसके प्रभाव से अब हमारे ही लोगों के भिन्न-भिन्न रूप दिखने लगे हैं।
‘‘शहर पहुचते ही वे अब तुम्हें
बोल्ड, हॉट और सेक्सी दिखने लगी है।’’8
वैश्वीकरण सारे संसार को अपने व्यापारिक हितों की दृष्टि से ही देखता है। एक कवि वैश्वीकरण से प्रभावित अपने मित्र को संबोधित करते हुए लिखते हैं कि-
‘‘बलात्कार करों
अपनी बेटी-बहनों के साथ
चूकि मुख्यधारा में जो आ गये हो तुम ……..?
पिट्टो, बित्त और लुक्का-छिप्पी की जगह
बोल्ड-बोल्ड, हॉट-हॉट और सेक्सी-सेक्सी,
खेलो तुम
अपनी बहनों के साथ।’’9
आदिवासी समाज पर वैश्वीकरण का यह प्रभाव आदिवासी सामाजिक संरचना को नष्ट कर रहा है। इस समाज की न्याय व्यवस्था भी धराशाही हो चुकी है। समाज की विवाह व्यवस्था में परिवर्तन आ गया है। अब घोटूल अथवा यात्रा में युवा-युवती एक दूसरे को देखकर पसंद करने की घटनाएँ कम होने लगी हैं। घोटुल व्यवस्था समाप्त प्रायः हो चुकी है। आज आदिवासी समाज का युवा वर्ग कुंछ पढ़ लिख चुका है और वह वैश्वीकरण की प्रवृति को अपनाने लगा है। अब वह सूट-बूट पैट के साथ टक ड़ालने लगा है। अब उसे अपने पोषाक पुराने एवं पिछड़े लगने लगे हैं। युवा वर्ग अब प्रकृति अथवा वृक्ष में ईश्वरीय चेतना पर विश्वास नहीं कर रहा बल्कि शिक्षा के माध्यम से फोन, टेलीविजन तथा लैपटॉप पर अधिक विश्वास करने लगा है।
वैश्वकीरण का सामाजिक प्रभाव यह भी हुआ है कि वह शिक्षित बनकर मुख्यधारा में शामिल होने की चेष्टा कर रहा है। अपनी आजीविका हेतु आदिवासी अपने मूल क्षेत्र को छोड़ अन्य नगरों महानगरों में जाने लगा है। अतः स्वाभाविक है कि वह वैश्वीकरण से प्रभावित होगा ही। फलतः सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन हो रहा है।
‘‘सोमा गया खाने-कमाने
बंधक खेत छुडाया
गया परदेश साझे में दिया खेत
गाय-काड़ा मूर्गी-चेंगना
सभी से बतिमाय आजी।’’10
इस प्रकार वैश्वीकरण जीवन मूल्य एवं नैतिकता के पहलुओं को झकझोरकर रख दिया है। जिससे समाज का कोई भी वर्ग आज अछूता नहीं रहा है।
निष्कर्ष:
आदिवासी समुदाय हजारों वर्षों से प्रकृति के गोद में अपना जीवन जीते आये हैं और प्राकृतिक संपदा का संरक्षण करते आये हैं। यही आदिवासी समुदायों की सबसे बड़ी गलती है। नहीं तो पूँजीवाद और बाजारवाद को क्या पड़ी है इन समुदायों को समाप्त करने की। बात तो यह है कि आदिवासी समुदाय प्राकृतिक संपदा के अनुचित दोहन का विरोध करते हैं और पूँजीवाद यह कतही बर्दाश्त नहीं कर सकता इसलिए वह अपना रास्ता साफ करना चाहता है। अब इस प्रक्रिया में चाहे आदिवासी हो या और कोई माई का लाल उसे रोक नहीं सकता और सरकारें भी तो उन्होंने ही बनाई है। तब किस बात का डर। कहना न होगा कि सरकारें और पूँजीवादी वर्ग दोनों का एक सुंदर-सा गठजोड़ है, जो साधारण समाज को दिखने की बात तो छोड़ ही दीजिए बल्कि उनकी सोच से भी परे की बात है। vaishvikaran ke prabhav की इस सारी प्रक्रिया में आदिवासी समाज पिसता जा रहा है, पिसता जा रहा है…..।
संदर्भ सूची:
- अभय कुमार दुबे, भारत का भूमंडलीकरण , वाणी प्रकाशन-2003, आवृत्ति 2017, प्र-377
- https://hi.m.wikipedia.org/wiki/
- राठोड पुंडलिक, जंगल के अंधियारे से…, अनंग प्रकाशन नयी दिल्ली, 2019, पृ 59
- हरिराम मीणा, संबह के इतजार में, शिल्पायन प्रकाशन नयी दिल्ली, 2006, पृ-34
- हरिराम मीणा, संबह के इतजार में, शिल्पायन प्रकाशन नयी दिल्ली, 2006, पृ-81
- सं. हरिराम मीणा, समकालीन आदिवासी कविता,अलख प्रकाशन जयपुर, 2013, पृ-28
- निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ नयी दिल्ली, 2012, पृ-21
- सं.राणिका गुप्ता, कलम को तीर होने दो, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2015, पृ-263
- सं.राणिका गुप्ता, कलम को तीर होने दो, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2015, पृ-264
- सं.राणिका गुप्ता, कलम को तीर होने दो, वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, 2015, पृ-287